अरविंद चतुर्वेदी। World Water Day 2021 बचत हमारी थाती रही है। पूर्वजों के संस्कारों से यह संस्कृति बचपन में ही मिसरी की तरह हम सबमें घुल जाती है। दुनिया भर के देशों के सकल राष्ट्रीय बचत के आंकड़ों के बनिस्पत भारतीयों का फीसद इस मामले में बेहतर होना इसकी तस्दीक करता है। बचपन में ही हमें गुल्लक दिया जाता था जिसमें हम अपनी पॉकेट मनी या बुआ, फूफा, मामा, मामी, मौसा, मौसी आदि के दिए रुपयों को जमा कर देते थे। फिर जरूरत पड़ने पर उन जमा पैसों से अपनी उम्र की हैसियत से कोई बड़ा काम कर लेते थे।

अम्मा चावल पकाने के लिए जब उसे डेहरी (अनाज रखने का परंपरागत पात्र) से थाली में निकालती थीं, तो परिवार के रोज की खुराक का चावल निकालने के बाद एक मुट्ठी चावल फिर थाली से निकालकर उस पात्र में डाल देती थीं। खेतों में से जब फसल कटकर सारा अनाज घर में आता था, तो साल भर के खाने और बेचने के लिए अलग निकालकर आपातकाल का कोटा बखार (परंपरागत भंडारण स्थल) में रख दिया जाता था। दरअसल लोगों को यह समझ थी कि आने वाले दिनों में पता नहीं सूखा, बाढ़ या क्या प्रकोप आ जाए। ये उन दिनों में अपने अस्तित्व को कायम रखने की सहज सोच थी। पता नहीं ये सोच आज कहां सरक गई? पानी जैसे अनमोल प्राकृतिक संसाधन की बर्बादी और उससे उपजा संकट उस सोच से तो कतई मेल नहीं खाता दिख रहा है।

जल संकट की तस्वीर निरंतर भयावह होती जा रही है। आरंभ में तो किसी देश के महज कुछ जिले ही डार्क जोन में होते हैं, लेकिन धीरे धीरे इनकी संख्या में तेजी से इजाफा हो जाता है। हर स्नोत में मिलने वाले पानी में प्रदूषण का विस्तार थम नहीं रहा है। आखिर हम कब चेतेंगे? भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश की जल जरूरत एक तो बड़ी है, ऊपर से तेज विकास इस जरूरत में उत्प्रेरक का काम करती है। इस प्रकार बचत की खत्म होती सोच जल संकट को आग में घी की तरह भयावह कर रही है।

पानी का नहीं कोई विकल्प : पानी ऐसा तरल है जिसका कोई विकल्प नहीं। अगर गला सूखा हो तो कोई भी द्रव इसका विकल्प नहीं बन सकता। फौरी राहत तो जरूर मिल जाएगी, लेकिन गले को तर करने के लिए आपको पानी ही पीना पड़ेगा। तमाम तकनीकी उन्नयन के बावजूद आज तक हम जल का कोई विकल्प नहीं पेश कर सके हैं। फिर किस चीज पर इतना गुमान कर रहे हैं कि खत्म होने दो, कोई दिक्कत नहीं। दरअसल हम खुद को धोखे में रख रहे हैं। हम जानते हैं कि अगर हमारा चाल-चलन ऐसा ही रहा तो हमारी पीढ़ियों के सामने गंभीर संकट उत्पन्न हो सकता है। लेकिन दिल है कि मानता नहीं। जब देखते हैं कि हमारा पड़ोसी खूब पानी की बर्बादी कर रहा है तो एक नई सोच घर कर जाती है कि सिर्फ एक मेरे कम खर्चने से पानी थोड़े ही बचेगा। भले ही सौ फीट नीचे बोरवेल करवाना पड़े, लेकिन जब मोटर की बटन दबाते हैं और पानी की धार फूट पड़ती है तो जल किल्लत की सारी सोच काफूर हो जाती है। यह तब है जब हमने पढ़ रखा है कि दुख में सुमिरन सब करै, सुख में करे न कोय। पानी की धार फूटने के उस सुख में जल संकट भला किसे याद रहेगा।

दरअसल हमने बचपन में पढ़ी कौवे वाली कहानी पर तो पूरा अमल किया। पानी तलहटी में कितनी ही गहराई में चला जाए, लेकिन उसे खींचने का जुगाड़ करते रहे, परंतु पानी नीचे क्यों गया, इस बात की कभी फिक्र नहीं की। अगर फिक्र की होती तो गहराई से पानी खींचने की इतनी मशक्कत नहीं करनी होगी। जिंदगी भर हम कौवा ही बने रहे और पानी को ऊपर उठाने के लिए कंकड़ डालते रहे। हमसे तो बहुत अच्छे हमारे पूर्वज थे जिन्होंने भले ही आनुपातिक रूप से इतने भयावह रूप में जल संकट का सामना न किया हो, लेकिन उनकी सोच जल बचाने को लेकर संजीदा दिखती थी। जब तेज बारिश होती थी, तो दादी छत के पनारे से गिर रही पानी की तेज धार के नीचे बड़ा सा कड़ाह रख देती थीं। यह बात और है कि ऐसा करने के पीछे उनकी मंशा पानी की तेज धार से होने वाले गड्ढे के निर्माण को रोकने की होती थी। लेकिन व्यावहारिक रूप में कड़ाह के उस पानी का भी अन्य घरेलू जरूरतों में इस्तेमाल किया जाता था। चूंकि उस समय पानी की उतनी किल्लत नहीं थी तो उनकी प्राथमिकता उसे बचाने से ज्यादा गड्ढे के निर्माण को रोकने की ज्यादा थी। आज हमारी प्राथमिकता उलट गई है, लेकिन पानी सहेजने को लेकर कहां शिद्दत दिखा पा रहे हैं।

आज पूरा देश भूजल पर आश्रित हो चुका है। हमारी लगभग 85 फीसद जरूरत इसी स्नोत से पूरी हो रही है। पानी के इस अथाह भंडार को रिचार्ज करने के सभी स्नोत खत्म होते जा रहे हैं। तालाबों का अस्तित्व खतरें में है। पहले गांवों में कुआं शान का प्रतीक था। हर घर के सामने एक कुआं जरूर होता था। उसकी जगत (किनारे की दीवार) पर बनवाने वाले का नाम लिखा होता था। लोग यह बताते समय गर्वान्वित महसूस करते थे। आज सभी घरों के सामने मौजूद कुएं समतल हो चुके हैं। ये कुएं भूजल के स्तर को ऊपर उठाने के बड़े स्नोत हुआ करते थे। अगर हम प्रत्येक परिवार के पास एक कुएं का मानक मानें तो आज देश में इनकी संख्या 22 करोड़ से अधिक होनी चाहिए थी। सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में 2.7 करोड़ कुएं और बोरवेल मौजूद हैं। इसमें 50 फीसद संख्या बोरवेल की है। सिर्फ सिंचाई के लिए बोरवेल का वर्ष 1960-61 में एक फीसद इस्तेमाल किया जाता था, जबकि 2006-07 में इसकी हिस्सेदारी बढ़कर 60 फीसद हो गई। कुल मिलाकर सोच बदलने का सिर्फ समय नहीं आ चुका है, बल्कि पानी की बचत, संरक्षण और संवर्धन को लेकर सबको शिद्दत से जुटना होगा। आखिर गहराई से पानी खींचने के लिए कंकड़ डालने की कोई तो सीमा होगी।