[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: एक समय अमेरिका विश्व व्यापार संगठन यानी डब्लूटीओ की स्थापना में अग्रणी भूमिका निभा रहा था, लेकिन आज अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप उसी डब्लूटीओ को नुकसानदेह बता रहे हैं। इसे समझने के लिए पहले मुक्त व्यापार के सिद्धांत को समझें। यह सिद्धांत यही है कि हर एक क्षेत्र किसी खास वस्तु के उत्पादन में महारत रखता है। जैसे भुसावल में केले का उत्पादन सस्ता पड़ता है और मेरठ में चीनी का। दोनों के लिए लाभप्रद है कि भुसावल केले का उत्पादन करके मेरठ को भेजे और मेरठ चीनी का उत्पादन कर उसे भुसावल भेजे। इससे दोनों को केला और चीनी सस्ते मिल जाते हैं, लेकिन अब दूसरी स्थिति को समझें, जिसमें अमेरिका लड़ाकू विमान सस्ता बनाता है और भारत दूध का उत्पादन सस्ता करता है।

मुक्त व्यापार के सिद्धांत के अनुसार अमेरिका को लड़ाकू विमानों का निर्यात करना चाहिए और भारत को दूध का। अब मान लीजिए कि अमेरिका लड़ाकू विमानों का दुनिया में इकलौता उत्पादक है और उसके एवज में वह मनचाहा दाम चाहता है। ऐसे में भारत के हित में यही होगा कि वह अपने देश में ही लड़ाकू विमान बनाए।

मुक्त व्यापार का सिद्धांत तब नाकाम हो जाता है जब किसी विशेष देश का किसी माल पर एकाधिकार होता है जैसे लड़ाकू विमान के मामले में अमेरिका का है। 1990 के दशक में अमेरिका में नए तकनीकी आविष्कार हो रहे थे जैसे माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज सॉफ्टवेयर बनाया, सिस्को ने राउटर सिस्टम बनाए, एचपी ने प्रिंटर इत्यादि बनाए। अमेरिका इन एकाधिकार वाली वस्तुओं को दुनियाभर में बेचना चाहता था। तब उसके लिए मुक्त विश्व व्यापार दोहरे लाभ का सौदा था।

एक तरफ विंडोज सॉफ्टवेयर जैसे एकाधिकार वाले माल को अमेरिका मुंहमांगे दाम पर बेचकर दुनियाभर से लाभ कमाता था। दूसरी ओर भारत से सस्ती चीनी का आयात करके लाभ उठाता था। इसीलिए अमेरिका ने उस समय मुक्त व्यापार की जोरशोर से पैरवी की और डब्लूटीओ को बनाने में अहम भूमिका निभाई थी। पिछले कुछ समय में हालात बदल गए हैं। अब विंडोज जैसे सॉफ्टवेयर, सिस्को के राउटर या प्रिंटर जैसे माल तमाम देश बनाने लगे हैं। अमेरिका के पास एकाधिकार वाले उत्पाद कम रह गए हैं। ऐसे में अमेरिका के लिए विश्व व्यापार घाटे का सौदा हो गया है। एकाधिकार वाली वस्तुओं की संख्या कम होने से उसके पास महंगा माल बेचने के आज कम अवसर हैं। अब अमेरिका की स्थिति भुसावल और मेरठ जैसी हो गई है। अमेरिका सेब का उत्पादन करके भारत को भेज सकता है और भारत चीनी का उत्पादन कर अमेरिका को भेज सकता है।

इस प्रकार का विश्व व्यापार वास्तव में दोनों देशों के लिए लाभप्रद है, लेकिन इस स्थिति में अमेरिका और भारत केश्रमिकों के वेतन भी बराबर हो जाएंगे। जैसे अमेरिका में सेब के उत्पादन में यदि श्रमिक की दिहाड़ी 6,000 रुपये है और भारत के कुल्लू में श्रमिक की दिहाड़ी 400 रुपये है तो भारत का सेब अमेरिका के मुकाबले सस्ता पड़ेगा और अमेरिका का सेब भारत में नहीं बिक पाएगा।

खुले विश्व व्यापार का तार्किक परिणाम यह होगा कि संपूर्ण विश्व में वेतन भी बराबर होंगे। यदि ऐसा होता है तो विकसित देशों के वर्तमान में ऊंचे वेतन नीचे आएंगे जो अमेरिका को स्वीकार नहीं हैं। इसलिए अमेरिका चाहता है कि अब यह विश्व व्यापार से पीछे हट जाए जिससे भारत का सस्ता सेब और सस्ती चीनी, अमेरिका में प्रवेश न करे और अमेरिका के सेब उत्पादक अपने श्रमिकों को पहले की ही तरह ऊंचा वेतन देते रहें। इसी सोच के तहत अमेरिका ने बीते दिनों भारत और चीन से आयात होने वाले इस्पात पर भारी आयात कर लगाया।

भारत में इस्पात का उत्पादन सस्ता पड़ता है, क्योंकि यहां श्रमिकों के वेतन कम हैं। ट्रंप ने भारत से आयात होने वाले इस्पात पर आयात कर इसलिए बढ़ाए ताकि अमेरिका के इस्पात उत्पादकों का धंधा चौपट न होने पाए। अमेरिका का मुक्त व्यापार से पीछे हटना यह बताता हैै कि अब वहां नई तकनीकों का सृजन कम हो रहा है। अमेरिका को मुक्त व्यापार में अब विश्व के तमाम देशों से टक्कर लेनी पड़ रही है जिसमें वह असफल हो रहा है। अपने मंतव्य को पूरा करने के लिए राष्ट्रपति ट्रंप ने डब्लूटीओ को ही खंडित करने की रणनीति बना ली है। डब्लूटीओ के नियमों में व्यवस्था है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर कोई भी देश किसी विशेष माल पर आयात कर लगा सकता है। इस प्रावधान का उपयोग करते हुए अमेरिका ने भारत में उत्पादित इस्पात पर आयात कर बढ़ाया, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि इस्पात के उत्पादन में राष्ट्रीय सुरक्षा का कोई पेंच नहीं है।

अमेरिका अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए मनचाही मात्रा में इस्पात का उत्पादन कर सकता है। उसके लिए भारत से इस्पात के आयात का कोई संकट पैदा नहीं होता है, लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप ने राष्ट्रीय सुरक्षा को ढाल के रूप में उपयोग करते हुए भारत से आयातित इस्पात पर आयात कर बढ़ा दिया। उन्होंने एक कानून बनाने का प्रस्ताव रखा है जिसके अंतर्गत डब्लूटीओ के नियमों के बावजूद अमेरिकी सरकार उत्पादों पर मनचाहे आयात कर लगा सकेगी। डब्लूटीओ संधि करते समय सभी देशों ने अपने द्वारा लगाए जाने वाले अधिकतम आयात कर की सीमा निर्धारित कर दी थी।

अब ट्रंप ने नया कानून बनाकर उस संधि को पलटने की योजना बनाई है। यदि अमेरिका ने पूर्व में डब्लूटीओ को आश्वासन दे रखा है कि वह किसी विशेष उत्पाद पर एक सीमा तक ही आयात कर लगाएगा तो अब वह उससे ज्यादा आयात कर लगाने के लिए डब्लूटीओ की मूल भावना के विपरीत कानून बनाने की तैयारी कर रहा है। राष्ट्रपति ट्रंप ने डब्लूटीओ की भावना के खिलाफ एक और कदम उठाया है। डब्लूटीओ में देशों के बीच कोई विवाद उठने पर उसकी अपील डब्लूटीओ की अपीलीय व्यवस्था में की जाती है। राष्ट्रपति ट्रंप ने अपीलीय व्यवस्था में नए जजों की नियुक्ति पर सहमति नहीं दी है। वहां जजों की संख्या कम होती जा रही है और शीघ्र ही अपीलीय व्यवस्था में एक भी जज नहीं रह जाएगा। ऐसे में अपीलीय व्यवस्था निरस्त हो जाएगी और डब्लूटीओ के दायरे में विवादों को हल करने का कोई रास्ता नहीं रह जाएगा। तब अमेरिका समेत हर देश खुलकर डब्लूटीओ के नियमों का उल्लंघन कर सकेगा, क्योंकि इस मामले में अपील ही नहीं हो पाएगी।

वाणिज्य मंत्री सुरेश प्रभु ने सही कदम उठाते हुए तमाम देशों को आमंत्रित किया था कि डब्लूटीओ पर नई पहल की जाए, लेकिन भारत अथवा किसी दूसरे विकासशील देश द्वारा की गई इस पहल का सफल होना लगभग असंभव है। इसका कारण यह है कि विश्व व्यापार मूलत: विकसित देशों के लिए अब उतना लाभदायक नहीं रह गया है। विश्व अर्थव्यवस्था संपूर्ण विश्व में श्रम के एक ही वेतन की ओर बढ़ रही है जो कि विकसित देशों को स्वीकार नहीं है। इसलिए विश्व अर्थव्यवस्था में मुक्त व्यापार के अंत की आशंका ही अधिक दिखती है।

[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलूर के पूर्व प्रोफेसर हैं ]