विकास शर्मा। World Disability Day 2019 अनेक ‘दिव्यांग’ व्यक्तियों में अद्भुत क्षमताएं मौजूद होती हैं। समाज में हम अपने आसपास नजर डालें तो ऐसे कई उदाहरण मिल सकते हैं। समाज के अन्य वर्गों की तुलना में सरकार और राजनीति से कहीं अधिक अपेक्षाकृत बहुसंख्यक प्रत्यक्ष पीड़ित दिव्यांग वर्ग सामाजिक न्याय और राजनीतिक भागीदारी की बाट जोह रहे हैं? आजादी के बाद देश में संविधान सभा द्वारा भारतीय कानून को अधिसूचित करने के बाद सरकार ने तो अपना कार्य करना प्रारंभ कर दिया, पर देश में बड़ी संख्या में ‘नि:शक्त जन’ (विकलांग) संसदीय दृष्टि से वंचित रहा और वह स्थिति कमोबेश आज भी बनी हुई है।

सम्मानजनक शब्द ‘दिव्यांग’ 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब उन्हें एक नए सम्मानजनक शब्द ‘दिव्यांग’ के संबोधन से अलंकृत कर सकते हैं तो उन्हें कानूनी अधिकारों से भी अभिसिंचित कर उनके प्रति सकारात्मक संदेश देते हुए राजनीतिक भागीदारी क्यों नही दे सकते? जब यह सरकार दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम-2016 को सदन से पारित करा सकती है तो संयुक्त राष्ट्र के एक मसौदे के अनुसार दिव्यांगजनों को राजनीतिक भागीदारी के अंतर्गत सभी सदनों में अन्य आरक्षण प्राप्त करने वाले वर्गों की भांति ‘राजनीतिक भागीदारी’ क्यों नहीं तय करती?

दिव्यांगों की विभिन्न मांगें 

यदि अतीत की बात करें तो जब दुनिया के तत्कालीन दिव्यांगों के विभिन्न कानूनों के बनिस्पत भारत में उनके लिए कोई भी कानून नहीं था, तो एक लंबे अंतराल के पश्चात दिव्यांगों की विभिन्न मांगों, आंदोलनों के उपरांत 1980 से 1990 के बीच देश के विभिन्न हिस्सों में हुए आंदोलनों के साथसाथ देश की राजधानी दिल्ली की सड़कें तक आंदोलनों के चलते रक्त रंजित हो गईं, तब कहीं जाकर वर्ष 1995 में पहली बार भारतीय संसद ने नि:शक्त व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण एवं पूर्ण भागीदारी) अधिनियम-1995 (पीडब्ल्यूडी एक्ट -1995) को पारित कर सात फरवरी 1996 को अधिसूचित किया।

संक्षेप में कहें तो संसदीय न्याय से एक लंबे समय तक वंचित रहने के बाद देश के नि:शक्तजनों को तब एक पहला कानून (अधिकार) मिला जिसमें काफी कुछ समायोजन का प्रयास किया गया, किंतु इसमें भी बहुत कुछ सम्मलित होने से वंचित रह गया। इसे शाब्दिक व्याख्यान का अभाव कहें या किसी भी नवसृजित कानून के क्रियान्वयन के उपरांत ही उसके वास्तविक प्रभावों का ज्ञान होना कहा जाए?

देश के दिव्यांगों को सामाजिक न्याय प्रदान कराने की मांग

समय की मांग एवं दिव्यांगों की विभिन्न श्रेणियों की आवश्यकताओं के अनुसार इस कानून को दिव्यांगों के अंतरराष्ट्रीय कानूनों के समतुल्य बनाने में पीडब्ल्यूडी एक्ट- 1995 में संशोधन करने, सर्वोच्च न्यायालय एवं राज्यों के उच्च न्यायालयों के आदेशों, सरकार की विभिन्न अधिसूचनाओं व आदेशों को लागू करने की मांग उठने लगी। इसी क्रम में वर्ष 2007 में भारत सरकार एवं संयुक्त राष्ट्र के बीच हुई देश के दिव्यांगों को सामाजिक न्याय एवं राजनीतिक भागीदारी के साथ-साथ उच्च स्तरीय अधिकार प्रदान कराने को लेकर एक नया सशक्त कानून बनाने की मांग देश भर से उठने लगी।

किंतु भारत सरकार की दिव्यांगों के प्रति उदासीनता के चलते समय सीमा निकल जाने से ऐसा नहीं हो सका, किंतु विभिन्न संगठनों द्वारा विभिन्न आंदोलनों के उपरांत भारत सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा वर्ष 2011 में एक नवसृजित कानून ‘विकलांग अधिकार विधेयक’ का प्रारूप तैयार किया गया जिस पर देश भर के दिव्यांगजन, प्रतिनिधियों, संस्थानों से सुझाव तो मांगे गए, परंतु मंत्रालय द्वारा उसे अपने अनुसार ही तैयार किया गया, और उसे भी संसदीय उपेक्षा के चलते संसद में रखने से टाला जाता रहा।

विधेयक में दिव्यांगों के आरक्षण की मांग

तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व ने वर्ष 2014 में इस विधेयक को अध्यादेश के माध्यम से इसकी विसंगतियों को सुधारते हुए लागू कराने का आश्वासन दिया, जो नहीं हो सका। आखिरकार किसी तरह इस बिल को राज्यसभा में लाया गया। विधेयक में दिव्यांगों के आरक्षण को तीन प्रतिशत से बढ़ा कर चार प्रतिशत करने, सामाजिक सुरक्षा को सशक्त बनाने, सरकारी एवं निजी क्षेत्र के दिव्यांग कर्मियों की मांगों पर गंभीरता से विचार करने आदि महत्वपूर्ण बिंदु शामिल थे। साथ ही पूर्ववर्ती मांगों के अनुसार सुझावों को संसदीय शोध, परीक्षण हेतु इसे सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय से संबंधित डॉ. रमेश बैस की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति के बाद मंत्रिमंडल समूह को सौंप दिया गया जो बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय में लंबित रहा।

‘दिव्यांगता की परिभाषा’ 

विभिन्न संबंधित व्यक्तियों और संगठनों ने अपने-अपने सुझावों, विचारों, सर्वोच्च न्यायालय आदि संवैधानिक संस्थाओं की टिप्पणियों से भी संसदीय स्थायी समिति को अवगत कराया गया, परंतु समिति की सात मई 2015 को सदन के पटल पर रखी गई रिपोर्ट (सिफारिशों) ने देश भर के दिव्यांगजनों, प्रतिनिधियों, संगठनों को आश्चर्यचकित कर दिया जिसमें दिव्यांगों के तमाम अनुरोधों, रोजगार की दशा सुधारने, राजनीतिक भागीदारी एवं विधि आदि के महत्वपूर्ण निर्णय लेने वाली संवैधानिक संस्थाओं में उनका सुनिश्चित प्रतिनिधित्व जैसी अनेक मांगें अभी भी विधेयक से वंचित हैं या कहें कि विधेयक को उलझाने के लिए ‘दिव्यांगता की परिभाषा’ को बदलने का प्रयास करते हुए 21 प्रकार की विभिन्न बीमारियों के मरीजों को अपंगता का दर्जा देने की सिफारिशें की गई जो इस समुदाय की तादाद को बहुत अधिक कर इनके लिए नाकाफी इंतजामों को बाधित करने के बराबर थीं।

बावजूद इसके इसे स्वीकार किया गया और भारतीय संसद ने इसे दिसंबर 2016 को इसे पारित किया तथा बाद में राष्ट्रपति ने इस कानून को जनवरी 2017 को अधिसूचित किया। परंतु ‘राजनीतिक भागीदारी यानी सामाजिक न्याय’ एवं ‘राष्ट्रीय दिव्यांग आयोग’ की मांग इस नए कानून से भी वंचित रही। शायद देश के करोड़ों दिव्यांग मतदाताओं को अपने परिजनों, मित्रों आदि के साथ मिलकर अपनी राजनीतिक शक्ति का आभास कराने के लिए अपनी वोट बैंक की ताकत को एकत्र कर नया ताना-बाना पेश करना पड़ेगा।

[सामाजिक कार्यकर्ता]