बजट सत्र के दौरान गरीबी मुक्त देश के भविष्य को लेकर कई आशाएं जगाई गईं, लेकिन आश्चर्य कि सत्तापक्ष या विपक्ष ने उस संदर्भ में गरीबी की जड़ यानी बेरोजगारी से निपटने की बाबत कोई खास चिंता या व्यावहारिक सुझाव सामने नहीं रखे। जबकि बिना भरपूर रोजगार पैदा किए किसी भी देश का भविष्य संवारने का हर प्रयास चलनी में पानी उड़ेलना ही है। लेबर ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार मार्च 2016 तक तमाम विवादों, कटौतियों के बाद भी ‘मनरेगा’ में काम पाने को पिछले साल की तुलना में 15 प्रतिशत अधिक बेरोजगारों ने रोजगार के लिए आवेदन किया। 1.6 करोड़ बेरोजगारों को वह अनियतकालीन काम भी नहीं मिल पाया। यह आंकड़े बदहाल शहरी उद्योगों और तीन साल के सूखे के मारे ग्रामीण इलाकों की दशा का बेबाक आईना हैं। ठोस सरकारी आंकड़ों के अनुसार आशा के विपरीत 2014 से अब तक सिर्फ 4.3 लाख नए रोजगार ही पैदा हो पाए और इससे श्रमिकों की सबसे निचली पायदान पर खड़ी महिला श्रमिक सबसे अधिक दुष्प्रभावित हुई हैं।

गत आठ मार्च अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर हारवर्ड विवि की एक चर्चित शोध संस्था ई-पॉड (एविडेंस फॉर पॉलिसी रिसर्च) ने भारतीय महिलाओं की बढ़ती बेरोजगारी पर ‘सिकुड़ती शक्ति’ शीर्षक से एक बहुत महत्वपूर्ण शोध रपट जारी की। यह रपट सरकार में उन सभी लोगों के लिए बहुत गौरतलब होनी चाहिए जो महिलाओं के स्थायी सशक्तीकरण के सच्चे हिमायती हैं। रपट के अनुसार पिछले दशक में संगठित तथा असंगठित, दोनों ही तरह के क्षेत्रों में महिला कामगारों की तादाद में चिंताजनक गिरावट आई है। बढ़ती अमीरी नहीं, सिकुड़ते रोजगार क्षेत्र की वजह से 2.5 करोड़ रोजगार अभ्यर्थी बहनें अचानक कई कार्य क्षेत्रों से बेदखल हुई हैं।

ऐसे में यह एक विडंबना है कि जहां बेटी पढ़ाओ सरीखी योजनाओं से फायदा लेकर हमारी बच्चियां अभूतपूर्व तादाद में स्कूल जा रही हैं वहीं उनके सपनों को पंख देने वाले रोजगार के अवसर लगातार घट रहे हैं और आज हमारा देश महिलाओं को रोजगार उपलब्ध कराने में विकासशील देशों के गुट ‘ब्रिक्स’ में सबसे निचली पायदान पर और जी-20 देशों की तालिका में नीचे से दूसरी पायदान पर खड़ा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार जब महिलाएं घर से बाहर निकल कर काम करने लगती हैं तो उसके कई सुफल होते हैं। उनकी घरेलू आय में तो बढ़ोतरी होती ही है, देश की उत्पादकता दर भी 48 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। रपट के अनुसार अगर आज भारत में सारी इच्छुक महिलाओं को रोजगार मिल जाए तो भारत की कुल राष्ट्रीय आय में आराम से 27 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी संभव है। कामकाजी महिलाओं के पारिवारिक तथा स्वास्थ्यगत पैमानों में भी काम न करने वाली औरतों की तुलना में शोध ने उल्लेखनीय बेहतरी देखी।

अधिकतर कामकाजी महिलाएं असमय कम उम्र में मां नहीं बनतीं, उनके बच्चों के बीच का अंतराल भी सही होता है और जो विवाहिता लड़कियां काम पर जाती हैं उनकी बहनों की शादी भी असमय नहीं की जाती। रपट कुल मिलाकर पांच निष्कर्ष सामने रखती है। 1. आज 50 प्रतिशत महिलाएं, जिनमें लगभग दो तिहाई गृहिणियां हैं, बाहर काम पकड़ने की इच्छुक हैं। अगर उनको अपने घर के करीब ही रोजगार का भरोसा हो तब तो इस तादाद में अतिरिक्त 21 प्रतिशत की बढ़ती हो जाती है। 2. महिलाओं, खासकर छोटे बच्चों वाली युवा महिलाओं के लिए घर के पास रोजगार उपलब्ध होने से उनको घर तथा बाहर तालमेल बिठाना आसान बन जाता है। हालांकि ‘मनरेगा’ उनको 365 की बजाय साल में 100-150 दिन का ही रोजगार मुहैया कराती है, इस योजना में उनकी भागीदारी पुरुषों (48 प्रतिशत) से बड़ी (52 प्रतिशत) है। 3. राज तथा समाज, दोनों के समवेत प्रयास महिलाओं की बहुमुखी तरक्की का ग्राफ बनाते हैं। अगर सरकार महिलाओं को सही तरह से सही किस्म के रोजगार, प्रशिक्षण तथा संरक्षण दे तो समाज उनका मोल समझ कर महिलाओं पर लगाई गई अपनी कई सामाजिक वर्जनाएं खुद ही धीरे-धीरे शिथिल कर देता है। 4. भारत में आज कृषि क्षेत्र और ग्रामीण जोत के आकार, दोनों सिकुड़ रहे हैं, जिससे खेती बाड़ी या पशुपालन के पारंपरिक कामों से महिलाएं बड़ी तादाद में बेदखल हुई हैं। उनके लिए नए खुल रहे रोजगार के क्षेत्र से जुड़े हुनर सीखने का महत्व बहुत अधिक बनता है। इसलिए नवघोषित स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया तथा जेंडर आधारित कोटा जैसे कदमों का पूरा फायदा महिलाएं तभी पा सकेंगी अगर वे इसकी तहत गांव या शहर हर जगह महत्व रखने वाले और निर्यातमुखी खाद्य प्रसंस्करण, चमड़ा तथा वस्त्र उद्योग में समुचित भागीदारी के लिए गहन प्रशिक्षण पा सकें। महिला स्वतंत्रता के खिलाफ कट्टरपंथी उभार के बावजूद अपनी महिलाओं को तेजी से स्वावलंबी और हुनरमंद कामगार बनवा कर हमारा पड़ोसी बांग्लादेश आज महिला रोजगार के क्षेत्र में हमसे बेहतर प्रदर्शन कर रहा है। 5. कई बार किसी अविकसित इलाके से समृद्ध परदेसी इलाके को जाना किसी समूह के लिए बेहतर रोजगार और समृद्धि के मार्ग खोल देता है। 19वीं सदी में राजस्थान से मारवाड़ियों का नवसमृद्ध महानगर कोलकाता की तरफ या 19वीं व 20वीं सदी में गुजरातियों का अफ्रीका से अमेरिका तक आव्रजन इसका सार्थक उदाहरण हैं। इस बात को महिला शक्ति से जोड़कर परखने का समय अब आ गया है। हमारी केरल की नर्से और पूर्वी राज्यों की सेवा क्षेत्र में काम करती लाखों महिलाएं आज आव्रजन से स्वावलंबी बनने के स्वस्थ उदाहरण हैं।

सिकुड़ती शक्ति रपट के अनुसार हमारे रोजगार अभ्यर्थियों में से 68 प्रतिशत युवक और 62 प्रतिशत युवतियां इसके पक्ष में हैं कि अगर अच्छा रोजगार पाने और चिर दरिद्रता से उबरने के लिए घर से दूर जाना पड़े तो अवश्य जाना चाहिए।

(लेखिका मृणाल पाण्डे जानी-मानी स्तंभकार हैं और प्रसार भारती की प्रमुख रह चुकी हैं)