सृष्टि के आरंभ काल से ही प्रत्येक जीव में दूसरों पर शासन करने, दूसरे को जीतने की आकांक्षा पाई जाती है। संभवत: सत्ता आदमी की मूल प्रवृत्ति है। दूसरों को जय करने की इस कामना के चलते ही सर्वदा से युद्ध होते आए हैं। प्रारंभ में एक कबीला दूसरे कबीले पर, एक राज्य दूसरे राज्य पर और एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर अधिकार करने, उसे जीतने का उपक्रम करता रहा है। हम दूसरों को जय करने से पूर्व यदि खुद को जय कर लें तो सारे विवाद, लड़ाई-झगड़े स्वत: समाप्त हो जाएंगे। खुद को जीतने का अर्थ है, खुद पर नियंत्रण, लेकिन यह इतना सरल नहीं है, पर यह कार्य साधना के द्वारा आसानी से हो सकता है। भारतीय दर्शन में मन की चंचलता पर विपुल सामग्री है और इसको साधने के उपायों पर भी बहुत कुछ कहा गया है। देखा जाए तो गीता में भगवान श्रीकृष्ण इसी मन को साधने के लिए सखा अर्जुन से अनेक उपायों की चर्चा करते हैं। हमारा मन कभी इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं रहता कि कोई हम पर शासन करे या अधिकार जताए।
वर्तमान समय में और विशेष कर आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से अपने घरों में हम बड़ों के आदेश-निर्देश को छोटों द्वारा अवज्ञा करते अक्सर देखते हैं। नई पीढ़ी का यह विद्रोह नया भी नहीं है। इतिहास पर दृष्टि डालें तो हम देखेंगे कि यह समस्या हर युग में रही है। दरअसल इसे नकारने में यह भावना अधिक काम करती है कि कोई नहीं चाहता कि कोई उस पर शासन चलाए। अब यहां पर फिर मन को साधने के लिए गीता की शरण में जाने की जरूरत महसूस होने लगती है। सारे झगड़े के मूल में यह मन ही है जो हमें स्वतंत्रतापूर्वक जीने का पाठ पढ़ाता रहता है। इसी के कारण हम किसी के शासन में रहना पसंद नहीं करते, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि किसी का नियंत्रण या मार्गदर्शन हमारे लिए अत्यंत उपयोगी है। इसीलिए यह जरूरी है कि हम एक दूसरे का सम्मान करें, किसी पर शासन न चलाएं और सभी को परिवार से लेकर राष्ट्र तक, अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए आगे बढ़ने दें। इस प्रकार यदि हम स्वयं पर विजय पा लें तो दूसरों पर जय पाने की हमारी भावना तिरोहित हो सकती है। जीवन के लिए यह अति आवश्यक है। इसीलिए यदि जीवन में हमें अपने लिए तय लक्ष्यों को हासिल करना है तो इसे आत्मसात करना ही होगा।
[ डॉ. विश्राम ]