नई दिल्ली [ संजय गुप्त]। संसद के बजट सत्र के दूसरे भाग में दोनों सदनों का कामकाज ठप पड़ा हुआ है। बीता सप्ताह पीएनबी घोटाले और कुछ अन्य मसलों को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच तकरार की भेंट चढ़ गया। पीएनबी घोटाले पर विपक्ष के तीखे तेवर स्वाभाविक हैैं, लेकिन भाजपा को संसद में अपने ही सहयोगी दल तेलुगु देसम पार्टी के विरोध का भी सामना करना पड़ा। इस दल ने एक ओर जहां आंध्र को विशेष दर्जे की मांग पर जोर देने के लिए संसद बाधित की वहीं दूसरी ओर सरकार से बाहर होने का भी फैसला किया। बीते सप्ताह संसद को बाधित करने का काम अन्नाद्रमुक और शिवसेना के सांसदों ने भी किया। अन्नाद्रमुक सांसदों ने कावेरी जल बंटवारे को लेकर हंगामा किया तो शिवसेना के सांसदों ने मराठी भाषा को लेकर। कुछ अन्य दलों के सांसद भी इस हंगामे में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी करते देखे गए।

संसद विचार-विमर्श की जगह है, न कि हंगामे और शोर-शराबे का अड्डा

संसद में शोर-शराबे की राजनीति एक हकीकत बन चुकी है और ऐसा लगता है कि हाल-फिलहाल इससे कोई निजात भी नहीं मिलने वाली। संसद विचार-विमर्श की जगह है, न कि हंगामे और शोर-शराबे का अड्डा। संसदीय प्रणाली में सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों की भूमिकाएं सुस्पष्ट हैैं, लेकिन लगता है कि पिछले कुछ सालों से सत्तापक्ष विपक्ष को साथ लेकर चलने की परंपरा की अनदेखी करने लगा है तो विपक्ष इस नतीजे पर पहुंच गया है कि बात-बात पर हंगामा करना ही बेहतर है, क्योंकि इससे ही ध्यान खींचा जा सकता है। विपक्षी दल हंगामे और शोर-शराबे के जरिये सुर्खियां तो बटोर सकते हैं, लेकिन किसी समस्या के समाधान में सहायक नहीं बन सकते।

लोकसभा अध्यक्ष को भी सदन में बोलने का अवसर नहीं मिल पा रहा है

मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल में कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने ज्यादातर मौकों पर संसद का अच्छा-खासा समय बर्बाद किया है। 2016 में तो पूरा मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया था। तब तर्क यह दिया गया था कि संप्रग के शासनकाल में भाजपा ने भी ऐसा ही किया था। इस तर्क के अपने आधार हो सकते हैं, लेकिन सवाल यह है कि अगर विपक्षी दल इसी सोच के साथ संसद में सक्रिय रहेंगे तो फिर देश का भला कैसे होगा? इस सवाल पर सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों को चिंतित होना चाहिए, क्योंकि खुद लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन को यह कहना पड़ रहा है कि मुझे ही बोलने का अवसर नहीं मिल पा रहा है। उन्होंने यह बात सोनिया गांधी के उस आरोप पर कही जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकार गतिरोध तोड़ने की इच्छुक नहीं और संसद न चलने के लिए सिर्फ वही जिम्मेदार है।

सदन उन्हीं सांसदों को याद करती है जो तर्क के साथ जोरदार बहस करते हैं

अगर इतिहास में जाएं तो पाएंगे कि उन्हीं सांसदों को याद किया जाता है जो तर्क के साथ जोरदार बहस करते थे। ऐसे सांसद अपने अकाट्य तथ्यों-तर्कों के साथ वाक्पटुता से सत्तापक्ष को मुश्किल में भी डालते थे और सुर्खियां भी बटोरते थे। वे तख्तियां दिखाने या फिर नारेबाजी करने के बजाय चुटीली टिप्पणियों का सहारा लेते थे। हंगामा करने वाले सांसदों को कोई नहीं जानता, क्योंकि वे अपना और संसद का समय ही जाया करते रहे। आखिर विपक्ष यह क्यों नहीं सोच पा रहा कि सत्तापक्ष को ठोस तर्कों और आंकड़ों के साथ आईना दिखाना बेहतर है या हंगामा करना? संसद में गंभीर बहस के जरिये ही विपक्षी दल जनता तक अपनी बात प्रभावशाली तरीके से पहुंचा सकते हैैं। भाजपा एक लंबे समय तक विपक्ष में रही और इस दौरान अटल बिहारी वाजपेयी ने विपक्षी नेता के रूप में अपने ओजस्वी भाषण और चुटीले तर्कों के बल पर जो ख्याति अर्जित की वह एक मिसाल है। ऐसी ही ख्याति पीलू मोदी और राममनोहर लोहिया की थी। इन नेताओं की सफलता का कारण था देश-दुनिया की स्थितियों पर उनका गंभीर अध्ययन।

सदन में हंगामें की वजह सत्तापक्ष और विपक्ष की नीतियां जिम्मेदार हैं

यह सही है कि आज भी पक्ष-विपक्ष में ऐसे सांसद हैैं जो गंभीर बहस के साथ विधायी कार्यों में निपुण हैैं, लेकिन धीरे-धीरे उनकी संख्या कम होती जा रही है। अब एक बड़ी संख्या ऐसे जनप्रतिनिधियों की है जो वैचारिक खोखलेपन के शिकार दिखते हैं। नि:संदेह जब सत्तापक्ष अपनी ही चलाना चाहता है तो वह विपक्ष को अपनी आवाज तेज करने के लिए मजबूर कर देता है। एक स्वस्थ और जीवंत लोकतंत्र में सत्तापक्ष को देखना चाहिए कि ऐसे अवसर न आने पाएं जब विपक्ष को हंगामे के लिए मजबूर होना पड़े। दूसरी ओर विपक्ष को भी यह सोचना होगा कि वह अगर हंगामा ही करता रहेगा तो संसद चलेगी कैसे? उसे हर मसले पर अपनी बात रखने का अधिकार है, लेकिन इसके नाम पर वह सत्ताधारी दल के शासन चलाने के अधिकार को चुनौती नहीं दे सकता। जब यह स्पष्ट है कि विपक्ष ज्यादा से ज्यादा मसले उठाने को तैयार रहता है तो उसे पर्याप्त मौके देने के बारे में क्यों नहीं सोचा जाता? क्या कारण है कि जीरो ऑवर एक घंटे तक ही सीमित है? आखिर इसका समय क्यों नहीं बढ़ाया जा सकता?

संसद की कार्यवाही में सुधार होना चाहिए अन्यथा इसकी गरिमा गिरेगी

आजादी के उपरांत पहले आम चुनाव के बाद दशकों तक संसद का संचालन मर्यादित ढंग से चला और वह भी तब जब विपक्ष संख्याबल के मामले में बहुत कमजोर था। विपक्ष के अपेक्षाकृत मजबूत होने के बाद भी संसदीय कामकाज संतोषजनक ढंग से चलता रहा, लेकिन जब वह और मजबूत हुआ तो फिर सदनों में शोर-शराबा बढ़ता गया। कई बार तो हंगामेबाज सांसदों को निलंबित भी किया गया, लेकिन हालात में कोई सुधार नहीं आया। जब कभी सदन की कार्यवाही बाधित करने पर आमादा सांसदों को निलंबित या निष्कासित किया जाता है तो वे इस बेजा आरोप के साथ सामने आ जाते हैैं कि उनका दमन किया जा रहा है। यह चित भी मेरी-पट भी मेरी वाली रणनीति है। अगर संसद की कार्यवाही में सुधार नहीं होता तो न केवल संसद की गरिमा गिरेगी, बल्कि राजनीति में और कटुता भी घुलेगी। यह स्थिति लोकतंत्र के प्रति आम आदमी की आस्था को डिगाने का काम कर सकती है।

सदन में हंगामे को लेकर आचार संहिता निष्प्रभावी साबित हो रही है

बेहतर होगा कि राजनीतिक दल इस पर गंभीरता से विचार करेंं कि संसद के सही तरह से चलने के क्या प्रभावी तौर-तरीके बनाए जाएं? इस बारे में विचार करने का समय आ गया है कि हंगामेबाज सांसदों को कोई ऐसा दंड कैसे दिया जाए जिसका वे किसी भी तरह राजनीतिक लाभ न उठा सकें? इसे लेकर कोई कानून भी बनाया जा सकता है, क्योंकि इस मामले में आचार संहिता तो निष्प्रभावी साबित हो रही है।

संसद में गंभीर चर्चा का स्थान अब उग्रता और एक-दूसरे के प्रति कटुता ने ले लिया है

संसद ज्वलंत मसलों पर विमर्श के लिए तो है ही, विधेयकों के निर्माण के लिए भी है। ये दोनों ही काम अब पहले जितनी गंभीरता के साथ नहीं हो रहे। तमाम महत्वपूर्ण विधेयक बिना किसी खास चर्चा के ही पारित हो जाते हैैं। चूंकि संसद में गंभीर चर्चा का स्थान अनावश्यक उग्रता और एक-दूसरे के प्रति कटुता ने ले लिया है इसलिए उसका बुरा असर समाज पर भी पड़ रहा है और उन युवाओं पर भी जो राजनीति में आगे बढ़ रहे हैैं। वे यह मानकर चलने लगते हैैं कि सदनों में उग्रता दिखाना ही आगे बढ़ने का आसान तरीका है। संसद की कार्यवाही के तौर-तरीकों में सुधार इसलिए आवश्यक हो गए हैैं, क्योंकि संसद में राजनीतिक दलों के आचरण का बहुत बुरा असर विधानसभाओं पर पड़ रहा है। यह ठीक नहीं कि जब संसद को देश को दिशा दिखानी चाहिए तब वह दिशाहीन और ठहरी हुई दिख रही है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]