सीबीआइ की विशेष अदालत ने अयोध्या ढांचे के ध्वंस मामले में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और कल्याण सिंह समेत सभी 32 अभियुक्तों को केवल बरी ही नहीं किया, बल्कि यह भी कहा कि यह घटना पूर्व नियोजित नहीं थी। इसका अर्थ यही निकलता है कि 28 साल पुरानी इस घटना के लिए भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को जिम्मेदार ठहराने का काम संकीर्ण राजनीतिक कारणों से किया गया। बहुत संभव है कि इसी कारण सीबीआइ अपनी लंबी जांच-पड़ताल के बाद भी उन लोगों तक न पहुंच सकी हो, जिनकी ढांचे के ध्वंस में कोई भूमिका रही हो। सच जो भी हो, आम धारणा यही है कि विवादित ढांचे का ध्वंस कारसेवकों के आवेश का परिणाम था। भले ही आज इसका संज्ञान लेने की आवश्यकता न समझी जाए कि यह आवेश किन परिस्थितियों के कारण उपजा, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि व्यापक हिंदू समाज के लिए यह ढांचा उसकी आस्था के साथ हुए खिलवाड़ और अन्याय का प्रतीक था।

यह एक विडंबना ही थी कि तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व और साथ ही सेक्युलरिज्म की दुहाई देने वाला बौद्धिक वर्ग अयोध्या के विवादित ढांचे को राम के जन्म स्थान के रूप में मान्यता देने के लिए तैयार नहीं था। यह वर्ग राम के वहां पैदा होने के प्रमाण ही नहीं मांग रहा था, बल्कि ऐसे सवालों से मुंह भी मोड़ रहा था कि आखिर आक्रमणकारी बाबर या फिर उसके सेनापति मीर बकी का अयोध्या से क्या लेना-देना था? इस मामले में न्यायपालिका भी सक्रियता दिखाने से बच रही थी। सदियों पुराने इस विवाद को बातचीत के जरिये सुलझाने के प्रयास भी नाकाम हो रहे थे, क्योंकि एक पक्ष को इसके लिए उकसाया जा रहा था कि वह समझौते के लिए तैयार न हो। इस सबके चलते ही एक ऐसा माहौल बना, जिसने कारसेवकों को क्षोभ से भर दिया और एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी। ऐसा नहीं होना चाहिए था, यह केवल लालकृष्ण आडवाणी और अन्य भाजपा नेताओं का ही कहना नहीं था, हिंदू समाज की भी ऐसी ही सोच थी।

अयोध्या विवाद का निपटारा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी यही कहा था कि ढांचे का ध्वंस एक आपराधिक कृत्य था। वास्तव में इस घटना को उचित नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन सीबीआइ विशेष अदालत के फैसले के आधार पर ऐसे नतीजे पर भी पहुंचने का कोई मतलब नहीं कि भारत में न्याय नहीं होता। ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचने के पहले इस पर गौर करना चाहिए कि उग्र भीड़ की ओर से अंजाम दी जाने वाली घटनाओं में जिम्मेदार लोगों की पहचान कर उन्हें दंडित करना हमेशा कठिन रहा है-तब तो और भी, जब मामले की जांच राजनीति प्रेरित रही हो।