प्रो. मक्खन लाल; इन दिनों कश्मीर के कांग्रेसी नेता सैफुद्दीन सोज की किताब-‘कश्मीर: ग्लिम्पसेस ऑफ हिस्ट्री एंड द स्टोरी ऑफ स्ट्रगल’ चर्चा में हैै। इसमे उन्होंने लिखा है कि अनुच्छेद 370 सरदार पटेल की देन है और पटेल तो हैदराबाद के बदले कश्मीर पाकिस्तान को देने के लिए तैयार थे और यह तो पंडित नेहरू थे जो राजी नहीं हुए। आनन-फानन कुछ लोगों ने बिना तथ्यों की जांच-पड़ताल किए यह दोहरा दिया कि सोज सही कह रहे हैैं।

बेहतर होता कि सोज और उनके ऐसे लेखन से सहमति जताने वाले थोड़ी छानबीन कर लेते। यह मुश्किल काम नहीं था। इस सिलसिले में 13 खंडो में छपे सरदार पटेल के पत्राचार का पहला खंड ही पर्याप्त है। यह पूरा खंड कश्मीर समस्या को समर्पित है। इस खंड में 1945-46 से लेकर 1950 तक पटेल, नेहरू, महाराजा, गोपालस्वामी आयंगर, शेख अब्दुल्ला आदि के बीच हुए मूल पत्राचार संकलित हैं। इस खंड के आधार पर हम यह बहुत आसानी से कह सकते हैं कि कश्मीर समस्या के लिए लगभग पूरी तौर पर जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला ही जिम्मेदार हैैं।

आम धारणा है कि महाराजा हरि सिंह ने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के दस्तावेजों पर समय रहते हस्ताक्षर नहीं किए, लेकिन क्या किसी ने यह जानने की कोशिश की है कि सच्चाई क्या है? नेहरू ने महाराजा को जैसे पत्र लिखे और जिस तरह उन्हें अपमानित किया उससे वह तो क्या, कोई छोटा-मोटा जमींदार भी संशय से घिरा होता।

जब संविधान निर्माण का कार्य चल रहा था तब 29 सितंबर 1948 को शेख अब्दुल्ला ने एक पत्रकार वार्ता में जम्मू-कश्मीर को एक स्वतंत्र देश कहा। पटेल ने यह पढ़ने के बाद 30 सितंबर को नेहरू को पत्र लिखा, ‘‘शेख अब्दुल्ला ने कल दिल्ली में पत्रकार वार्ता में जो कुछ कहा उसे पढ़कर हैरान हूं। शेख साहब ने भारत के कुछ ऐसे लोगों का भी जिक्र किया है जो कश्मीर पाकिस्तान को दे देना चाहते हैं। मैं जानना चाहूंगा कि वे कौन लोग हैं? जहां तक मेरी जानकारी है, ऐसे जितने लोग कश्मीर में हैं उतने पूरे भारत में मिलाकर भी नहीं हैैं।’’

सरदार पटेल ने गोपालस्वामी आयंगर को भी पत्र लिखा। सरदार पटेल के गुस्से को ध्यान में रखते हुए नेहरू और आयंगर लीपापोती के साथ अब्दुल्ला के बचाव में लग गए। नेहरू ने पटेल को लिखा, ‘मैं आपसे पूरी तरह से सहमत हूं...अब्दुल्ला अच्छे विचारक नहीं हैं और अक्सर बोलते समय हमारे और नेताओं की तरह बहक जाते हैं।’’ पटेल की प्रतिक्रिया जानने के बाद अब्दुल्ला ने 30 सितंबर को ही उन्हें पत्र लिखकर यह सफाई दी कि मुझे समझने में पत्रकारों से भूल हुई है। पटेल उन्हें छोड़ने वाले नहीं थे। उन्होंने जवाबी पत्र लिखा, ‘‘आप अकेले ऐसे इंसान हैं जो न केवल बहुत से लोगों, बल्कि जवाहरलाल, गोपालास्वामी और मेरे द्वारा भी गलत समझ लिए जाते हैं।’

अक्टूबर 1948 के बाद शेख अब्दुल्ला ने स्वतंत्र कश्मीर की मांग का शोर और भी तेज कर दिया। उन्होंने विभाजन के बाद पाकिस्तान गए लोगों को भारत आने का आह्वान किया। एक विदेशी पत्रकार को दिए गए साक्षात्कार में अब्दुल्ला ने कहा, ‘‘किसी देश में कश्मीर का विलय शांति नहीं ला सकता। हम चाहते हैं कि न केवल भारत और पाकिस्तान, बल्कि ब्रिटेन, अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र के अन्य देश यह सुनिश्चित करें किकश्मीर एक स्वतंत्र देश बने। ... संयुक्त राष्ट्र की गारंटी ही इस मामले को निपटा सकती है।’’ शेख के इस कथन से सभी हतप्रभ थे। यहां तक कि गोपालस्वामी भी जो हमेशा शेख का पक्ष लेते थे। गोपालस्वामी ने पटेल को पत्र लिखा, ‘मैं शेख के बयान की पुरजोर भत्र्सना करता हूं। ...मुझे लगता है इसमें कश्मीर को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करने का कोई खेल छिपा हुआ है, जिसमें शेख खुद शामिल हैं।...इसकी अंतिम परिणति इतिहास में सबसे बड़ी गद्दारी के रूप में होगी।’

जब संविधान निर्माण का काम अंतिम चरण में था तब तक कश्मीर को लेकर एक मसौदा तैयार किया जा चुका था। इस मसौदे को नेहरू, पटेल, गोपालस्वामी, डॉ. आंबेडकर, महाराजा हरि सिंह, शेख और उनके तीन साथियों ने तैयार किया। इस मसौदे को अनुच्छेद 306 के नाम से जाना गया। इस अनुच्छेद को संविधान सभा ने स्वीकार कर पास भी कर दिया, परंतु श्रीनगर पहुंचकर शेख ने पूरे मसौदे को खारिज करते हुए मांग की कि हम बाकी और राज्यों के बराबर नहीं रह सकते। हमें अलग दर्जा चाहिए।

गोपालस्वामी ने अत्यंत दु:ख से पटेल को पत्र लिखा, ‘‘आपके घर पर सभी की उपस्थिति में शेख और उनके साथियों ने मसौदे को सहमति दी थी। हमें कतई उम्मीद नहीं थी कि मुझे और पंडित जी को इस तरह नीचा दिखाया जाएगा।’’ इसके बाद तो कहानी और भी दर्दनाक मोड़ ले लेती है। गोपालस्वामी ने 15 अक्टूबर 1949 को सरदार पटेल को कश्मीर के बारे में उनकी सहमति के लिए एक नया मसौदा एक चिट्ठी के साथ भेजा। इसमें लिखा था, ‘इस नए मसौदे में मूलत: वही बातें हैैं जो पहले वाले में थीं। थोड़ा-बहुत हेर-फेर किया गया है, इस उम्मीद में कि यह शेख और उनके साथियों को स्वीकार होगा।’

नए मसौदे को पढ़कर पटेल दंग रह गए। जिसे गोपालस्वामी छोटा-मोटा परिवर्तन बता रहे थे वह तो कुछ और था। पटेल ने गोपालस्वामी को पत्र लिखा, ‘‘मैंने पाया कि मूल मसौदे में बहुत ही गंभीर बदलाव किए गए हैं। मुख्यत: नागरिकों के मूलभूत अधिकारों और राज्यों के नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने को लेकर। आप इसकी गंभीरता इससे समझ सकते हैं कि कोई राज्य भारत का हिस्सा है, लेकिन संविधान के सिद्धांतों को नहीं मानता। मुझे मूल मसौदे में किसी तरह की छेड़छाड़ बिल्कुल पसंद नहीं है... मैं इस मसौदे पर अपनी सहमति नहीं दे सकता। आप लोग जो चाहे करें।’’ इस तरह सरदार पटेल के विरोध के बावजूद यह मसौदा अनुच्छेद 370 के रूप में संविधान में घुसा दिया गया और वह भी बिना संविधान सभा की अनुमति के।

जब पटेल के तमाम साथियों ने पूछा कि ऐसा क्यों किया गया तो आदत के मुताबिक उनका संक्षिप्त जवाब था- जवाहर रोएगा। किसे पता था कि नेहरू तो रोएंगे ही, उनके बाद की पीढ़ी भी कश्मीर को रोएगी। अच्छा होगा सोज साहब जैसे लोग इतिहास की घटनाओं पर लिखते समय ऐतिहासिक दस्तावेजों पर भी एक नजर डाल लिया करें। उन्हें यह भी समझना होगा कि अनुच्छेद 370 का समावेश संविधान में अस्थाई तौर पर किया गया था। विडंबना यह है कि इसे हटाने के बजाय और व्यापक बनाने की बात की जाती है। शायद इसी कारण हम इस पर बात नहीं करते कि आखिरकार यह अनुच्छेद संविधान में आया कैसे?

[ लेखक इतिहासकार एवं स्तंभकार हैैं ]