गिरीश्वर मिश्र। Yogi Adityanath Government 2.0 इसमें कोई संदेह नहीं कि गोवा के सागर तट, उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों, उत्तर प्रदेश के गंगा-यमुना के मैदान और पूवरेत्तर में पर्वत-घाटी वाले मणिपुर से आने वाले चुनाव परिणामों से भाजपा की छवि राष्ट्रीय स्तर पर एक सशक्त और ऊर्जावान राजनीतिक दल के रूप में निखरी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक नायक के रूप स्वीकृति पर इससे फिर मुहर लगी है। ऐसे राष्ट्रव्यापी जनसमर्थन को मात्र संयोग कहकर कमतर नहीं आंका जा सकता। न ही इसे जाति, धन और समुदाय के आधार पर समझा जा सकता है। जहां जनता ने पंजाब में कांग्रेस की सरकार को बुरी तरह खारिज कर दिया, वहीं चार राज्यों में भाजपा की सरकार के पुन: सत्ता में आने पर मुहर लगाई।

भाजपा में जनता के इस भरोसे को व्यापक रूप से समझना होगा। भाजपा का यह प्रदर्शन तात्कालिक रणनीति और प्रचार से अधिक सघन जनसंपर्क तथा समाज में हाशिये पर मौजूद लोगों के लिए कल्याणकारी कार्यक्रमों की सक्रियता, उपलब्धता और प्रभाविकता को भी दर्शाता है। बुनियादी ढांचे का बड़े पैमाने विस्तार, माफिया और भ्रष्टाचार पर बड़ी हद तक नियंत्रण और अराजक तत्वों पर नकेल कसने जैसे कठोर उपाय उत्तर प्रदेश जैसे विशाल और जनसंख्याबहुल राज्य के लिए ऐतिहासिक महत्व के कहे जा सकते हैं। बिजली, पानी और सड़क जैसी आम जरूरत की सुविधाओं के बढ़ने से भी लोग जीवन में सुविधा महसूस करने लगे हैं।

हाल में हुए चुनावों के परिप्रेक्ष्य में यह कहने में किसी प्रकार का कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि राष्ट्र की एकता, गौरव और सामथ्र्य को लेकर प्रधानमंत्री मोदी के कटिबद्ध प्रयास से जनता का मन भी बदला है और सोच भी। इस बदलाव के पीछे प्रधानमंत्री की अनथक सक्रियता की बड़ी भूमिका है। ऐसी सक्रियता इतिहास और वर्तमान में प्रधानमंत्री के स्तर पर दूर-दूर तक नहीं दिखती। प्रेरणा देना और राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अभिनव पहल और सक्रियता का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत कर उन्होंने आम लोगों के मन में साख अर्जित की है। कोरोना काल की विभीषिका को भारत ने जिस प्रकार राजनीतिक कोलाहल को अनदेखा कर जैसी क्षमता के साथ संभाला, उसने सबको निरुत्तर कर दिया। यह संतोष की बात है कि महामारी के चलते बिगड़े अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम से आज जहां सारी दुनिया में हाहाकार मचा है, वहीं भारत अपनी स्थिति को काफी कुछ संभाल सकने में कामयाब रहा।

प्रधानमंत्री कई वर्षो से ‘मन की बात’ के जरिये जनसंवाद का एक अद्भुत प्रयोग कर रहे हैं। उसमें सकारात्मक विचारों और उदाहरणों के साथ आमजन को प्रेरित करने का उपक्रम अनवरत जारी है। मोदी वास्तव में आम जनों से जुड़ने का कोई अवसर नहीं छोड़ते हैं। देश-धर्म के लिए जुटने का उनका सतत आग्रह सामाजिक मूल्यबोध को अंगीकार करने की दिशा में आम लोगों को उन्मुख करने वाला होता है। जनाभिमुख नेतृत्व की यह ऐतिहासिक मिसाल है। ऐसा संवादकुशल नेतृत्व जनता के मर्म को समझता है और दृढ़तापूर्वक अपना संदेश उन तक पहुंचाता भी है।

विपक्ष की तीखी आलोचनाओं के बीच जोखिम उठाते हुए मोदी ने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक महत्व के अनेक नीतिगत फैसले लिए और उनको दृढ़ता से लागू किया। शिक्षा व्यवस्था को लेकर ऊहापोह की स्थिति में आभासी प्लेटफार्म पर बड़े पैमाने पर आनलाइन पढाई की व्यवस्था से काम चलाने का प्रयास हुआ, जिसका मिश्रित परिणाम प्राप्त हुआ। कामकाजी दुनिया भी तेजी से डिजिटल होने लगी। आर्थिक रूप से विकास की मंजिलों की ओर आगे बढ़ती एक विश्वस्तरीय बड़ी अर्थव्यवस्था के स्वप्न के साथ वंचित वर्ग की स्थिति को सुधारने के संकल्प की दोहरी चुनौती के लिए सरकार की प्रकट प्रतिबद्धता ने जनता को भरोसा दिलाया है। देश के उत्थान का यह विस्तृत फलक सभी साझा कर रहे हैं और स्वतंत्र भारत की शताब्दी के प्रति समुत्सुक हो रहे हैं। देश के जीवन में अल्प विराम के बाद गतिशीलता आने के लक्षण स्पष्ट दिख रहे हैं।

यहां इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि मतदाता की समझदारी बढ़ने के साथ सरकार के दायित्व क्षेत्र भी जनता की तीक्ष्ण निगरानी के दायरे में आ रहे हैं। प्रशासन तंत्र की औसत चुस्ती-फुर्ती अभी भी संतोषजनक नहीं हो सकी है और उसमें शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्थाएं न केवल अस्तव्यस्त हैं, बल्कि उनमें बड़े दिनों से व्यापक सुधार की प्रतीक्षा बनी हुई है। हौले-हौले कुछ कदम उठाए गए हैं, मगर ठहराव और जड़ता इतनी गहरे पैठी है कि अभी भी मर्ज कम नहीं हो सका है। स्वतंत्र भारत में तुष्टीकरण की राजनीति से प्रलोभनों का जाल फैलता गया। इसके फौरी राजनीतिक फायदे भी उठाए जाते रहे हैं, परंतु समस्याओं के प्रति तटस्थता के चलते यथास्थितिवाद को तरजीह मिलती रही। यह माना जाता रहा कि समय सभी समस्याओं को कभी न कभी स्वत: हल कर देगा, परंतु ऐसा नहीं हुआ। जैसे कि कश्मीर में पूर्ववर्ती अनुच्छेद 370 के प्रति जिस नजरिये को अपनाया जाता रहा उससे परिदृश्य कितना जटिल होता गया, यह सबके सामने है। ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जिनमें कुछ-कुछ काम होता रहा, परंतु उनसे आने वाला सतही बदलाव स्थायी सकारात्मक परिवर्तन नहीं ला सका।

संप्रति स्वाधीनता के अमृत महोत्सव मनाए जाने के अवसर पर ‘स्वतंत्र’ महसूस करने के लिए अब तक चली आ रही औपनिवेशिक कार्यप्रणाली की जकड़नों को पहचान कर दूर करना होगा। मुश्किल यही है कि हम अपनी समस्याओं को पहचानने और समाधान ढूंढने के लिए भी परनिर्भर होते जा रहे हैं। इसके दुष्परिणाम भी दिख रहे हैं। अनेक संस्थाएं अव्यवस्था का शिकार होती जा रही हैं। उनकी सृजनात्मकता और गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है। उनके स्वभाव के साथ छेड़छाड़ को राजनीतिक हित की रक्षा दृष्टि से किसी भी प्रकार जायज नहीं ठहराया जा सकता। इसी तरह भौतिक और सामाजिक परिवेश में व्याप्त हो रहे प्रदूषण, महंगाई, बेरोजगारी, असुरक्षा, भ्रष्टाचार और ¨हसा जैसी जीवनरोधी प्रक्रियाओं के विरुद्ध प्रभावी और ठोस कदम उठाने जरूरी हो गए हैं। वर्तमान जनादेश इन सभी समस्याओं से पार पाने के लिए आह्वान है। जनता को भरोसा है कि इनसे पार पाना मुमकिन है।

(लेखक दर्शनशास्त्री एवं पूर्व कुलपति हैं)