प्रशांत मिश्र

राजनीति में बदलाव हमेशा से तेज ही होता है पर समाज भी उतनी ही तेजी से आगे बढ़े और राजनीति के केंद्र में समाज आने लगे तो इसे सकारात्मक संकेत माना जाना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि आज भी भारतीय राजनीति में व्यक्तित्व अहम है। वरना कोई कारण नहीं है कि नरेंद्र मोदी विपरीत हवा में भी खड़े होकर उसे अपने पक्ष में मोड़ लेते हैं। यह भी सच्चाई है कि हाल के वर्षों में विकास और सामाजिक जागरूकता भी मुद्दा बना है। जातिवाद खत्म तो नहीं हुआ है, लेकिन विकासवाद उस पर हावी होता जरूर दिखा है और यह आशा बंधी है कि राजनीति अब समाज केंद्रित होगी। घटनाओं से भरा साल 2017 खत्म होने को है। ऐसे में राजनीति की विवेचना की जाए तो केवल चुनावी जीत-हार तक सीमित रहना सही नहीं होगा, बल्कि यह देखना होगा कि नतीजे के लिए जिम्मेदार जनता किस तरह सोचती है। इस कसौटी पर उत्तर प्रदेश से लेकर हाल के गुजरात और हिमाचल प्रदेश तक यह स्थापित हो गया है कि चुनाव में भी विकास बिकाऊ मुद्दा है। इसे इसलिए बदलाव माना जाएगा, क्योंकि अब तक यही माना जाता रहा है कि विकास चुनाव नहीं जिताता है। वरना अटल बिहारी वाजपेयी और आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू चुनाव नहीं हारते। अब स्थिति बदल गई है। उत्तर प्रदेश में भाजपा ने अभूतपूर्व जीत हासिल की। विकास की चाहत ने भाजपा को ऐसी उंचाई पर खड़ा कर दिया जहां से दूसरे सभी दल ठिगने दिखने लगे। पड़ोस के उत्तराखंड में बदलाव की ऐसी बयार बही कि कांग्रेस के मुख्यमंत्री दो सीटों से लड़ने के बावजूद नहीं संभल पाए। इसी तरह पंजाब में अकाली सरकार बह गई और विकल्प के रूप में सामने खड़ी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में से जनता ने कांग्रेस को भारी मत से चुना। पंजाब की जनता ने ऐसा चेहरा चुना जो विश्वसनीय था। जनता को ऐसा चेहरा पसंद नहीं आया जो संवेदना भड़काकर वोट की आस देख रहा था। बहुत मुश्किल से विकास और शांति की राह पर बढ़े पंजाब के लोगों ने फिर से उस आग की ओर बढ़ने से इन्कार कर दिया।
2016 के अंत में नोटबंदी का साहसिक फैसला हुआ था। साहसिक इसलिए, क्योंकि चार महीने बाद ही उत्तर प्रदेश का चुनाव होना था। विपक्ष को मानों घर बैठे मुद्दा मिल गया और उसने नए नोट के लिए लाइन में लगने वाले कुछ लोगों की मौत को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन आम जनता ने काले धन की सफाई के अभियान पर मुहर लगा दी। इसमें कोई शक नहीं कि नोटबंदी के बाद कई गरीब परिवारों के लिए भी तात्कालिक रूप से संकट पैदा हो गया था, लेकिन उन्होंने भी समाज और देश में बदलाव के लिए सरकार के फैसले के साथ अपना हाथ जोड़ दिया था। कुछ ही दिन बीते कि मोदी सरकार ने जीएसटी को भी अमल में लाने की घोषणा कर दी। एक तरह से सात-आठ महीने के अंतराल में दो बड़े साहसिक कदम राजनीतिक बदलाव को दिखाते हैैं। सामान्यतया सत्ता में मौजूद राजनीतिक दल और नेतृत्व चुनावी मौसम में कमजोर हो जाता है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने सबसे अहम चुनावों से पहले ही सबसे ज्यादा जोखिम लिया। जब उत्तर प्रदेश और गुजरात दांव पर था तभी उन्होंने सबसे बड़े फैसले किए। ऐसे फैसले जिसने कईयों के पैर उखाड़ दिए, लेकिन देश को ताकत दे दी। शायद यह आत्मविश्वास का असर हो या फिर इसका कि वह गुजरात के पुराने अनुभव से प्रेरित रहे हों। गुजरात में 12 साल तक सत्ता में रहे मोदी का रिकार्ड रहा है कि वह चुनावों से पहले भी सख्त कदम उठाने से नहीं हिचकते थे। ध्यान रहे कि ब्रांड मोदी का निर्माण वहीं हुआ था। गुजरात का चुनाव ऐसे हुआ जैसे लोकसभा चुनाव हो रहा हो। विपक्ष ने जीएसटी को खूब जोर-शोर से मुद्दा बनाया, समाज के प्रभावी पटेल वर्ग को साधने के लिए आरक्षण का भी दांव चला। उस विकास को पागल भी करार दिया जिससे गुजरात की पहचान होने लगी है। ये सभी मुद्दे फिस्स साबित हुए और फिर से भाजपा ही सत्ता में आ गई।


हिमाचल प्रदेश में भी मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल की हार के बावजूद भाजपा को भारी बहुमत का भी एक अर्थ है और वह यह कि जनता के लिए व्यक्ति नहीं वह पार्टी महत्वपूर्ण हो गई है जो विकास कर सकती है। स्थानीय नेतृत्व किसके हाथ में होगा, यह गौण हो गया और हिमाचल की जनता ने प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर विश्वास कर लिया। सवाल उठता है कि आखिर किसी पर इतना भरोसा कैसे पैदा हो सकता है कि जनता किसी पार्टी को तीन साढ़े तीन साल में देश का लगभग सत्तर फीसद हिस्सा सौंप दे? भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी आयरन लेडी मानी जाती रही हैैं। जवाहर लाल नेहरू तो चाचा नेहरू ही बन गए थे, लेकिन उनके वक्त में कांग्रेस का इतनी तेजी से विकास नहीं हुआ था। नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के प्रबंधन ने साढ़े तीन साल में ऐसा करिश्मा किया कि भाजपा और राजग की सरकारें 19 राज्यों में स्थापित हो गईं। सही मायने में नरेंद्र मोदी ने अब तक के सभी मापदंड तोड़ दिए हैैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि वह पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो बहुत लंबे समय तक मुख्यमंत्री भी रहे हैैं और उनकी सोच-समझ छोटे से कसबे तक भी पहुंचती है। जनता से संवाद स्थापित करने में जितने मोदी सफल रहे हैैं वह इंदिरा और नेहरू के लिए भी संभव नहीं हो सका था।
अगर बीतते साल की बात करें तो सात राज्यों में चुनाव हुए और छह में भाजपा की सरकार बनी। विपक्ष की ओर से ईवीएम जैसे मुद्दे भी उछाले गए, लेकिन हाल के चुनाव में खुद ईवीएम ने यह साबित कर दिया कि वह पास है। अब भविष्य पर नजरें टिकी हैं। डेढ़ साल बाद लोकसभा चुनाव है। उससे पहले कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के साथ-साथ उत्तर पूर्व के चार राज्यों में चुनाव होने हैैैं। त्रिपुरा, केरल के अलावा वामपंथ का आखिरी गढ़ बचा है। भाजपा का वहां जिस गति से विकास हुआ है उसे देखते हुए त्रिपुरा में भी केसरिया लहराए तो हैरत नहीं। ध्यान रहे कि पश्चिम बंगाल में भाजपा ने जिस तरह अपना वोट शेयर बढ़ाया है और कांग्रेस जनाधार खो रही है उसकी झलक त्रिपुरा में भी दिखी है। वहां तृणमूल के सभी विधायक भाजपा में शामिल हो चुके हैैं। दक्षिण में कर्नाटक की जीत भाजपा के लिए सुदूर दक्षिण में भी विस्तार का रास्ता खोलेगी। वहीं मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में उसे सत्ताविरोधी लहर से जूझना पड़ सकता है। राजस्थान में तो खेमेबाजी शुरू से भाजपा के लिए सिरदर्द का कारण रही है। इन राज्यों में भी भाजपा की जीत हुई तो फिर कभी कोई विकास को पागल करार देने की जुर्रत नहीं करेगा।
[ लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैैं ]