नई दिल्ली (संजय गुप्त)। सुप्रीम कोर्ट ने आधार की वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर चार माह के दौरान 34 दिन सुनवाई कर फैसला सुरक्षित कर लिया। यह सुप्रीम कोर्ट में केशवानंद भारती के चर्चित मामले के बाद दूसरी सबसे लंबी सुनवाई है। आधार योजना का खाका संप्रग सरकार के समय खींचा गया था। संप्रग सरकार ने इन्फोसिस के संस्थापक नंदन नीलेकणि से तकनीक आधारित एक ऐसी योजना विकसित करने को कहा था जिससे कल्याणकारी योजनाओं में घपलेबाजी को रोका जा सके। नंदन नीलेकणि ने 12 अंकों की एक विशिष्ट पहचान संख्या वाली तकनीक विकसित की और उसे ही आधार कहा गया। आधार कार्ड की सार्थकता देखते हुए मोदी सरकार ने कई कल्याणकारी योजनाओं को इससे संबद्ध किया। इससे सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार में उल्लेखनीय कमी आई। बात तब बिगड़ी जब आधार की अनिवार्यता का दायरा एक तरह से सभी सेवाओं के लिए किया जाने लगा। इससे कुछ लोगों के मन में यह संदेह उपजा कि उनकी निगरानी हो सकती है। आधार की परिकल्पना मुख्यत: सब्सिडी वाली योजनाओं के लिए की गई थी, लेकिन हाल में यह भी देखने को मिला कि कई निजी कंपनियां भी आधार की अनिवार्यता पर जोर देने लगीं।

आधार कार्ड संबंधित व्यक्ति की अंगुलियों की छाप और आंखों की पुतलियों की छवि पर आधारित एक पहचान पत्र है। इसमें व्यक्तिगत जानकारी के तहत नाम, पता, उम्र और लिंग का ही विवरण होता है। मोबाइल और ई-मेल की जानकारी देना स्वैच्छिक है। जो लोग आधार के तहत मांगी जाने वाली सूचनाओं को निजता का उल्लंघन बता रहे हैं, वे इससे कहीं अधिक जानकारी सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्मों और तकनीक आधारित अन्य माध्यमों को दे देते हैं। लगता है कि आधार के विरोध का एक कारण मोदी सरकार के प्रति वैचारिक दुराग्रह भी है और शायद इसीलिए आधार कार्ड प्राधिकरण की इस दलील की अनदेखी की गई कि सभी निजी जानकारियां लेने की बात सही नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में आधार को यह कहते हुए चुनौती दी गई कि इससे निजता के अधिकार का उल्लंघन होता है। तमाम विपक्षी दलों ने भी इससे सहमति जताते हुए सरकार को घेरने की कोशिश की। इनमें वह कांग्रेस भी है जिसके शासनकाल में ही आधार की शुरुआत हुई। हालांकि सरकार आश्वासन दे रही है कि आधार के तहत नागरिकों की सूचनाएं पूरी तरह सुरक्षित हैं, लेकिन विपक्षी दल और कुछ अन्य संगठन एवं बु्द्धिजीवी उसकी बात समझने को तैयार नहीं।

सरकार यह दावा भी कर रही है कि आधार के सहारे सरकारी योजनाओं में धांधली को रोका गया है, लेकिन अभी तक इसका कोई ठोस आंकड़ा सामने नहीं रखा गया है कि कितनी राशि बचाई गई? बेहतर होगा कि यह विवरण दिया जाए कि आधार के माध्यम से पात्र लाभार्थियों तक कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाने में कितना धन बचाया जा सका?

अगर तकनीक के सहारे भ्रष्टाचार रोका जा सकता है और पात्र व्यक्तियों तक सरकारी योजनाओं का लाभ बेहतर तरीके से पहुंचाया जा सकता है तो उसके इस्तेमाल का विरोध क्यों? आधार के विरोधियों को यह याद करना चाहिए कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एक बार यह कहा था कि सरकारी योजनाओं में खर्च होने वाले प्रति एक रुपये में से केवल 15 पैसे ही लाभार्थियों तक पहुंचते हैं। भारत सरीखे देश में सरकार सामाजिक योजनाओं में जितना धन खर्च करती है उतना शायद ही किसी अन्य मद में करती हो। सामाजिक योजनाओं में भारी-भरकम खर्च के बाद भी करीब 25-30 फीसद आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। शासन-प्रशासन के भ्रष्टाचार से एक ओर जहां पात्र लोगों तक पर्याप्त सहायता नहीं पहुंचती वहीं दूसरी ओर सरकारी धन भ्रष्ट तत्वों की जेबों में पहुंचता है। हैरत नहीं कि आधार के विरोध में वे भी हों जिन्हें यह लगता है कि तकनीक के सहारे सरकारी योजनाओं का लाभ लोगों तक पहुंचाने से उनकी काली कमाई के अवसर खत्म हो रहे हैं।

नि:संदेह सरकार को ऐसे उपाय करने का अधिकार है जिससे भ्रष्टाचार पर लगाम लगे और सरकारी योजनाओं का लाभ पात्र लोगों तक पहुंचना निश्चित हो सके। अगर आधार इन लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक है तो फिर उसका इस्तेमाल जारी रखने में ही भलाई है। ध्यान रहे कि सरकार को यह भी अधिकार है कि वह अपने प्रत्येक नागरिक की पहचान स्थापित करे। दुनिया भर की सरकारें यह काम कर रही हैं और इसमें आधुनिक तकनीक सहायक बन रही है। जब यह तकनीक नहीं थी तब लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाने की जो व्यवस्था थी उसमें भी दुरुपयोग और भ्रष्टाचार रोकने के उपाय थे, लेकिन वे आज जितने प्रभावी नहीं थे। ऐसा लगता है कि आधार के विरोधी यह समझने को तैयार नहीं कि अन्य देशों की तरह भारत के लिए भी यह आवश्यक है कि लोगों की पहचान निश्चित करने की कोई न कोई व्यवस्था बनाना आवश्यक है।

आधार के विरोधियों का सबसे मजबूत तर्क है कि उसके इस्तेमाल से निजता का उल्लंघन होता है। इस तर्क पर तबसे और जोर दिया जाने लगा जबसे सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार करार दिया। नि:संदेह निजता का उल्लंघन नहीं होना चाहिए, लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि कोई नागरिक गैर कानूनी गतिविधियों में लिप्त हो और अपने खिलाफ कार्रवाई की स्थिति में निजता के अधिकार की दुहाई देने लगे। कोई भी अधिकार असीमित नहीं हो सकता-निजता का अधिकार भी नहीं। आखिर आधार में दर्ज सामान्य सी निजी जानकारी सरकारी एजेंसियों को देने को निजता का उल्लंघन कैसे कहा जा सकता है?

भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगे और कोई भी नागरिक गैर कानूनी गतिविधियों में लिप्त न होने पाए। अगर इस जिम्मेदारी के निर्वहन में आधार उपयोगी साबित हो रहा है तो फिर उसका विरोध ठीक नहीं। विभिन्न योजनाओं में आधार का इस्तेमाल बढ़ते जाने के दौर में हाल में तब कुछ गंभीर सवाल उभरे थे जब कुछ समय पहले आधार जारी करने वाले प्राधिकरण के सर्वर से कुछ आधार कार्डों का विवरण सार्वजनिक हुआ और फिर फेसबुक उपभोक्ताओं का भी डाटा लीक हुआ। इन घटनाओं के बाद आधार के विरोधी भले ही उत्साहित हुए हों, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उसके इस्तेमाल से पात्र लोगों को सब्सिडी देने में आसानी हुई है और सब्सिडी के दुरुपयोग पर अंकुश लगने के साथ सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ी है।

आधार पर उच्चतम न्यायालय चाहे जिस निष्कर्ष पर पहुंचे, इस तरह की तकनीक के इस्तेमाल से बचने का कोई औचित्य नहीं। बदलती तकनीक को अपनाने से बचने का अर्थ है समय के साथ कदमताल करने से इन्कार करना। आज जब सूचना तकनीक के इस्तेमाल से अर्थव्यवस्था को गति मिल रही है और तमाम सेवाओं में ग्राहकों की पहचान पता करना जरूरी हो गया है तब आधार का विरोध समझ से परे हैं। चूंकि आज जैसे स्मार्टफोन एक उपयोगी तकनीक है वैसे ही आधार कार्ड भी इसलिए निजता के अधिकार के बहाने उसके विरोध से बचा जाना चाहिए।

(लेखक : दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)