नई दिल्ली [ मृणाल पाण्डे ]। भारत सरकार द्वारा 2018-19 के बजट में मदवार आवंटित धनराशि और ठोस तथ्यों के आधार पर महिला सशक्तीकरण की ताजा किस्म कुल मिलाकर शिगूफा ही अधिक नजर आती है। चौंके नहीं। बजट से पहले इस बरस के सालाना आर्थिक सर्वेक्षण के मसौदे पर महिलाओं के हक में गुलाबी जिल्द चढ़वा कर और तमाम सरकारी विज्ञापनों में बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ जैसे पाठ से माहौल बनाया गया था। इससे महिलाओं समेत सभी को लगने लगा कि 2019 के चुनाव आने तक सबसे बड़े वोट बैंक, माताओं-बहनों का दिल जीतने में सरकार कोई कसर नहीं छोड़ेगी और महिला सशक्तीकरण का परचम फहराता बजट 2018-19 चुनाव को 1789 के फ्रांस की या 1917 के रूस सरीखी क्रांतिकारी घटना बना देगा। इस धारणा को और पुष्ट करने को महिला बाल कल्याण विकास मंत्रालय की ‘मैटर्निटी बेनेफिट’ योजना (जो पुरानी पीएम मातृ वंदना योजना का नया नाम है) की घोषणा कर मंत्रालयीन बजट भी कुछ बढ़ाया गया। उस पर सारे देश में समर्थकों की प्राय: प्रबंधित और प्रायोजित तालियों ने जननी और बालिका सुरक्षा तथा विकास को लेकर सरकार के पक्ष में और भी प्रशंसात्मक वातावरण रचने की कोशिश की, लेकिन इसके बाद भी लंबे समय से महिलाओं के बीच काम और शोध करते रहे जानकार इससे खासे उत्साहित नजर नहीं आए।

बुनियादी सुधार हुए बिना महिला सशक्तीकरण पर खरा उतरना असंभव है

महिला कार्यक्रमों से जमीनी कार्यान्वयन के स्तर पर जुडे़ रहने की वजह से उन्हें पता है कि नेक इरादे हवा से बदलाव नहीं ला सकते। पर्याप्त धनराशि और महिला बाल कल्याण कार्यक्रमों के मौजूदा सरकारी ढांचे में बुनियादी सुधार हुए बिना महिला सशक्तीकरण के किसी भी नए या पुराने प्रावधान का उम्मीदों पर खरा उतरना असंभव है। उनकी शंका खुद सरकारी कागजात से उपलब्ध तथ्यों पर टिकी है।

महिलाओं के मकानों पर मिल्कियत बढ़ने के बजाय घट गई

पिछले यानी 2017-18 के बजट में जननी सुरक्षा योजना के तहत पहली जचगी पर गरीब माताओं के लिए 400 करोड़ रुपये की राशि खासतौर से आवंटित करने की घोषणा की गई थी, परंतु शिथिल ढांचे और राज्य एवं केंद्र सरकारों के बीच तालमेल की कमी के कारण उसका सिर्फ पांचवां हिस्सा (75 करोड़) ही अब तक खर्च किया जा सका है। इसलिए नहीं कि ऐसी गरीब महिलाओं की तादाद साल भर में नाटकीय तौर से कम हो गई, बल्कि इसलिए कि पैसे की कमी से तंग अधिकतर राज्यों में जमीन पर उसे साकार करने वाला संस्थागत ढांचा और कार्यबल नाकाफी है। इसी वजह से अन्य योजना, गरीबों के लिए आवास योजना के तहत गरीब महिलानीत (और इकलौती बेटी वाले) परिवारों के कच्चे मकानों को पक्का बनाने का विशेष प्रावधान भी ज्ञात तथ्यों के आईने में विफल दिखता है। पिछली जनगणना के अनुसार देश में गरीबी के पैमाने पर सबसे नीचे वे पुरुषविहीन महिलानीत परिवार आते हैं जिनकी तादाद एक करोड़ 75 लाख के करीब है। इन परिवारों में से 62 प्रतिशत परिवार कच्चे झोंपड़े में रहते पाए गए। इनमें से एक बेटी वाली गरीब महिलाओं को सरकारी योजना के तहत एक पक्की छत देने को सरकार की तरफ से 1.2 लाख रुपये की राशि दिया जाना तय हुआ, पर खुद ग्रामीण विकास मंत्रालय के डाटा को देखें तो इस योजना के लागू होने के बाद पुरुषों की मिल्कियत वाले पक्के मकानों के अनुपात में महिलाओं के मकानों पर मिल्कियत बढ़ने के बजाय घट गई है। इसकी वजह यह नहीं हो सकती कि सशक्तीकरण की वजह से गरीब महिलाओं को पक्के मकानों की जरूरत नहीं रही। दरअसल इस महिला प्रधान कोटि के लिए 2017-18 तक सिर्फ 50 लाख मकान ही बनाए जा सके हैं और कार्यान्वयन की इस सुस्त प्रगति की जवाबदेही केंद्र और राज्यों, दोनों की ही है।

 महिला सशक्तीकरण की हर योजना का जमीनी कार्यान्वयन राज्य स्तर पर किया जाता है

केंद्र सरकार और उसके योजनाकारों की सोच चाहे जितनी भी उदात्त और महिला समर्थक रही हो, अकाट्य प्रशासनिक सचाई यह है कि महिला सशक्तीकरण की हर योजना का जमीनी कार्यान्वयन राज्य स्तर पर ही किया जाना है। इस बिंदु पर राज्य सरकारों के अपने-अपने फौरी राजनीतिक स्वार्थों और राज्य विशेष की सरकारी मशीनरी की महिला मुद्दों के प्रति संवेदनशीलता के स्तर से भारी फर्क पड़ सकता है। हरियाणा एक संपन्न राज्य है, पर केंद्र की अग्रगामी सोच का ऊपर से समर्थन करते जाने के बावजूद वहां घूंघट को सरकारी पोस्टरों में राज्य की ‘आन बान शान’ बताया जा रहा है। घटती बेटियों के चिंताजनक अनुपात और दुष्कर्म सरीखे अपराधों की बढ़ती तादाद के बीच जब मुख्यमंत्री एक महिला से संगीन छेड़छाड़ के आरोपी के पिता के साथ मोटरसाइकिल रैली की अगुआई करते हुए दिखें तो यह जनता को कैसा संदेश देता है?

आंगनवाड़ी कार्यक्रमों पर केंद्रीय राशि में कटौती

ग्रासरूट स्तर पर महिला बाल कल्याण कार्यक्रमों में राज्य सरकार की मशीनरी का सबसे महत्वपूर्ण भाग हैं आंगनवाड़ी सेवाएं। इनके तहत अंतिम सीढ़ी पर खडे़ दूरदराज के भागों को दर्जनों समाज कल्याण और विकास कार्यक्रमों के तहत सरकारी मदद मिलती है, पर अधिकांश राज्य इस दिशा में शिथिल साबित होते हैं। 14वें वित्त आयोग की रपट लागू होने के बाद से सामाजिक क्षेत्र के विकास कार्यक्रमों पर केंद्र से उपलब्ध खर्च होने वाली राशि में कटौती की गई है। आंध्र, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड और तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों ने इन कटौतियों का असर अपने आंगनवाड़ी कार्यक्रमों पर नहीं पड़ने दिया है। वहीं बिहार, नगालैंड, जम्मू-कश्मीर, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और ओडिशा जैसे कुछ राज्यों के बजट में जेंडर बजट का हाशिया या तो काट ही दिया गया है, या उस राशि की धारा को फौरी तरह से किसी और विभाग की तरफ मोड़ दिया गया है जहां त्वरित नतीजे दिखाने हैं। इससे महिलाओं, बालिकाओं के विकास कार्यक्रम उपेक्षित या ठप हैं।

महिलाओं का सशक्तीकरण एक नारा बनकर रह गया है

केंद्र से राज्यों की राजधानियों, वहां से जनपद, फिर वहां से ब्लॉक होते हुए गांवों तक पहुंचते हुए हम पाते हैं कि बढ़ती सांप्रदायिकता, पलायन, खेती में कम होती महिला भागीदारी जैसे कारणों से महिला सुरक्षा, घरेलू हिंसा, सांपत्तिक अधिकारों या सामाजिक गैरबराबरी भी बढ़ रही है। वहीं नेता से आम जनता तक की संवेदनशीलता शाब्दिक स्तर पर भी और भौतिक स्तर पर भी लगातार कम होती जा रही है। महिलाओं की जमात का संकट समूचे राजसमाज का संकट होता है। और महिलाओं के सशक्तीकरण का सवाल एक नारा ही नहीं। यह लोकतंत्र की बुनियाद से भी जुड़ा हुआ है। इसे महज महिला वोट बैंक को खींचने वाले एक राजनीतिक नारे के बतौर स्वीकार करना, लेकिन निजी और सामाजिक धरातल पर उसे ठुकराते जाना जनसोच को भी पिछड़ा बनाता है और सरकारी मशीनरी को लोकतंत्र के लाभ महिलाओं तक ले जाने में समर्थ पुल बनने से रोकता है। आम धारणा बन गई है कि आज की राजनीति कर्तव्यवश किसी का भला नहीं करती, सिर्फ अपने फौरी स्वार्थ के ही लिए ही इस या उस वर्ग की शाब्दिक ठकुरसुहाती करती रहती है। यह कैसी विडंबना है कि आधी आबादी के लोकतंत्र में सशक्तीकरण का हर राजकीय प्रयास लोकतांत्रिक प्रगति नहीं बल्कि ओछी स्वार्थपरकता का पर्याय बनता दिख रहा है।

[ लेखिका प्रसार भारती की पूर्व प्रमुख और वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]