अंशुमाली रस्तोगी। एनकाउंटर होने की भी अपनी अलग बात है। लोग के बीच बड़ी और बड़े दिनों तक चर्चा रहती है। अखबार अपनी, चैनल्स अपनी कहानी गढ़ते हैं। समाज एनकाउंटर में मारे गए व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखता है। पुलिस की वाह-वाही चारों तरफ होती है। मगर कुछ बुद्धिजीवी टाइप के लोग एनकाउंटर पर सवाल भी उठा देते हैं। पर उन्हें आप गंभीरता से न लें। उनका तो काम ही मीन-मेख निकालना है।

यह बात मैं समझ गया हूं कि बंदा अच्छे कर्म करके नहीं, एनकाउंटर होने के बाद बड़ा और महान बनता है। एनकाउंटर होते ही उसकी ब्रांड वैल्यू बढ़ जाती है। लोग उसकी महानता को हाथोंहाथ लेने लगते हैं। फिल्म शोले में भी तो गब्बर एक मुठभेड़ के बाद ही निपटा था। लेकिन आज भी लोग उसका नाम इज्जत से लेते हैं। उसके डायलॉग यदा-कदा दोहराते रहते हैं। इसे ही तो कहते हैं रुतबा! कि बंदा मर-खप जाए, पर देश, दुनिया, समाज में उसकी तूती बोलती रहे।

अगर कभी मेरा एनकाउंटर होता है तो शायद मैं यह उपलब्धि पाने वाला विश्व का पहला व्यंग्यकार होउंगा। तनिक सोचें, मेरे नाम की कितनी धूम होगी हर कहीं। मेरे समकालीन लेखक जिंदगी भर कलम घिस-घिसकर जितना नाम न कमा पाए, उनसे कहीं अधिक मैं अपने एनकाउंटर में कमा लूंगा। काम ऐसा कर जाओ कि दुनिया जिंदगी भर याद करे।

गैंगस्टर या बदमाश होना कोई बुरी बात नहीं। देश में जाने कितने हैं। जहां वे हैं, उनका वहां सिक्का चलता है। वीरप्पन को ही ले लो! भाई क्या मस्त बंदा था। पूरा प्रदेश कांपता था अगले के नाम से। मैं तो उस संपादक के साहस को नमन करता हूं, जिसने वीरप्पन का कभी इंटरव्यू लिया था। ये साहित्यिक इंटरव्यू में कुछ नहीं रखा! कभी इस लेखक की टांग खिंचाई तो कभी उस किताब पर एतराज। फिर फालतू के विवाद। किताब छपवाने के लिए प्रकाशकों की खुशामद। ये सब मेरे बस की बात नहीं। लेखन में अगर हैं तो यहां भी बदमाशियां जरूरी हैं। कोरे या सज्जन लेखकों को यहां कोई नहीं पूछता।

मैं उस दिन की कल्पना से सिहर जाता हूं, जब बतौर व्यंग्यकार मेरा एनकाउंटर होगा! मेरे सिर पर एनकाउंटर में मारे गए जैसी हेडलाइन का सेहरा सजेगा। इंतजार में हूं उस दिन के!