बिहार में भाजपा और जनता दल-यू के बीच की खींचतान जिस तरह एक बार फिर सतह पर आती दिख रही है, वह इसलिए आश्चर्यजनक है, क्योंकि अभी चंद दिन पहले पटना गए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि 2024 के लोकसभा चुनाव और फिर उसके अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव दोनों दल मिलकर लड़ेंगे। उनके अतिरिक्त भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेता भी यह रेखांकित करते रहे हैं कि 2025 तक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही रहेंगे।

इस सबके बावजूद ऐसा लगता है कि भाजपा-जदयू के बीच सब कुछ ठीक नहीं। इसका एक संकेत तो दोनों दलों के राज्य स्तर के नेताओं की ओर से लगातार एक-दूसरे के खिलाफ तीखी होती बयानबाजी से मिलता है और इससे भी कि नीतीश कुमार न तो नीति आयोग की बैठक में भाग लेने दिल्ली आए, न राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द के विदाई समारोह में शामिल हुए और न ही नई राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु के शपथ ग्रहण समारोह में। वह राष्ट्रपति और फिर उपराष्ट्रपति के नामांकन के समय भी अनुपस्थित रहे।

इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अमित शाह के बयान के बाद जदयू नेता उपेंद्र कुशवाहा ने यह कहा कि गठबंधन कब तक रहेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। पता नहीं यह उनका अपना विचार है या जदयू का, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि राजनीति में कुछ भी हो सकता है। बिहार की राजनीति तो इसका उदाहरण भी प्रस्तुत करती रही है कि किसी भी गठबंधन में कभी भी टूट-फूट हो सकती है।

सब जानते हैं कि जदयू ने किस तरह 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा से नाता तोड़कर राजद से हाथ मिलाया और फिर कुछ समय बाद नए सिरे से भाजपा का साथ पकड़ा। कहना कठिन है कि क्या नीतीश कुमार एक बार फिर राजद के साथ जाएंगे, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि हाल के समय में उनमें और तेजस्वी यादव में नजदीकी बढ़ी है। चूंकि अपने देश में ऐसे मामलों की गिनती करना कठिन है, जब कोई दल एक गठबंधन से निकलकर दूसरे का हिस्सा बना, इसलिए अन्य राज्यों की तरह बिहार में भी कुछ भी हो सकता है।

राजनीतिक दलों में अलगाव और मिलन कभी स्थायी नहीं होता, लेकिन इतना अवश्य है कि जो दल सुशासन के बजाय अपनी सुविधा के लिए बार-बार पाला बदलते हैं, वे जनता के भरोसे के साथ अपनी साख भी गंवाते हैं। बिहार में गठबंधन के रिश्ते फिर से बदलें या नहीं, लेकिन यह तय है कि यदि सत्ता का कोई नया समीकरण बनता है तो उसका सबसे अधिक नुकसान राज्य की जनता को उठाना पड़ेगा। ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि नई सरकार के गठन की सूरत में उसकी प्राथमिकताएं भी बदलेंगी और नौकरशाही के कामकाज का तौर-तरीका भी।