[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: 2019 के आम चुनावों में करीब 89.61 करोड़ मतदाताओं के भाग लेने की उम्मीद है। 2014 में यह संख्या 83.4 करोड़ थी। अपेक्षा करनी चाहिए कि लगभग सात करोड़ नए मतदाताओं में कम से कम से कम पांच करोड़ तो मतदान करेंगे ही। पिछले पांच वर्षों में इनमें से अधिकांश ने स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में रहकर देश में जो कुछ हो रहा है, उसे जाना है, हर प्रकार के प्रचार माध्यमों, सोशल मीडिया इत्यादि को समझा है और उसके उपयोग सीखे हैैं। जानकारी प्राप्त करने के लिए इन्हें अब केवल स्कूल, अध्यापक और पुस्तकों पर निर्भर नहीं रहना पड़ रहा है। यह सजग युवा पीढ़ी है, जो अपने समक्ष एक ऐसे गतिशील विश्व को देख रही है जो अप्रत्याशित तेजी से बदल रहा है। इन्होंने यह भी अनुभव किया है कि देश में जटिलताएं और समस्याएं केवल रोजगार के क्षेत्र में ही नहीं, सामजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी बढ़ रही हैं।

पिछले कई दशकों से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी बड़ी संख्या में युवा अपनी शिक्षा और कौशल क्षमता से स्वयं भी संतुष्ट नहीं रहे हैं। रोजगार के अवसर और क्षेत्र बदल गए हैं। आज का युवा जानता है कि उनके सामने एक जटिल, घोर प्रतिस्पर्धा से भरा परिदृश्य उभरा है जिसमें अपने लिए स्थान बनाने के लिए सघन और परिपूर्ण तैयारी आवश्यक है। वह सरकार से सतर्क, सार्थक और समेकित नीतियां चाहता है। वह अपने चारों और यह देख रहा है कि आजादी के बाद देश में शिक्षा के क्षेत्र में संख्याएं तो लगातार बढ़ीं और प्रगति के रूप में प्रस्तुत की जाती रहीं, मगर गुणवत्ता लगातार घटती रही। 2004-05 के बाद के दस वर्षों में इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की बड़ी-बड़ी और महंगी डिग्रियां लेकर आए नए स्नातकों को रोजगार के बाजार में स्पष्ट बता दिया गया कि उनकी तैयारी अपूर्ण है। माता-पिता और युवा ठगे से रहकर यह परिदृश्य देखते रहे। स्कूलों, महाविद्यालयों, सरकारी महकमों में नियुक्तियां या तो बंद रहीं या अनेक वर्षों तक किसी न किसी बहाने लटकी रहीं। अनेक राज्यों में खुलेआम जातीय संरक्षण को प्रश्रय मिला।

2002 के बाद देश में वोटों की राजनीति करने वाले और अपने को ‘सेक्युलर’ घोषित करने वालों ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए गुजरात के दंगों को भुनाना चाहा ताकि उनका ‘वोट बैंक’ सारे देश में आगे के लिए सुरक्षित हो जाए। अपनी इस इस रणनीति से उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को घर-घर चर्चा का विषय बना दिया। 2004-14 के बीच तत्कालीन केंद्रीय सरकार ने अपनी सारी शक्ति उन्हें अपराधी सिद्ध करने में लगा दी। असत्य और दुर्भावना के आधार पर बनी यह रणनीति उसे बनाने वालों पर ही भारी पड़ी। चुनावी जानकार कुछ भी कहें, सच्चाई यही है कि 2014 तक पूरे देश में गुजरात की चर्चा से दिशा बदल चुकी थी। देश के हर भाग से गुजरात गए या वहां काम कर अपने प्रदेश लौटने वालों के मुंह से सभी ने वहां के विकास और परिवर्तन की प्रशंसा ही सुनी। हर जगह लोग जानना चाहते थे कि तमाम विषय परिस्थितियों में कोई व्यक्ति अपने राज्य में इतना विकास कैसे कर पाया होगा?

इसी पृष्ठभूमि में नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय पटल पर उभरे। एक निराश और कमजोर मनोबल वाली युवा पीढ़ी को लगा कि यदि गुजरात में यह व्यक्ति कठिनतम स्थिति में रहकर भी बदलाव ला सकता है तो वह देश को भी जागृत कर सकता है और पिछले दशक के घोटालों एवं शिथिल नीतियों से भी देश को निजात दिला सकता है। परिणामस्वरूप भारत के जनतंत्र की चुनावी राजनीति में एक अत्यंत अप्रत्याशित घटना घटित हुई। हर प्रकार की दलगत राजनीति से ऊपर उठकर भारत के युवा वर्ग ने नरेंद्र मोदी को अपना आइकान मान लिया। इसके कोई आंकड़े नहीं हैं, मगर 2014 में पहली बार लोगों ने अपनी पहले की प्रतिबद्धताओं को दरकिनार कर भारत का नेतृत्व व्यक्ति विशेष को सौंपने के लिए वोट दिया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। मेरा अपना अनुभव और अनुमान है कि इस स्थिति के निर्माण में उस युवा वर्ग का सबसे बड़ा योगदान था जो तब 18 से 25-26 आयु वर्ग का था और अपने भविष्य को संवारना चाहता था, साथ ही देश के विकास में भागीदारी चाहता था।

हर पीढ़ी के युवाओं को सपने देखने का हक होता ही है। उनकी अपेक्षाएं उड़ान भरती ही हैं। 2014 में भी ऐसा ही हुआ। नई केंद्रीय सरकार ने बहुत कुछ अप्रत्याशित प्रारंभ किया, जिसे देखकर और उसके संभावित प्रभाव तथा परिणाम की संकल्पना कर विपक्ष के महत्वाकांक्षी नेता विचलित हुए। उन्हें लगा कि उनका भविष्य अंधकारमय हो गया है। जिस गति से मोदी सरकार सामान्य व्यक्ति तक पहुंचने लगी उससे वे निराशा के अंधकार में पहुंच गए। घर में गैस सिलिंडर, बैंक अकाउंट, दुर्घटना बीमा, घर मिलने की संभावना, शौचालय बनाने के लिए अनुदान, इनका महत्व वही समझ सका जो इन सबसे वंचित था।

इसका महत्व वे नेता कैसे समझें जो अपनी 40-50 साल पहले की स्थिति भूल चुके थे, जनता से दूर हो गए थे, सैकड़ों करोड़ की संपत्ति अर्जित कर चुके थे। वे कैसे समझते कि गैस सिलिंडर पाना भी जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि हो सकती है या घर में शौचालय का होना गृहस्वामी को कितना संतोष प्रदान कर सकता है। ये नेता यह भी भूल गए कि आज के समय में हलाला या तीन तलाक जैसी स्थितियां कोई भी समाज स्वीकार नहीं कर सकता, भले ही कुछ स्वार्थी तत्व उसे जारी रखने की वकालत करें। दुर्भाग्य से भारत के विपक्षी नेता इतिहास से सबक नहीं ले पाए। शाहबानो प्रकरण को भूलकर इस बार भी वे महिलाओं के साथ खड़े नहीं हो पाए।

प्रगतिशील युवा वर्ग महिलाओं के प्रति हर प्रकार के अन्याय को समाप्त होते ही देखना चाहता है। इस परिस्थितिजन्य हताशा का परिणाम रहा कि पाकिस्तान से लगातार हो रहे आतंकी हमलों के बावजूद देश का विपक्ष सरकार के साथ खड़ा नहीं हो पाया। उसने सेना के शौर्य तक पर संदेह प्रकट किया। जिस भाषा में प्रधानमंत्री पर आरोप लगाए गए वह किसी भी प्रजातांत्रिक समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता। वर्तमान सरकार की उपलब्धियों का जो आकलन 18-26 आयुवर्ग के लोगों द्वारा होगा वह अत्यंत महत्वपूर्ण रहेगा। यह वर्ग भविष्य के प्रति आशावान है और आगामी आम चुनावों को गति एवं दिशा इसी वर्ग के मतदाता प्रदान करेंगे।

( लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैैं )