[ डॉ. मोनिका शर्मा ]: महिलाएं समाज और परिवार की धुरी हैं, लेकिन उनके साथ दोयम दर्जे के व्यवहार की समस्या अभी भी बरकरार है। समानता का इंसानी हक आज भी आधी आबादी को सही तरह हासिल नहीं हुआ है। भारत ही नहीं दुनियाभर में स्त्रियां अपनी पहचान बनाने को जूझ रही हैं। उनके इस संघर्ष में सबसे बड़ी बाधा लैंगिंक असमानता है। पुरुषों और महिलाओं के बीच मौजूद असमानता की खाई आधी आबादी के लिए दंश बनी हुई है। गैर बराबरी की सोच और व्यवहार से आधी आबादी को घर से लेकर दफ्तर तक हर जगह दो-चार होना पड़ता है।

एक अध्ययन के अनुसार भारत ही नहीं दुनियाभर में बढ़ती आर्थिक असमानता से सबसे ज्यादा लड़कियां और महिलाएं प्रभावित हो रही हैं। शायद यही वजह रही कि इस साल महिला दिवस के लिए यूएन की थीम भी इसी विषय को संबोधित है- ‘थिंक इक्वल, बिल्ड स्मार्ट, इनोवेट फॉर चेंज।’ इस थीम का उद्देश्य ऐसे प्रयासों को बल देना है जिनसे लैंगिक समानता आए, महिलाएं सशक्त और आत्मनिर्भर बनें। इनोवेशन और टेक्नोलॉजी से जुड़े क्षेत्रों में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ाने का विचार लिए इस थीम का लक्ष्य कामकाजी आबादी में महिलाओं की हिस्सेदारी में इजाफा करना है ताकि यूएन द्वारा 2030 तक तय किया गया लक्ष्य प्लेनेट 50-50 हासिल किया जा सके।

प्लेनेट 50-50 का मकसद है एक ऐसी दुनिया बनाना जिसमें पुरुष और महिलाएं बराबर का हक रखें। इसका एक अन्य उद्देश्य लैंगिंक समानता स्थापित करना भी है। हालांकि इस बदलाव के लिए हर स्तर पर प्रयास किए जाने आवश्यक हैं, लेकिन लैंगिक समानता की बुनियाद बनाने के लिए समाज और परिवार की भूमिका सबसे अहम है।

तमाम तरक्की के बावजूद परंपरागत रूप से हमारे समाज में महिलाओं को अभी भी कमजोर वर्ग के रूप में देखा जाता है और उनकी भागीदारी को कम करके आंका जाता है। नतीजतन घर और दफ्तर, दोनों जगहों पर महिलाएं उपेक्षा, शोषण, अपमान और भेदभाव को झेलती हैं। महिलाओं के प्रति भेदभाव का यह व्यवहार दुनिया के हर हिस्से में मौजूद है-कहीं कम तो कहीं ज्यादा। विश्व आर्थिक मंच की लैंगिक अंतराल रिपोर्ट-2018 में 144 देशों की सूची में भारत 108वें पायदान पर पाया गया। यह मंच स्त्री-पुरुष असमानता को चार मुख्य मानकों आर्थिक अवसर, राजनीतिक सशक्तीकरण, शैक्षणिक उपलब्धियां और स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता के आधार पर तय करता है। यही वे मानक हैं जो किसी भी देश की महिलाओं का स्वतंत्र अस्तित्व गढ़ने और उसे कायम रखने का आधार बनते हैैं और उन्हें स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर बनाते हैं।

इस रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक स्तर पर लैंगिक अंतराल को 68 फीसदी तक कम किया गया है। इस रिपोर्ट में भारत में कन्या भ्रूण हत्या, महिला साक्षरता और मातृ मृत्यु दर जैसे कारणों को महिलाओं के सशक्तीकरण और समानता से जुड़े चिंतनीय पहलुओं की फेहरिस्त में रखा गया है। विश्व आर्थिक मंच के इस अध्ययन में चेतावनी देते हुए कहा गया है कि जिस हिसाब से असमानता दूर करने के लिए प्रयास हो रहे हैं उन्हें देखते हुए पूरी दुनिया में सभी क्षेत्रों में महिला-पुरुष असमानता को अगले 108 साल तक दूर नहीं किया जा सकता। चूंकि कार्यस्थलों पर गैर-बराबरी की खाई बहुत ज्यादा गहरी है इसलिए उसे पाटने में 200 वर्ष तक लग सकते हैं। यह परिदृश्य वाकई चिंतनीय हैं। एक कटु सच यह भी है कि महिलाओं के प्रति भेदभाव और शोषण के बुनियादी कारण हमारे सामाजिक ढांचे में ही मौजूद हैं। इनका निवारण सिर्फ आर्थिक आत्मनिर्भरता या प्रशासनिक कार्ययोजनाओं के माध्यम से नहीं खोजा जा सकता।

भारत में जिस तरह का पारंपरिक सामाजिक ढांचा है उसमें केवल सरकारी योजनाएं और कानून महिलाओं को सशक्त नहीं बना सकते। असमानता के दंश से मुक्ति पाने के लिए समाज की सोच में भी बदलाव की जरूरत है। इस जरूरत की पूर्ति इसलिए की जानी चाहिए, क्योंकि महिलाओं का उत्थान और उनका सशक्तीकरण परिवार और समाज की बेहतरी में ही सहायक बनेगा। देश के सर्वांगीण विकास के लिए भी हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ना जरूरी है।

हमारे देश में सबसे ज्यादा बदलाव की दरकार समाज में मौजूद परंपराओं और रूढ़ियों को लेकर है। बेटे और बेटी में किए जाने वाले भेद की मानसिकता के चलते आज भी दूर-दराज के गांवों में बेटियों की शिक्षा और उनके स्वास्थ्य को महत्व नहीं दिया जाता। आज भी हमारे परिवारों में महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा को व्यवस्थागत समर्थन मिलता है। महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा के मोर्चे पर तो अनगिनत चिंताएं हैं ही, घरेलू हिंसा, दहेज, कन्या भ्रूण हत्या और बाल विवाह जैसे दंश भी बेटियों के जीवन के दुश्मन बने हुए हैं। सबसे खराब बात यह है कि सार्वजनिक स्थलों में महिलाएं खुद को सुरक्षित नहीं पातीं। यह स्थिति सभ्य समाज के लिए कलंक की तरह है। वे कैसे हर जगह स्वयं को सुरक्षित महसूस करें, इसकी चिंता हर किसी को करनी चाहिए। यह चिंता करना केवल सरकार का काम नहीं।

अनगिनत विरोधाभासों से जूझते हुए महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। सशक्त बनने के मोर्चे पर आधी आबादी ने साबित किया है कि वे स्वयंसिद्धा हैैं। आज जब वे जीवन के हर क्षेत्र में खुद को साबित कर रही हैैं तब यह देखना पीड़ादायी है कि तमाम क्षमता और योग्यता के बावजूद उन्हें कम करके आंकने की सोच समाप्त होने का नाम नहीं ले रही है। लैंगिक समानता भारतीय संविधान के मूल तत्वों में समाहित है। भेदभाव विरोधी तमाम कानूनी प्रावधान भी मौजूद हैं, फिर भी महिलाएं दोयम दर्जे का व्यवहार झेलने को मजबूर हैं।

आज की उदारीकृत व्यवस्था में महिलाएं श्रम शक्ति का एक बड़ा हिस्सा जरूर हैं, लेकिन वे उपेक्षा और शोषण की शिकार भी बन रही हैं। राजनीतिक भागीदारी से लेकर हर क्षेत्र की वर्कफोर्स में उनके बढ़ते दखल के बावजूद शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक मोर्चे पर पीछे रह जाने का कारण उनका महिला होना ही है।

लैंगिक असमानता के चलते ही अस्मिता और सामाजिक सम्मान से जुड़े सरोकार के संघर्ष में महिलाएं आज भी खुद अकेले पाती हैं। एक लोकतांत्रिक देश की नागरिक होने के नाते सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन जीने के लिए लैंगिक असमानता को दूर करना आवश्यक है। बराबरी का यह भाव स्त्री अस्मिता ही नहीं मानवीय मूल्यों से भी जुड़ा है, जो हमारी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था की दशा और दिशा तय करता है। कुल मिलाकर आज यह समझना कहीं अधिक जरूरी है कि समाज और परिवार को लैंगिक समानता की बुनियाद बनना चाहिए।

[ लेखक ने उठाई महिलाओं की आवाज]