गरीबी रेखा को वही महसूस कर सकता है जिसके ऊपर यह शाप बन कर मजबूरी की लकीर खींच देती है। ऐसे लोग छटपटाते हैं कि इसके साये से बाहर आ सकें, जो नहीं आ पाते उनके लिए प्रावधान हैं कि सरकार की मदद उन्हें मिले। राशन से लेकर दवा तक में रियायत मिले लेकिन कुछ लोगों के लिए गरीबी रेखा ऐसी तार है जिसे वे अपने कद से कुछ ऊपर रखते हैं और जानबूझ कर रखते हैं। ऐसे लोग इस रेखा से नीचे जानबूझ कर आना चाहते हैं। इनके लिए रेखा लोचदार हो भी जाती है। घर पक्का, छत पर डिश टीवी, निजी क्षेत्र की नौकरी भी..लेकिन गरीब कहलाने का मोह इतना कि अपात्र भी पात्र या सुपात्र घोषित होने में कामयाब हो जाते हैं। सरकारी मदद उस व्यक्ति तक पहुंचे जिसे वास्तव में यह मदद चाहिए, इसी उद्देश्य से पंचायतों में यह क्रम जारी है कि अवांछित को बाहर किया जाए और जो पात्र हैं उन्हें मदद जारी रह सके। जाहिर है इस कसरत में स्थानीय राजनीति, मेल मुलाहिजा और कई प्रकार के पक्ष सक्रिय रहते हैं, अपनी भूमिका निभाते हैं इसलिए यह छोटी कसरत नहीं है। जाहिर है जब कसरत छोटी न हो, तो प्रयास भी बड़े चाहिए। उन्हीं बड़े प्रयासों में कुछ गड़बड़ हुई और कुछ पात्र बाहर हो गए।

ऐसे घर भी बाहर हुए जिनके यहां कोई कमाने वाला नहीं। सुलह में ऐसा मामला सामने आया। लेकिन सुखद है कि मीडिया तक बात आई और प्रशासन या स्थानीय निकाय ने अपनी गलती को स्वीकार कर लिया। यही उचित भी था। वास्तव में हिमाचल प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय लगातार बढ़ रही है, विकास का सूचकांक कम से कम आंकड़ों में तो बढ़ ही रहा है लेकिन ऐसे बहुत से घर हैं जहां अब भी गरीबी दिखाई देती है। वे लोग दिखाई देते हैं जिन्हें गरीबी को जीना पड़ता है। कोई महिला पति की मौत के बाद दो बच्चों की पढ़ाई का खर्च बिना किसी आय के स्रोत के उठा रही है। कहीं कोई मजबूर पिता दिहाड़ी लगा कर तीन बेटियों व पत्नी का पालन कर रहा है। ऐसा घर भी है जिसके मुखिया की एक टांग कट चुकी है लेकिन जिम्मेदारियों का बोझ बहुत है। ऐसे मामलों पर प्रशासनिक अधिकारियों को तो गौर करना चाहिए लेकिन पंचायतों को भी इतनी जानकारी होनी ही चाहिए कि जिनके घर पक्के हैं, जो किसी न किसी स्रोत से आय का सृजन कर ही रहे हैं, उन्हें हटा कर पात्रों को स्थान देना चाहिए। ऐसा नहीं होगा तो इस कसरत का कोई लाभ नहीं होगा।

[ स्थानीय संपादकीय: हिमाचल प्रदेश ]