सदियों से योग विद्या भारत की अमूल्य धरोहर रही है। इसकी प्रासंगिकता का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि समस्त विश्व योग दिवस को स्वीकार कर चुका है। वस्तुत: योग एक संयमपूर्वक की जाने वाली साधना है, जो स्वचेतना को परम चेतना से मिलाती है। महर्षि पतंजलि ने कहा है कि चित्त की वृत्तियों को हम जितना अंतर्मुखी करते हैं, उतना ही सत्य का प्रकाश हमारे जीवन में बढ़ता है। अज्ञान, अंधकार, असत्य सब कुछ मिलकर ज्ञान, प्रकाश और सत्य में परावर्तित होता है। इसलिए ज्यादा से ज्यादा प्रयास करते हुए अपने शरीर और मन को साधें। शरीर और मन के मध्य सीधा संबंध है। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही हमारे ऋषि-मुनियों ने योग के चार मुख्य मार्र्गों ध्यान योग, भक्ति योग, कर्मयोग और ज्ञानयोग का उल्लेख किया है। योग में यम-नियम के साथ-साथ मुख्य रूप से आहार की शुद्धि को महत्व दिया गया है।

अफसोस हम अपना सारा जीवन दौडऩे-धूपने में व्यर्थ कर देते हैं। परमात्मा के दिए हुए इस मानव शरीर को हम कौडिय़ों के भाव इस्तेमाल करते हैं। इसकी सार्थकता की तरफ हमारा ध्यान शायद ही जाता है। जीवन पर्यंत परिधि का चक्कर लगाते रहते हैं और केंद्र की तरफ आने का प्रयास भी नहीं करते। आत्मस्थ होने के लिए हमें महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग का पालन करना होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान को माध्यम बनाकर ही हम समाधिस्थ हो सकते हैं। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को सदैव सजग करते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन, व्यक्ति योगियों के साथ योगी और भोगियों के साथ भोगी बन जाता है। भोग भोगने से तृप्ति कदापि नहीं होती है, बल्कि कामनाएं बलवती होती जाती हैं। समस्त विषय-वासनाओं का विनाश करने के लिए यौगिक क्रियाओं से बढ़कर कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है। मानव जीवन के समग्र विकास के लिए योग संजीवनी है। यदि हम सचेत नहीं हुए तो विषय-वासनाओं के कीचड़ में फंसकर बार-बार चौरासी लाख योनियों में भटकते रहेंगे। संकल्प लें कि हमें आज ही योग को माध्यम बनाकर जीवन को सफल बनाना है। तन और मन को विकृत होने से बचाएं। यदि अंत:करण पवित्र हुआ तो मन में किसी के प्रति द्वेष और वैमनस्य का भाव नहीं रहता है।

[महर्षि ओम]