[ बलबीर पुंज ]: बीते दिनों केरल की सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन के बाद सबरीमाला मंदिर का मामला संसद में गूंजा। इसे लेकर अब तक कांग्रेस का जैसा रुख रहा है वह अपने गर्भ में कई प्रश्नों के उत्तर समेटे हुए है। केरल में वामपंथियों और कांग्रेस का ही राजनीतिक वर्चस्व रहा है। मुख्यमंत्री पी विजयन केनेतृत्व में वहां फिलहाल वामपंथियों की सरकार है तो प्रदेश की 20 लोकसभा सीटों में कांग्रेस की आठ सीटें हैं। राज्यसभा में केरल से उसके दो सांसद हैं। इस मंदिर की परंपराओं को बचाने के लिए भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित कई हिंदू संगठनों की भांति केरल में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी आंदोलित है और भगवान अयप्पा से जुड़े विश्वास और परंपरा का समर्थन कर रही है। इसके उलट कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का मत अपनी स्थानीय इकाई से विपरीत है। क्यों?

बीते दिनों 42-44 आयु वर्ग की दो महिलाएं पुलिस सुरक्षा में सबरीमाला मंदिर में प्रवेश कर गई थीं जिसके विरोध में केरल प्रदेश कांग्र्रेस समिति ने ‘काला दिवस’ का आह्वान किया। 2 जनवरी को जहां कांग्र्रेस नेता के. सुरेश ने संसद परिसर में उन महिलाओं को माओवादी कहा तो 4 जनवरी को संसद में चर्चा के दौरान अपनी बांह पर काली पट्टी बांधे कांग्र्रेसी नेता केके वेणुगोपाल ने स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त की। 2 जनवरी को संसद परिसर में काला दिवस के समर्थन में केरल के एक कांग्र्रेसी सांसद जब अपने साथी सदस्यों को काली पट्टी वितरित कर रहे थे तब संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी ने उन्हें रोक दिया। रपट के अनुसार सोनिया गांधी ने कहा, ‘आप लोग स्थानीय राजनीति को देखते हुए केरल में इसका विरोध जारी रख सकते है, किंतु राष्ट्रीय स्तर पर सांसदों को मंदिर में सभी महिलाओं के प्रवेश पर विरोध और आपत्ति नहीं जतानी चाहिए, क्योंकि कांग्रेस लैंगिक समानता और महिला अधिकारों की हिमायत करती है।‘

सबरीमाला मंदिर का विवाद क्या है? हिंदुओं के इस तीर्थ स्‍थान को लेकर केरल सहित देश के अन्य भागों में जो कुछ हो रहा है उसकी जड़ें 28 सितंबर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले से जुड़ी हैं जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत के आधार पर मंदिर की एक प्रमुख परंपरा को असंवैधानिक बताकर वर्जित 10-50 आयु वर्ग की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति दे दी। इस निर्णय को समाज के एक वर्ग ने जहां लैंगिक समानता और महिला अधिकार के रूप में प्रस्तुत किया तो उसी फैसले से असंतुष्ट अयप्पा भक्तों की प्रतिक्रिया को सांप्रदायिक और महिला विरोधी बता दिया। इस तर्क के आधार पर क्या स्वयंभू सेक्युलरिस्ट-प्रगतिशील, चर्च में महिला पादरियों की नियुक्ति या फिर मस्जिदों में महिला द्वारा नमाज पढ़ाने या खुत्बा का अधिकार दिलाने के लिए अदालत जाएंगे? यक्ष प्रश्न यह भी है कि क्या न्यायालय किसी भी धार्मिक अनुष्ठान या परंपरा पर मानवीय कानून के आधार पर निर्णय देने में सक्षम है?

सबरीमाला मंदिर पर हालिया विवाद और उसके परिणामस्वरूप भड़की हिंसा का संबंध उन दो वामपंथ समर्थक महिलाओं- बिंदू (40) और कनकदुर्गा (42) से है जो नववर्ष के प्रारंभ में पहले चोरी छिपे देर रात मंदिर के निकट पहुंचीं और फिर भोर में पुलिस सुरक्षा के साथ पवित्र स्थान तक पहुंच गईं। घटना के सार्वजनिक होते ही प्रदेश में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गया जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई और 1,300 से अधिक प्रदर्शनकारी गिरफ्तार किए गए। एक खास आयु की महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर मुख्य पुजारी द्वारा किए ‘शुद्धिकरण’ के विरुद्ध शीर्ष अदालत में अवमानना की याचिका दाखिल की गई जिस पर संबंधित सभी याचिकाओं के साथ 22 जनवरी को सुनवाई होगी।

यहां बात इन दोनों महिलाओं तक सीमित नहीं है। केरल पुलिस ने एक 46 वर्षीय श्रीलंकाई महिला द्वारा भी दर्शन का दावा किया है जिसका खंडन स्वयं वह महिला कर चुकी है। अदालती निर्णय के बाद से एक समूह बार-बार मंदिर में प्रवेश का प्रयास कर रहा है, जिनमें शायद ही कोई अयप्पा के प्रति सच्ची श्रद्धा रखता हो, क्योंकि वास्तविक श्रद्धालुओं का विश्वास है कि मंदिर में एक खास आयु की महिलाओं के प्रवेश से नैष्ठिक ब्रह्मचारी भगवान अय्यप्पा की तपस्या भंग होती है। परंपरा के अनुसार मंदिर में रजस्वला मुक्त महिला ही प्रवेश कर सकती है। क्या अयप्पा के प्रति भक्ति प्रदर्शन और उनसे जुड़ी परंपरा या शिष्टाचार का उपहास, दोनों साथ-साथ चल सकते हैं? क्या अयप्पा के ‘ब्रह्मचर्य व्रत’ का अपमान करके कोई भक्त उनसे आशीर्वाद की कल्पना कर सकता है?

इस मामले में केरल प्रदेश कांग्रेस समिति का अब तक अयप्पा भक्तों के साथ खड़ा होना वास्तव में पार्टी के मूल गांधीवादी चरित्र के अवशेषों का प्रतिबिंब है। बापू ने सत्य को भगवान श्रीराम में देखा और रामधुन ‘रघुपति राघव राजा राम’ ने उनकी रामराज्य परिकल्पना को आधार दिया। बापू ने सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए तमाम प्रयास किए जिनमें पूना पैक्ट भी शामिल है। अपने जीवनकाल में गांधी जी चर्च और ईसाई मिशनरियों द्वारा मतांतरण के विरुद्ध और गौ-संरक्षण के लिए मुखर रहे।

उन्होंने परिवारवाद को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया। इसके उलट सोनिया गांधी द्वारा सबरीमाला मंदिर की परंपराओं की रक्षा हेतु केरल के अपने सांसदों को प्रदर्शन से रोकना 1969-71 की उस कांग्र्रेस का चित्रण करता है जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में पार्टी ने सत्ता के लिए उस वामपंथी बौद्धिकता को आत्मसात कर लिया था जो वैचारिक कारणों से वैदिक परंपराओं और सनातन संस्कृति से घृणा करती है और मजहब-जाति के नाम पर समाज को बांटती है। कांग्र्रेस नेतृत्व आज भी उसी चिंतन से ग्र्रस्त है जिसमें प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से चर्च और ईसाई मिशनरियों द्वारा मतांतरण के साथ अलगाववादियों और औपनिवेशिक मानसिकता का समर्थन निहित है। व्यक्तिवाद-परिवारवाद को बढ़ावा देने के साथ उनके विमर्श में राष्ट्रवादियों के लिए अपशब्द, सनातन संस्कृति का उपहास और करोडों हिंदुओं के लिए आराध्य गोवंश का सरेआम गला काटकर उसके मांस का सेवन करना भी शामिल है।

विडंबना है कि सबरीमाला मंदिर को लेकर जो कांग्र्रेसी सांसद पार्टी की मूल विचारधारा के अनुरूप चलने का प्रयास कर रहे हैं उन्होंने भी नेहरू-गांधी परिवार द्वारा रोके जाने का प्रतिकार नहीं किया। यदि सोनिया जी सबरीमाला मंदिर में वर्जित आयु की महिलाओं के प्रवेश को आस्था-परंपरा पर कुठाराघात न मानते हुए उसे केवल लैंगिक समानता और महिला अधिकार के रूप में देखती हैं तो क्या यह संभव है कि जो चर्च दशकों से पादरियों द्वारा महिला और बाल यौन-उत्पीड़न के कारण वैश्विक विमर्श में है उस पृष्ठभूमि में सोनिया जी चर्च में महिला पादरियों की नियुक्ति हेतु अभियान छेड़ेंगी?

सबरीमाला प्रकरण में कांग्रेस का दोहरा रवैया-दिल्ली में अलग रुख और केरल में अलग रवैया, केवल इस कटु सत्य को रेखांकित करता है कि भारत के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस के वैचारिक अधिष्ठान का आधार गांधी जी का सनातनी चिंतन न होकर वंशवाद, मार्क्सवादी दर्शन और चर्च के विस्तारवादी एजेंडे का समरूप है।

( लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )