[अभिषेक कुमार सिंह]। कानूनन सोशल मीडिया पर कई प्रकार की टीका-टिप्पणियों को साइबर अपराध माना जाता है। ऐसे विचार जो कंप्यूटर-मोबाइल आदि के जरिये इंटरनेट के माध्यम से समाज की समरसता को भंग करें, परस्पर द्वेष पैदा करें, चाइल्ड-पोर्न को बढ़ावा दें, धोखाधड़ी-गबन या किसी की निजता का उल्लंघन करते हों, कानून की परिधि में आते हैं। इसके मद्देनजर गत दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि अब वक्त आ गया है जब सोशल मीडिया जैसे तमाम ऑनलाइन खतरों से बचने के उपाय किए जाएं।

मीडिया पर ट्रोलिंग

सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग (दूसरों को नीचा दिखाने के प्रयास), चरित्र हनन, झूठी एवं फर्जी खबरें फैलाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर गंभीर चिंता जताई और ऐसा करने वालों की पहचान करने की तकनीक विकसित करने पर जोर दिया। अदालत ने यह भी कहा कि सोशल मीडिया कंपनियां यह पता नहीं लगा पा रहीं कि किसी ऑनलाइन संदेश (मैसेज) या सामग्री (कंटेंट) का स्नोत क्या है। इसलिए अदालत का विचार है कि सरकार इसमें दखल दे। सुप्रीम कोर्ट ने यह नाराजगी भी प्रकट की कि आखिर सरकार यह क्यों नहीं पूछ सकती कि इंटरनेट पर किसी आपत्तिजनक सामग्री को फैलाने की शुरुआत किसने की।

अदालत का कहना था कि अगर कोई सोशल मीडिया कंपनी यह कहकर बचने की कोशिश करे कि ऐसी सामग्री की रोकथाम की तकनीक नहीं है तो यह उसका गलत तर्क होगा। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि सरकार इस मामले में दिशा-निर्देश जारी करे। हालांकि इसमें यह सावधानी बरतने की जरूरत है कि इन इंतजामों से लोगों की निजता के अधिकार, उनका मानसम्मान और देश की संप्रभुता पर कोई आंच न आने पाए।

आपत्तिनजक सामग्री के स्नोत की जानकारी

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि चूंकि यह मामला राष्ट्रीय सुरक्षा, ट्रोलिंग, आतंकवाद, फेक न्यूज, बाल शोषण आदि से जुड़ा है, इसलिए केंद्र सरकार इसकी जल्द व्यवस्था करे जिससे कि फेसबुक, वाट्सएप आदि सोशल मीडिया के मंचों को उन पर मौजूद किसी भी आपत्तिनजक सामग्री के स्नोत की जानकारी देने के लिए बाध्य किया जा सके। अदालत ने ऐसा करने के संदर्भ में सरकार से पूछा है कि वह इस बारे में कब तक दिशा निर्देश बनाएगी। अदालत की चिंता अपनी जगह सही है, पर यहां एक पेचीदा सवाल यह है कि सरकार इस बारे में आखिर कैसी व्यवस्था बना सकती है।

भारतीय दंड संहिता

उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष 2018 में केंद्र सरकार ने सोशल मीडिया की निगरानी के उद्देश्य से सोशल मीडिया हब बनाने का एक फैसला किया था और कहा था कि सोशल मीडिया के दुरुपयोग के मामलों में जेल एवं जुर्माने आदि की सजाएं होंगी। बताया गया कि अगर किसी व्यक्ति के लिखे कमेंट या कंटेट से अन्य शख्स को ठेस पहुंचेगी, दंगा-अफवाह या प्रतिकूल हालात की आशंका होगी तो फिर उस कमेंट या कंटेट लिखने वाले को अधिकतम तीन साल की जेल हो सकती है। ऐसी ऑनलाइन सामग्री शेयर, फॉरवर्ड या रीट्वीट करने वालों को भी यही सजा मिलेगी। इसके लिए सरकार ने अलग से कानून बनाने के बजाय मौजूदा भारतीय दंड संहिता और आइटी एक्ट 2000 की धारा में ही बदलाव का प्रस्ताव दिया था, जो 10 विशेषज्ञों की कमेटी से सरकार को मिली रिपोर्ट के आधार पर तैयार किया गया था।

हिंसा फैलाने वाला कंटेंट लिखने पर एक साल जेल

प्रस्ताव था कि आइपीसी 153सी के तहत ही ऑनलाइन हेट या अफवाह फैलाने वाले कंटेंट पर कार्रवाई की जाए। इस धारा के तहत जाति, धर्म, भाषा, लिंग के आधार पर किसी को धमकी या गलत संदेश दिया जाता है तो 3 साल तक जेल हो सकती है। इसी तरह आइपीसी 505ए के तहत अगर किसी आधार पर हिंसा फैलाने वाला कमेंट करने या कंटेंट लिखने पर एक साल जेल या 5 हजार का आर्थिक दंड मिल सकता है। इसके लिए हर राज्य में आइजी स्तर का एक अधिकारी साइबर पुलिस टीम का मुखिया होगा। इस प्रस्ताव पर सवाल उठा और पूछा गया कि इस मामले में जब सुप्रीम कोर्ट धारा 66ए को असंवैधानिक करार दे चुका है तो उन्हीं प्रावधानों को नया जामा पहनाकर दोबारा सामने क्यों लाया गया है। आमजन ही नहीं, खुद सुप्रीम कोर्ट ने भी तब टिप्पणी की थी कि ऐसी व्यवस्थाएं देश में ‘निगरानी राज’ बनाने जैसा होगा।

मोबाइल इंटरनेट को लेकर पूरा देश और समाज दुविधा में

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और लोगों की प्रतिक्रिया के मद्देनजर पिछले साल ही सरकार ने सोशल मीडिया हब बनाने के प्रस्ताव वाली अधिसूचना वापस ले ली और कहा कि सरकार अपनी सोशल मीडिया नीति की गहन समीक्षा करेगी। लेकिन इधर तो खुद सुप्रीम कोर्ट ने ऑनलाइन खतरों और सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर चिंता जता दी है। असल में पिछले कुछ वर्षों से सोशल मीडिया और मोबाइल इंटरनेट को लेकर पूरा देश और समाज दुविधा में है। लोगों के लिए यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि इन आधुनिक तकनीकों का कैसे इस्तेमाल करें और किस तरह इन पर नियंत्रण पाया जाए। इसे लेकर दुविधा दो वजहों से है।

अभिव्यक्ति की आजादी

एक तरफ हमें इंटरनेट और सोशल मीडिया के वाजिब उपयोग नजर आते हैं तो दूसरी तरफ यह भी दिखाई पड़ता है कि कुछ असामाजिक तत्व इन चीजों का गलत इस्तेमाल यानी दुरुपयोग करते हैं। इसकी मिसालें बार-बार मिलती हैं। उपयोग और बेजा इस्तेमाल के ये दो छोर ही इंटरनेट और सोशल मीडिया के नियंत्रण की सरकारी व्यवस्थाओं की मांग उठाते हैं और यह दुविधा पैदा करते हैं कि कहीं ऐसा नियंत्रण अभिव्यक्ति की आजादी के हमारे संवैधानिक अधिकारों का हनन न करने लग जाए तथा ये माध्यम सिर्फ सरकारी भोंपू बनकर न रह जाएं। यह तो सही है कि हमारा लोकतंत्र इस समय जिस मुकाम पर है, वहां सख्त सरकारी नियंत्रण वाली ऐसी व्यवस्था का पक्ष नहीं लिया जा सकता जो आम नागरिकों के हितों और संवैधानिक शक्तियों का हनन करती हो। ऐसे में उन रास्तों की खोज होती रही है, जिन्हें लेकर दोनों ही पक्षों को कोई आपत्ति न हो। ऐसा एक रास्ता यह है कि सोशल मीडिया कंपनियां खुद ही इससे संबंधित इंतजाम करें और जनता को जागरूक करें।

वाट्सएप में अधिकतम पांच लोगों को फारवर्ड कर सकते हैं

यदि लोग भूलें न हों तो उन्हें याद होगा कि फेसबुक के स्वामित्व वाली कंपनी वाट्सएप ने पिछले साथ यह व्यवस्था बनाई थी कि भारत में इसके उपयोगकर्ता (यूजर्स) किसी संदेश, फोटो या वीडियो को एक बार में अधिकतम पांच लोगों को फारवर्ड कर सकते हैं। पांच लोगों को भेजे जाने के बाद उस संदेश से फारवर्ड का विकल्प हट जाएगा। अफवाह आदि रोकने के मामले में इसी किस्म के कुछ और तकनीकी इंतजाम किए जा सकते हैं। जैसे इधर फेसबुक ने ऑस्ट्रेलिया में व्यवस्था की है कि फेसबुक पर कोई फोटो या वीडियो पोस्ट करने के बाद उस पर दूसरे लोगों को लाइक्स या रिएक्शन नहीं दिखेंगे। फेसबुक के मुताबिक वह ऐसी व्यवस्था इसलिए कर रहा, ताकि सोशल मीडिया का यह मंच झूठी प्रतियोगिता का मैदान बनने से बच सके।

बेशक भारत में अब मोबाइल इंटरनेट के प्रचार-प्रसार के कारण इंटरनेट और सोशल मीडिया के उपयोगकर्ताओं की तादाद 40-50 करोड़ तक हो चुकी है, लेकिन लोगों की शिक्षा और जागरूकता के स्तर को देखते हुए इसके मामले में काफी सतर्कता बरतने की जरूरत है। यह भी समझना होगा कि हमारे देश में सोशल मीडिया जैसी तकनीकों का इस्तेमाल अभी भी काफी शुरुआती स्तर पर है जिसके इस्तेमाल का तरीका लोगों को सीखने की जरूरत है। साथ ही धर्म, समाज, जाति-समुदाय के कई स्तरों को देखते हुए विभिन्न तबकों के हितों और उनकी संवेदनशीलताओं के बीच होने वाले टकरावों का ध्यान रखते हुए सोशल मीडिया के नियंत्रण का वह तरीका बनाना होगा जिसमें सभी की सहमति हो।

[संस्था-एफआइएस, ग्लोबल से संबद्ध]