पंजाब, अमित शर्मा। पहले हरियाणा और फिर दिल्ली में शिरोमणि अकाली दल (शिअद) एवं भाजपा में चुनावी गठबंधन टूटने के तुरंत बाद से लगातार कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या इसका सीधा असर आने वाले दिनों में पंजाब में पिछले दो दशकों से ‘नाखून-मांस’ के रिश्ते जैसे कहलाए जाने वाले अकाली-भाजपा गठबंधन पर पड़ेगा या नहीं? क्या भाजपा पंजाब में भी 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव में शिअद से नाता तोड़ अपने दम पर लड़ेगी? ऐसे तमाम कयासों के बीच बेशक हमेशा की तरह दोनों दलों के शीर्ष नेतृत्व ने एक बार फिर इस बंधन को ‘अटूट’ बताते हुए दिल्ली में प्रेस वार्ता कर एक-दूसरे के प्रति पूरी तरह से कृतबद्ध होने का दावा किया है, पर इस बार प्रादेशिक स्तर पर विशेषकर भाजपा की स्थिति एवं रुख कुछ अलग है।

अकाली दल से नाता तोड़ अगले विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़ने की ताकीद करने वाले प्रदेश के अनेक भाजपा नेता और कार्यकर्ता अब खुल कर इस बंधन से मुक्ति की बाते करने लगे हैं। बदले हुए रुख की अभिव्यक्ति की एक झलक पिछले महीने भाजपा के नवनिर्वाचित प्रदेश अध्यक्ष अश्विनी शर्मा की ताजपोशी के दौरान देखने को मिली। मंच से ही भाजपा के चार पूर्व अध्यक्षों एवं पूर्व की तीन गठबंधन सरकारों में मंत्री पदों पर रह चुके कई वरिष्ठ नेताओं ने अकाली दल को ‘खाली दल’ की संज्ञा दे डाली और अपने-अपने बूते पर आगामी चुनाव लड़ने की सरेआम वकालत की। हालांकि समारोह के बाद दिल्ली में शिअद प्रमुख सुखबीर सिंह बादल और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने संयुक्त प्रेस वार्ता बुलाकर ऐसी तमाम संभावनाओं को सिरे से नकार दिया, लेकिन दिल्ली में शीर्ष नेताओं द्वारा दिखाई गई यह एकजुटता प्रदेश भाजपा नेताओं के पैमाने पर खरी नहीं उतरी।

वर्करों की आवाज और बदले नजरिये का हवाला देते हुए वरिष्ठ नेता एवं पूर्व कैबिनेट मंत्री मास्टर मोहनलाल ने उन सवालों को एक बार फिर सुलगा दिया जिन्हें पिछले दो दशकों में भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व लगातार दबाता रहा है। उन्होंने सार्वजानिक तौर पर दो टूक कहा कि बेशक केंद्र में भाजपा अपना दबदबा बढ़ाने में लगातार कामयाब रही हो, कई अन्य राज्यों में पार्टी ने अपना ग्राफ ऊंचा किया हो, लेकिन हर बार अकाली दल की पिछलग्गू बन भाजपा पंजाब में कभी भी ऊपर नहीं उठ पाएगी। मुखर होती ऐसी भावनाओं के बीच गठबंधन राजनीति को लेकर आगे फैसला चाहे कुछ भी हो, पर इस घटनाक्रम ने इतना साफ कर दिया है कि राज्य में अकाली दल के साथ मिलकर तीन बार सरकार बनाने के बावजूद भाजपा इस स्थिति में कतई नहीं है कि अपने दम पर अकेले चुनाव लड़ प्रदेश की राजनीति में अपना वर्चस्व साबित कर सके।

लेकिन ऐसा क्यों? इस क्यों का जवाब जहां राष्ट्रीय नेतृत्व भलीभांति जानता है वहीं पार्टी की राज्य इकाई भी इसके पीछे के कारणों से अनभिज्ञ नहीं है। इसी ‘क्यों’ के संदर्भ में थोड़ा बेबाकी से कहें तो गठबंधन राजनीति के इन 20 वर्षों में न तो राष्ट्रीय नेतृत्व ने पंजाब भाजपा में किसी भी नेता को अकाली दल के सरपरस्त बादल परिवार के सदस्यों के समकक्ष उभरने दिया और न ही राज्य इकाई के कर्ताधर्ता इन नेताओं ने यदा कदा मिले ऐसे मौकों का पार्टी के विस्तार वास्ते उपयोग किया। 2007 में दूसरी बार बनी गठबंधन सरकार के कार्यकाल में राज्यपालों समेत कुछ अन्य गंभीर मसलों पर शिअद सुप्रीमो प्रकाश सिंह बादल से खूब मतभेद उभर कर सामने आए। यह जानते हुए कि उस दौर में अकाली दल सरकार बनाने में कामयाब ही भाजपा की 19 सीटों की बदौलत हुआ था, प्रदेश भाजपा ने पहली बार अकाली दल को खुली चुनौती दे पार्टी के राजनीतिक विस्तार की नींव रखी।

प्रदेश भाजपा इकाई ने अकाली दल से समर्थन वापस लिए जाने या फिर अकाली सरकार को बाहर से समर्थन देने का प्रस्ताव पास किया, जिसे लेकर सीनियर नेता बलरामजी दास टंडन और स्टेट यूनिट के वरिष्ठतम सदस्य दिल्ली पहुंचे। लेकिन प्रदेश में भाजपा को अकाली दल के समकक्ष खड़ा करने का उद्देश्य लिए दिल्ली पहुंचे भाजपा के इस शीर्षमंडल को राष्ट्रीय नेतृत्व ने किस तरह बिना सुनवाई के सीधे वापस पंजाब लौटने के आदेश जारी कर दिए थे, यह किसी से भी छिपा नहीं है। नतीजतन प्रदेश के भाजपा नेता भी पार्टी के विस्तार के बजाय अकाली नेतृत्व की चापलूसी कर अपने राजनीतिक विस्तार पर ज्यादा ध्यान देने लगे। सूबे में अकाली और भाजपा के गठबंधन की राजनीति इस कदर बदरंग हो गई कि भाजपा के नेता ही मंत्री पद पाने या अन्य राजनीतिक लाभ लेने की होड़ में समय-समय पर बादल पिता-पुत्र के इशारों पर अपनी ही पार्टी के नेताओं के खिलाफ आवाज बुलंद करने से नहीं चूके।

खैर, गठबंधन को लेकर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का नजरिया या रुख कुछ भी हो, इस बात से कतई इन्कार नहीं किया जा सकता कि राज्य इकाई की भावनाओं को नजरअंदाज कर भाजपा प्रदेश में विस्तार सकती है। एक बार फिर पंजाब में राज्य के भाजपा नेताओं ने इस मसले को सुलगाया है तो भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी सोचना होगा कि राज्य में भाजपा सदस्यों की संख्या रिकॉर्ड 21 लाख तक पहुंचने के बाद भी सूबे की राजनीतिक बिसात पर भाजपा का अस्तित्व आज भी अकाली दल की बैसाखियों पर क्यों निर्भर है?

[पंजाब, स्थानीय संपादक]

यह भी पढ़ें:-

जानें उन 18 सीटों के बारे में जहां आप ने काटे थे अपने MLA के टिकट, नए चेहरों को बनाया था प्रत्‍याशी

जानिए, दिल्‍ली के विधानसभा चुनाव में AAP की जीत के वो 10 कारण, जिससे मिली बंपर सफलता

Delhi Assembly Election Result 2020: इन 5 कारणों से दिल्ली में हारी भाजपा, गुटबाजी भी बनी वजह