[ ब्रह्मा चेलानी ]: भारत के साथ पाकिस्तान की मौजूदा तनातनी बड़े नाजुक वक्त में हुई है। फिलहाल पाकिस्तान अपने तीन पड़ोसियों भारत, ईरान और अफगानिस्तान से उलझा हुआ है। तीनों देशों ने अपनी जमीन पर हुए हालिया आतंकी हमलों के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार बताया है। एक ही वक्त में बढ़ता क्षेत्रीय तनाव और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा अफगान तालिबान के साथ ‘शांति समझौते’ का प्रयास एक दूसरे का पूरक ही मालूम पड़ता है। पुलवामा हमले से ठीक पहले ईरान के एलीट रिवोल्यूशनरी गाड्र्स के दस्ते पर हुए हमले में 27 सुरक्षाकर्मियों की जान गई थी। ऐसे ही तालिबान के एक हमले में 32 अफगानी सुरक्षाकर्मियों की मौत हो गई।

पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की धुरी बना हुआ है। दुनियाभर में हुए प्रमुख आतंकी हमलों के तार कहीं न कहीं पाकिस्तान से ही जुड़े हुए हैं। वर्ष 2005 में लंदन बम धमाके, 2008 का मुंबई हमला या 2015 में कैलिफोर्निया में हुई हत्याएं इसकी मिसाल हैं। अमेरिका पर 9-11 के आतंकी हमले के प्रमुख सूत्रधार ओसामा बिन लादेन के अलावा अलकायदा के कई प्रमुख आतंकियों को भी पाकिस्तान में ही आश्रय मिला था। पाकिस्तानी आतंकवाद का सबसे बड़ा खामियाजा उसके पड़ोसी देशों को भुगतना पड़ता है। 1971 में पाकिस्तान से अलग होकर स्वतंत्र राष्ट्र बने बांग्लादेश ने भी अपने देश में अभी तक के सबसे जघन्य आतंकी हमले का दोषी पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी आइएसआइ को माना है।

औपनिवेशिक दौर की समाप्ति के बाद पहले इस्लामिक देश के रूप में स्थापित हुए पाकिस्तान का अतीत सत्तर वर्षों में खतरनाक ही रहा है। आगे भी उसका भविष्य अनिश्चित ही दिखता है। वहां कायम जिहादी संस्कृति ने अलगाववाद को बढ़ावा देने के साथ ही उसे गंभीर वित्तीय संकट में धकेल दिया है। इसके चलते पाकिस्तान चीन और सऊदी अरब जैसे अपने रहनुमाओं का मोहताज बनकर रह गया है। सेना और आतंकी समूहों की लंबे समय से चली आ रही साठगांठ ने पाकिस्तान की समस्याओं को कई गुना बढ़ा दिया है। पाकिस्तान में संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित 22 आतंकी समूह सक्रिय हैं। पाक सेना उन्हें अपनी सुविधा के मुताबिक इस्तेमाल करती है।

पाकिस्तान के जिहादी समूह मुख्य रूप से दो सैन्य तानाशाहों जनरल जिया उल हक और जनरल परवेज मुशर्रफ के शासन में पनपे। सैन्य-असैन्य प्रतिष्ठान के असहज संबंध पाकिस्तान की नाकामी एक बड़ी वजह हैं। पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आइएसआइ इतनी ताकतवर हैैं कि वे नागरिक सत्ता की निगरानी के दायरे में नहीं हैं। इससे वे मनमाने ढंग से दखल देती हैं। चुनी हुई सरकार होने के बावजूद निर्णायक शक्ति जनरलों के पास है। इससे उन्हें आतंकी समूहों से रिश्ते कायम रखने का अधिकार मिल जाता है।

मौजूदा क्षेत्रीय तनाव ने पाकिस्तानी सेना पर दबाव बढ़ा दिया है कि वह अपने आतंकी ढांचे को नष्ट करे। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने भी इसकी जरूरत बताई है। यूरोपीय संघ और अन्य शक्तियों द्वारा भी पाकिस्तान को यही हिदायत दी जा रही है। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी इस पर एकमत है कि पाकिस्तान को अपने आतंकी ढांचे को जड़ से समाप्त करना चाहिए। इसके बावजूद इसकी संभावना कम ही है कि पाकिस्तानी सेना अपने आतंकी पिट्ठुओं पर कोई कार्रवाई करेगी। भारत के खिलाफ अघोषित युद्ध में पाकिस्तानी सेना द्वारा आतंकियों का इस्तेमाल किफायती और उपयोगी विकल्प है। भारत के खिलाफ पाकिस्तानी सेना को चीन का तो ईरान के खिलाफ सऊदी अरब का संरक्षण मिला है जबकि अफगानिस्तान में उसे अपने ही बनाए तालिबान का साथ मिला हुआ है।

पुलवामा आतंकी हमले के साथ ही भारत का धैर्य जवाब दे गया और उसने पाकिस्तान में आतंकियों के ठिकानों पर हवाई हमले किए। दुनिया में पहली बार ऐसा हुआ कि किसी परमाणु शक्ति संपन्न देश ने परमाणु हथियार रखने वाले किसी देश के भीतर घुसकर ऐसी कार्रवाई को अंजाम दिया। परमाणु हथियारों की पाकिस्तानी जनरलों की धौंस को धता बताते हुए भारत ने पाकिस्तान के बहुत भीतर तक लड़ाकू विमान भेजकर अचूकता के साथ आतंकियों को निशाना बनाया। इससे पाकिस्तान की हुई फजीहत में चेहरा बचाने की कवायद के तहत फौजी हुक्मरानों ने अगले दिन ही भारत पर जवाबी हवाई हमले की कोशिश की जिसमें दोनों पक्षों के एक-एक लड़ाकू विमान भेंट चढ़ गए। यह सिलसिला तभी खत्म होगा जब पाकिस्तान जिहादी आतंकी समूहों को ध्वस्त करेगा। भारत का धैर्य अब चुकता जा रहा है और भविष्य में वह और बड़ी कार्रवाई कर सकता है। पाकिस्तान के इतने भीतर तक लड़ाकू विमान भेजकर भारत ने एक बड़ी लकीर खींच दी है। उसने संकेत दे दिया है कि अगर जरूरी हुआ तो तनाव बढ़ने पर भारत और बड़ा जवाब दे सकता है।

वास्तव में अफगानिस्तान से अमेरिका की विदाई के फैसले के केंद्र में भी पाकिस्तान ही है जो न केवल तालिबान, बल्कि हक्कानी नेटवर्क को भी पोषित करता आया है जिसने अमेरिकी सुरक्षा बलों और नागरिकों पर हमले किए हैैं। अमेरिका के एक शीर्ष सैन्य कमांडर ने 2017 में माना था, ‘ऐसी लड़ाई में जीतना बेहद मुश्किल है जब आपके दुश्मन को बाहरी मदद और सुरक्षित पनाह उपलब्ध हो।’ ट्रंप प्रशासन द्वारा तालिबान के साथ हो रहा समझौता पाकिस्तानी जनरलों के मनमाफिक कदम है। उनका हमेशा यही लक्ष्य रहा है कि काबुल में पाकिस्तानपरस्त सरकार रहे, लेकिन अमेरिका द्वारा तालिबान को सत्ता से उखाड़ फेंकने के बाद से उनके समीकरण बदल गए थे, लेकिन अब उन्हें फिर से अपने अरमान पूरे होने की उम्मीद बंधी है। अमेरिकी वार्ताकार फिलहाल तालिबान के साथ संभावित समझौते को आकार देने में जुटे हैं। अमेरिकी रियायतों ने पाकिस्तानी जनरलों और तालिबान का हौसला बढ़ाना शुरू कर दिया है।

यह कोई दुर्योग नहीं कि अमेरिका-तालिबान के बीच संभावित समझौता सार्वजनिक होने के तुरंत बाद ही भारतीय और ईरानी सुरक्षा बलों को निशाना बनाया गया। शायद पाकिस्तानी जनरलों ने यह आकलन किया हो कि अभी अमेरिका तालिबान के साथ करार को अंतिम रूप देने में लगा है तो उन्हें भारतीय सुरक्षा बलों पर हमला करने की कोई भारी कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी। भारतीय उपमहाद्वीप में कायम यह संकट तब तक सुलझने के आसार नहीं जब तक पाकिस्तानी सेना अपने पोषित आतंकवाद पर विराम नहीं लगाती जिससे उसके पड़ोसी देश दशकों से पीड़ित हैं। सैन्य-असैन्य संबंधों को सहज बनाए बिना वहां आतंक के उद्भव को नहीं रोका जा सकता। नागरिक नियंत्रण के बिना सेना बेलगाम होकर आतंक फैलाती रहेगी।

हालांकि पाकिस्तान को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। वह अमेरिकी मदद से पहले ही हाथ धो चुका है। फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स ने भी उसे ग्रे लिस्ट में डाल दिया है। इससे चीन और सऊदी अरब पर पाकिस्तान की निर्भरता और बढ़ गई है। पुलवामा हमले पर भारत की जवाबी कार्रवाई इस सामरिक उद्देश्य के साथ की गई कि अब पाकिस्तानी जनरल आतंक पर निर्णायक प्रहार करें। भारत इस लक्ष्य से भटकना बर्दाश्त नहीं कर सकता। अगर भारत के कदम लड़खड़ाएंगे तो पाकिस्तानी जनरलों का हौसला बढ़ेगा ही।

( लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं )