डॉ. अजय खेमरिया। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और पेयजल जैसे मूलभूत विषयों की तरह बिजली भी आज जीवन और मानवीय विकास का अविभाज्य हिस्सा है। महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि देश में पर्याप्त उत्पादन के बावजूद बिजली जरूरत के मुताबिक आम आदमी को नहीं मिल पा रही है और नागरिकों को एक भेदभावमूलक वितरण व्यवस्था से जूझना पड़ता है। ऐसे में देश के बिजली सिस्टम पर सवाल उठना स्वाभाविक है। सच्चाई यह है कि जिस मुद्दे को नीतीश कुमार ने उठाया है उस पर काफी पहले नीतिगत पहल अखिल भारतीय स्तर से सुनिश्चित होनी चाहिए थी। क्या कारण है कि एक ही ग्रिड से बिजली लेने वाले बिहार को महंगी और ओडिशा, तमिलनाडु को सस्ती मिलती है जिसका खामियाजा बिहार की जनता को महंगी बिजली के रूप में उठाना पड़ता है।

देश भर में घरेलू एवं खेती की बिजली के लिए लोग अलग अलग दाम चुकाते हैं। नतीजन बिजली के उपभोग का इंडेक्स भी राज्यों की गरीबी-अमीरी से निर्धारित हो रहा है। बगैर बिजली के आज जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है और यह सामुदायिक विकास का एक अहम कारक भी है। ऐसे में एक समावेशी बिजली नीति की आवश्यकता महसूस की जा रही है। हमें यह भी जान लेना चाहिए कि भारत में जितनी बिजली की आवश्यकता है, उससे कहीं अधिक समेकित उत्पादन क्षमता आज हमारे पास है। हम विश्व के तीसरे बड़े बिजली उत्पादक राष्ट्र हैं। वर्ष 2006 से 2019 के मध्य हमारी बिजली उत्पादन क्षमता 124 गीगावाट से बढ़कर 344 गीगावाट हो चुकी है। राष्ट्रीय विद्युत योजना 2016 के अनुसार 2021-22 में देश की पीक डिमांड 235 गीगावाट होगी, जबकि 2019 में हम 344 गीगावाट उत्पादन पर पर पहुंच चुके हैं। इस सरप्लस उत्पादन के बावजूद भारत में आम आदमी हर राज्य में महंगी बिजली खरीदने के लिए विवश क्यों है? जवाब भारत का जटिल और जर्जर हो चुका बिजली तंत्र है जिसे हमने अलग अलग डिस्कॉम यानी वितरण बोर्ड या कंपनियों के भरोसे छोड़ रखा है। देश भर के डिस्कॉम दिवालिया होने के कगार पर हैं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और बंगाल जैसे राज्यों में सरकारी निगम लाखों करोड़ के घाटे में हैं।

यह हमारी व्यवस्था और प्रशासन का दिवालियापन भी है कि राष्ट्रीय जरूरत से ज्यादा उत्पादन के बावजूद हमारे करोड़ों लोग पर्याप्त बिजली के लिए तरस रहे हैं। बिजली का उपभोग आज मानव विकास सूचकांक के स्वरूप को प्रभावित करता है। वैश्विक रूप से भारत तीसरा शीर्ष बिजली उत्पादक देश होने के बावजूद प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग में पिछड़ा हुआ है। ब्रिटेन में प्रति व्यक्ति बिजली खपत 5,130 किलोवाट प्रति घंटा है, वहीं वैश्विक रूप से यह आंकड़ा 3,130 है। लेकिन भारत में यह 1,181 ही है। यह पिछड़ापन संघीय व्यवस्था में भी अमीर और गरीब की खाई को प्रदर्शित करता है। मसलन बिहार में यह 311 है तो गुजरात में यह 2,388 किलोवाट प्रति घंटा है। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार प्रति व्यक्ति बिजली खपत के ये आंकड़े हरियाणा में 2,229 तो तमिलनाडु में 1,849 हैं, वहीं बंगाल में 757 तो उत्तर प्रदेश में 629 और असम में 391 हैं। स्पष्ट है कि देश के कई राज्यों के लोग अन्य राज्यों की तुलना में बिजली का उपभोग बहुत ही कम अनुपात में कर रहे हैं। ये सभी राज्य मानव विकास सूचकांक में भी अन्य राज्यों से पिछड़े हुए हैं।

सेंट्रल इलेक्टिसिटी अथॉरिटी ने उपभोक्ताओं को मिलने वाली घरेलू बिजली के दामों पर कराए गए देशव्यापी सर्वे के आंकड़े जारी किए हैं। ये आंकड़े चार किलोवाट कनेक्शन पर आधारित हैं और प्रमाणित करते हैं कि देश में बिजली उपभोक्ता किस स्तर पर भेदभाव का शिकार है। केंद्र प्रशासित दमन दीव में बिजली की औसत दर 1.71 रुपये प्रति यूनिट है। इसी तरह दादरा नगर हवेली में 1.93 रुपये, गोवा में 2.43 रुपये तो चंडीगढ़ में 4.15 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली लोगों को मिलती है। दूसरी तरफ बिहार में 8.6 रुपये, आंध्र प्रदेश में 8.5 रुपये और त्रिपुरा में 7.55 रुपये प्रति यूनिट आम ग्राहक को बिजली मिलती है।

असल में राज्य के डिस्कॉम महंगी बिजली खरीदने के जाल में राजनीतिक एवं प्रशासनिक कारणों से भी फंसे हुए हैं। खस्ताहाल वित्तीय स्थिति के लिए राज्य सरकारों की चुनावी अभिलिप्साएं, मुफ्त बिजली या अव्यावहारिक सब्सिडी भी कसूरवार हैं। विकास और निवेश के नाम पर राज्यों ने निजी पावर प्लांट अपने यहां लगवा कर वाहवाही लूटी, लेकिन इसके पीछे इन प्लांटों के साथ किए गए दीर्घकालिक बिजली खरीद सौदे किसी की नजर में नही आते हैं। मसलन मध्य प्रदेश में करीब 191 करोड़ यूनिट बिजली के परचेज एग्रीमेंट विभिन्न जेनको यानी पावर जेनरेशन कंपनियों से किए गए हैं, जबकि राज्य में पीक डिमांड की बिजली पहले से ही उपलब्ध है। सरकार हजारों करोड़ रुपये इन कंपनियों को बगैर एक यूनिट खरीदे दे रही है। कमोबेश सभी राज्यों में यही कहानी है। दूसरा केंद्रीय पूल की जेनको अलग अलग राज्यों को अलग अलग दरों पर बिजली बेचती हैं।

नीतीश कुमार ने इस विसंगति को 2017 में भी उठाया था, लेकिन वह बात बिहार विधानसभा में ही सिमट कर रह गई थी। स्वाभाविक है कि जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक रेल का किराया दूरी के हिसाब से एकसमान होता है तो एक ग्रिड से दी जाने वाली बिजली की दरें अलग अलग क्यों हैं? महंगी बिजली का गणित लागत एवं राजस्व की एक जटिल प्रक्रिया के कारण भी आम आदमी की समझ से बाहर है। बिजली बिल दो हिस्सों से मिलकर बनता है। एक फिक्स्ड चार्ज और दूसरा एनर्जी चार्ज। फिक्स्ड चार्ज में उत्पादन, पारेषण, ट्रांसमिशन, मेंटेनेंस लागत एवं पूंजी पर रिटर्न वसूला जाता है, जबकि ऊर्जा प्रभार उपभोक्ताओं द्वारा वास्तविक बिजली खपत की कीमत पर आधारित होता है।

फिक्स्ड चार्ज से जब डिस्कॉम की लागत नहीं निकल पाती है, तो कंपनियां ऊर्जा प्रभार बढ़ाने के विकल्प चुनकर बिजली महंगी कर देती हैं। फिक्स्ड चार्ज का बोझ ट्रांसमिशन जैसी अदूरदर्शिता के कारण बढ़ता जाता है। इसके अलावा, सरकारें चुनाव जीतने के लिए मुफ्तखोरी की जिन योजनाओं का सहारा लेती हैं, उनकी भरपाई समय पर नहीं करती हैं या करती ही नही हैं जिस कारण डिस्कॉम के घाटे बढ़ते जाते हैं। नतीजन अधोसंरचना पर खर्च करने के लिए वितरण कंपनियों के पास धन नहीं रहता है और वे कर्ज के बोझ में धंस जाती हैं।

बिजली उपभोक्ताओं का वर्गीकरण भी एक मकड़जाल से कम नहीं है। घरेलू, व्यावसायिक, औद्योगिक, कृषि उपभोक्ता जैसी करीब 18 भागों में उपभोक्ता बंटे हुए हैं और इनके अलग अलग स्लैब हैं। हर स्लैब पर बिजली की दरें अलग अलग हैं। जाहिर है बिजली वितरण एक ऐसा दुरूह तंत्र बना दिया गया है जिसमें आम उपभोक्ताओं को केवल बिजली बिल की रकम अदायगी से अधिक कुछ समझ नहीं आता है। सवाल यह भी है कि इस मकड़जाल से उपभोक्ताओं को मुक्ति क्यों नहीं दी जा सकती है? इस मकड़जाल ने बिजली के उपयोग को समावेशी बनाने से भी रोक रखा है जो अंतत: विकास के पैरामीटर्स को भी प्रभावित कर रहा है।

केंद्र सरकार ने प्रस्तावित बिजली संशोधन कानून में सब्सिडी को सीधे उपभोक्ताओं के खातों में ट्रांसफर करने का प्रविधान किया है, पर इसका भी विरोध हो रहा है। ऐसे में बेहतर होगा केंद्र और राज्य मिलकर एक समान दरों पर सर्वानुमति निíमत करें। सभी बिजली उत्पादन कंपनियों की बिजली एक समान दर पर डिस्कॉम को मिले और डिस्काम दिल्ली की तर्ज पर देश भर में एक समान स्लैब पर घरेलू बिजली उपलब्ध कराएं। ऐसा करने पर सरप्लस बिजली भारत के अंतिम व्यक्ति तक आसानी से पहुंच सकती है।

लगभग ढाई दशक पूर्व मध्य प्रदेश सरकार के खजाने में जब कभी नकदी का संकट होता तो सरकार जबलपुर स्थित बिजली बोर्ड से उधार लेकर अपना रूटीन काम चलाया करती थी। यानी बिजली बोर्ड की आर्थिक स्थिति सरकार से अच्छी थी, लेकिन आज मध्य प्रदेश की वितरण कंपनियों का घाटा 52 हजार करोड़ से ज्यादा है। उत्तर प्रदेश विद्युत निगम का घाटा 83 हजार करोड़ पहुंच गया है। बिहार में 47 हजार करोड़ है। देश के सभी डिस्कॉम घाटे को जोड़ दें तो यह करीब 10 लाख करोड़ रुपये के आसपास है। दरअसल विद्युत अधिनियम 2003 में संशोधन के मौजूदा प्रस्ताव का देश भर में विरोध हो रहा है। इस प्रस्ताव के विरोध का बुनियादी आधार 2003 के अधिनियम की व्यावहारिक विफलता ही है, जिसके अनुपालन में तत्कालीन बिजली बोर्डो को विघटित कर कंपनियों में बदला गया, ताकि उत्पादन, पारेषण और वितरण को व्यावसायिक और उपभोक्ता अधिकारों के मानकों पर व्यवस्थित किया जा सके। लेकिन यह प्रयोग पूरी तरह से असफल हो गया है। इसके मूल में अफसरशाही को देखा जाता है जिसने कंपनीकरण के नाम पर स्थापना और प्रशासनिक खर्चे तो बेतहाशा बढ़ा लिए, लेकिन जिस प्रोफेशनल एप्रोच की आवश्यकता थी, उसे अमल में नहीं लाया गया। पहले राज्यों में रेलवे की तर्ज पर एक स्वायत्तशासी निगम या बोर्ड होता था। अब वितरण, पारेषण, उत्पादन, मैनेजमेंट, ट्रेडिंग होल्डिंग कंपनियां बनाकर सभी की कमान आइएएस अफसरों को दे दी, जिन्होंने सरकारी महकमों की तरह ही इन कंपनियों को चलाया है।

कंपनीकरण के पीछे की सोच बिजली वितरण को विशुद्ध व्यावसायिक और प्रतिस्पर्धी धरातल देना था, ताकि उपभोक्ताओं को बेहतर विकल्प और सस्ती सुविधाएं सुनिश्चित हो। अनुभव इसके उलट कहानी कहते हैं। एक तो देश के सभी सरकारी डिस्कॉम दिवालिया होने की कगार पर हैं, दूसरी तरफ निजी बिजली कंपनियां करोड़ों का मुनाफा कमा रही हैं। बिजली के खेल को समझने के लिए हमें विद्युत अधिनियम 2003 की उस भावना को समझने की जरूरत है जो बुनियादी तौर पर निजीकरण की वकालत करती है। इसके लिए नीतिगत निर्णय हुआ कि बिजली क्षेत्र को निजी कंपनियों के हवाले किया जाएगा। नया फ्रेंचाइजी मॉडल ईजाद किया गया। शर्त रखी गई कि बड़े बिजली बोर्डो के टुकड़े किए जाएं और उन्हें सरकारी धन से दुरुस्त किया जाए। ठीक वैसे जैसे कोई जर्जर मकान है और उसे बेचने के लिए उसकी मरम्मत कराई जाती है। बोर्डो के टुकड़े कंपनियों में इसलिए किए गए ताकि बेहतर कमाई वाले क्षेत्रों की पहचान की जा सके।

[लोकनीति मामलों के जानकार]