डॉ. ब्रजेश कुमार तिवारी। सुप्रीम कोर्ट में गर्मी की छुट्टियां शुरू हो गई हैं। अब जुलाई में फिर से कोर्ट खुलेगा। अधिकांश हाई कोर्ट एवं ट्रायल कोर्ट यानी जिला अदालतें भी गर्मी की छुट्टियों की वजह से जून में बंद रहेंगी, वहीं ठंड वाले राज्यों में सर्दी की छुट्टियां दिसंबर या जनवरी में होती हैं। ऐसा नहीं कि छुट्टियों में कोर्ट में सुनवाई नहीं होती। इसके लिए वैकेशन बेंच बनाई जाती है। यह बेंच त्वरित मामलों की सुनवाई करती है। वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में प्रति वर्ष औसतन 193 कार्यदिवस हैं, जबकि उच्च न्यायालयों में 210 दिन और जिला अदालतों में 245 कार्यदिवस हैं। भारत उन देशों में है जहां न्यायपालिका साल में सबसे ज्यादा दिन काम करती है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा, सिंगापुर और ब्रिटेन में शीर्ष अदालतें क्रमशः 79, 97, 120, 145 और 189 दिनों तक बैठती हैं। भारत का सुप्रीम कोर्ट प्रतिदिन कम से कम 10-15 फैसले देता है, वहीं अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट एक वर्ष में अधिकतम 10-15 निर्णय देता है।

भारतीय उच्चतम न्यायालय में 31 दिसंबर, 2023 तक 80,000 से अधिक तो उच्च न्यायालयों में 61 लाख से अधिक मामले लंबित थे, जबकि जिला अदालतों में कुल लंबित मामले 4.32 करोड़ से अधिक थे। पिछले कुछ वर्षों से भारत की अदालतों में लंबित मामलों की भारी संख्या को देखते हुए जजों की छुट्टियों को कम करने की लगातार मांग की जा रही है। दरअसल जो लोग कोर्ट की कार्यप्रणाली को नहीं जानते, वही इसकी मांग करते हैं। अधिकांश को तो यह भी नहीं पता कि न्यायाधीश कैसे काम करते हैं। वास्तव में इन ‘छुट्टियों’ के दौरान ही न्यायाधीश आरक्षित निर्णयों के लंबित आदेशों को पूरा करते हैं।

अपने चैंबर में या घर पर बने दफ्तर में बैठकर तमाम मामलों में जजमेंट लिखवाते हैं। इनको लिखवाने से पहले उन्हें पूरे केस की फाइल और तमाम जिरह को देखना होता है। मामले से संबंधित तमाम पुराने जजमेंट भी पढ़ने होते हैं। देखा जाए तो यह देश का सबसे कठिन काम है। न्यायाधीशों द्वारा बोले या लिखे गए प्रत्येक शब्द लोगों के जीवन को प्रभावित करते हैं। यह राजनेताओं द्वारा रिबन काटने और भाषण देने जैसा काम नहीं है, जिसका लोगों पर बहुत कम प्रभाव या कोई परिणाम नहीं होता है। हर हफ्ते औसतन 300 से अधिक मामलों की सुनवाई की तैयारी करना आसान नहीं है।

ऐसा नहीं है कि न्यायाधीश सिर्फ दस से चार बजे तक ही कार्य करते हैं। वास्तव में एक न्यायाधीश का जीवन अदालत के घंटों के बाद आम जनता से छिपा होता है। न्यायाधीश आम तौर पर शाम, रात और सप्ताहांत में फाइलें पढ़ने, आदेश लिखने, अन्य निर्णय और कानून की किताबें पढ़ने में बिताते हैं, क्योंकि जब अदालतें काम कर रही होती हैं तो न्यायाधीशों के पास ऐसा करने के लिए बहुत कम समय बचता है। कोर्ट यह कभी नहीं कहता कि छुट्टी है। ऐसे में कोर्ट से दूसरे सरकारी विभागों की छुट्टियों की तुलना करना ठीक नहीं है। यही कारण है कि तनाव प्रबंधन के लिए न्यायाधीशों को समय-समय पर आराम की आवश्यकता होती है और वकीलों को भी, क्योंकि वकील भी न्यायिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

विशेषज्ञ मानते हैं कि भारतीय न्यायपालिका में जजों की संख्या में कमी मामलों के लंबित होने के लिए जिम्मेदार है। उनकी छुट्टियों को दोष देने की जगह न्यायपालिका को ज्यादा संसाधन उपलब्ध कराया जाना ही इस समस्या का समाधान है। कानून मंत्रालय के अनुसार एक अक्टूबर, 2023 तक जिला अदालतों में कुल 5,388 पद (21 प्रतिशत) खाली थे। ऐसे ही उच्च न्यायालयों में 1,114 न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या के मुकाबले 347 न्यायाधीशों के पद (31 प्रतिशत) खाली थे। भारत में न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात में भी भारी अंतर है।

यह 2020 में प्रति 10 लाख लोगों पर 21 न्यायाधीश का था। जबकि 1987 में विधि आयोग ने सुझाव दिया था कि 10 लाख नागरिकों के लिए 50 न्यायाधीश होने चाहिए। अमेरिका में प्रति दस लाख लोगों पर 107 न्यायाधीश हैं और ब्रिटेन में 51 न्यायाधीश हैं। जब तक इस अनुपात को बेहतर नहीं बनाया जाता तब तक देश की अदालतों में लंबित मामलों की संख्या बढ़ती ही रहेगी। संविधान का अनुच्छेद-21 सभी नागरिकों को त्वरित न्याय का अधिकार देता है। ऐसे में जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई सिफारिशों पर सरकार समय पर कार्रवाई करे और नियुक्तियां करें।

आज भी कई अदालतों में न्यायाधीशों, वकीलों, कर्मचारियों और वादियों के लिए बुनियादी ढांचे की कमी है। अदालतों में मुकदमेबाजी इसलिए भी बढ़ रही, क्योंकि ज्यादातर विभाग सही से काम नहीं कर रहे। कई बार स्कूलों की फीस, स्वच्छता, कुपोषण से लेकर सड़क के गड्ढे दुरुस्त करने तक के आदेश अदालतों को ही देने पड़ते हैं। न्याय विभाग द्वारा प्रकाशित 2017 के एक दस्तावेज में कहा गया है कि अदालतों में कुल लंबित मामलों का 46 प्रतिशत हिस्सा सरकार, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और अन्य स्वायत्त निकायों से संबंधित है।

अब समय आ गया है कि सरकारें अपनी नीति में बदलाव करें, क्योंकि इससे न केवल कोर्ट का समय व्यर्थ होता है, बल्कि निरर्थक मुकदमेबाजी पर भारी मात्रा में सार्वजनिक धन बर्बाद होता है। कुल मिलाकर देखें तो गर्मी हो या सर्दी की छुट्टियां, वे न्यायाधीशों या वकीलों में तनाव प्रबंधन का काम करती हैं, क्योंकि वे पूरे वर्ष जटिल कानूनी मुद्दों और सवालों को सुलझाने का काम करते हैं। संपूर्ण कानूनी संस्कृति में व्यापक बदलाव के बिना केवल जजों की छुट्टियों में कटौती करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला।

(लेखक जेएनयू के अटल स्कूल आफ मैनेजमेंट में प्रोफेसर हैं)