[ सूर्यकुमार पांडेय ]: वह कस्बे के चौराहे पर चंद समर्थकों के साथ खड़े थे। हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव में वह भी एक प्रत्याशी हुआ करते थे। जिसे भी देखते, लपककर उसके पैर छू लेते थे। निरंतर झुकने के चलते उनकी कमर दुखने लगी थी। तब उन्होंने इस काम पर अपने पुत्र को लगा दिया था। वह हाथ जोड़ते, उनका बेटा मतदाताओं के पांव छूता। दो पीढ़ियों ने एक साथ मशक्कत की। तब भी क्षेत्र के वोटरों ने उन्हें अपना आशीर्वाद रूपी वोट नहीं दिया। इस तरह जनता के मुंह फेर लेने के चलते उनको हार का मुंह देखना पड़ गया था, लेकिन उनको जनता को अपना मुंह दिखाने में कोई शरम नहीं थी। इस पराजय को लेकर उनके वज्र व्यक्तित्व पर किसी भी प्रकार की उदासी परिलक्षित नहीं थी। वह परम प्रसन्न थे। हंस रहे थे।

मैंने कहा, ‘आपके जीत न पाने के समाचार से आत्मिक कष्ट हुआ।’ वह बोले, ‘काहे का कष्ट! हार जाने में भी फायदे ही फायदे हैं।’ कोई ताजा-ताजा घायल नेता जी बोले कि जख्मी होना भी लाभ का सौदा है तो संशय होने लग जाता है कि अगले ने शर्तिया किसी इंश्योरेंस कंपनी से मोटी रकम का अपना बीमा करा रखा होगा। मगर चुनाव में पराजित होने वालों के लिए तो अभी इस तरह के किसी मेडिक्लेम का प्रावधान नहीं बना, सो मुझे उनकी बातों से आश्चर्य हुआ। मैंने अपनी जिज्ञासा की चिर शांति के लिए उनसे पूछा, ऐसा कैसे?

उस डिफीट खाई हुई विकल आत्मा ने जो वक्तव्य उछाला, उसका सारांश भाव इस प्रकार है-हमने चुनाव-प्रचार के दौरान मतदाताओं को सुनहरे सपने दिखलाए थे। अब उन ख्वाबों की ताबीर की हमारी कोई जवाबदेही या जिम्मेदारी नहीं है। जनता ने जिसको जिताया है वह जाने, उसका काम जाने। हम जवाबदेह नहीं हैं। हमने तो वादे ही ऐसे किए थे कि उन्हें पूरे भी कर देते। नवनिर्वाचित सांसद जी के किए गए सारे के सारे वादे तो हवा-हवाई थे। उनसे ये इस टर्म में तो पूरे होने से रहे। हम सांसद हो गए होते तो क्षेत्र में विकास की गंगा बहा देते। वे एक नहर बहा कर दिखला दें तो हम कसम खाकर कहते हैं कि अपना चुनाव-क्षेत्र बदल लेंगे!

अब हमें वोटरों को चिढ़ाने की खुली छूट मिल गई है। वह मिलेंगे तो कह दूंगा, मिल आए अपने नए सांसद जी से! हो गया काम! हमें जिताते, तो यूं चुटकियों में काम कराते। और जिताओ उनको! अजी, अब वह तुम्हारे माननीय सांसद जी हैं। दर्शन भी पा लो उनके तो बड़ी बात है! चाहो तो अभी नंबर मिलाके देख लो। स्विचऑफ न मिले, तब कहना! और अगर मिल भी गया तो कोई दूसरा आदमी उठाएगा। कहेगा, अभी सांसद जी एक जरूरी मीटिंग कर रहे हैं। बाद में बात कीजिएगा। और उनका वह बाद, कभी आएगा ही नहीं।

उनकी और दलीलें भी कम फन्नेखां नहीं थीं। कहने लग गए-चुनाव के समय हमने जिन उद्योगपतियों, व्यवसायियों, अफसरों, ठेकेदारों, रंगदारों से चंदा लिया, अब उनका सहयोग करने की हमारी कोई नैतिक या अनैतिक जिम्मेदारी नहीं है। अब हम उनको कुछ भी लौटाने वाले नहीं। उलटा वे लोग जो पहले हमें चंदा दिया करते थे, अब वे सांत्वना देने आएंगे। हो सकता है, मुझ पर तरस खाकर कुछ और दे दें। आखिरकार उनको भी इसी इलाके में रहना है और अपना धंधा-वंधा करना है! और तो और, अब हमें धरना, प्रदर्शन, बंद, चक्का-जाम करने-कराने वाले अपने सिर-आंखों पर बिठाएंगे। हम उन्हें अपना सफल नेतृत्व देंगे, क्योंकि नेतृत्व देना हमारी पुरानी आदत है।

अब हम सरकार के खिलाफ रोज विरोध-प्रदर्शन करेंगे। लोकल मीडिया को अपने पक्ष में करेंगे। हार गए हैं, तो क्या? खाली समय मिला है। इसका भरपूर लाभ लेंगे। नई समस्याएं तलाशेंगे। न मिलीं, तो पैदा करेंगे। आज ऊपर वाले ने हमें करीब से गरीब जनता की सेवा का सुअवसर दिया है। अब हम इस मौके को, कैश और काइंड दोनों ही रूपों में भुनाकर रहेंगे।

मेरी बेचैनी बढ़ती देख उन्होंने समझाया, देखो भाई, वह लीडर ही क्या, जो नुकसान में भी नफा की गुंजाइश न तलाश ले! लोकतंत्र में केवल जीतने वाले के ही दोनों हाथों में लड्डू नहीं हुआ करते हैं। जो लोग हारते हैं, उनके भी मन में लड्डू फूटते हैं। राजनीति में जय-पराजय का खेल तो चलता रहता है। किसी ने यह कभी भी नहीं सुना होगा कि फलां प्रत्याशी को हारने की वजह से हार्ट अटैक आ गया।

चुनाव में लाखों-करोड़ों रुपये की जमा-पूंजी स्वाहा हो जाने पर भी पराजित उम्मीदवार के चेहरे पर शिकन नहीं आती। आती है तो चली जाती है। यह सियासत भी एक जुआ ही तो है। जिस दिन दांव सही लग गया, चुटकियों में वारे-न्यारे हो जाएंगे। आखिर जोखिम के बिना मुनाफा कहां होता है। कल की उम्मीद पर ही तो राजनीति की यह दुनिया कायम है।

 
(लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं)

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