बिहार, मनोज झा। Citizenship Amendment Bill 2019:  राजनीति में ऐसे कई मौके आते हैं, जब देश और समाज के दीर्घकालिक या बड़े हित को देखते हुए आपको दूसरों के भी किसी वादे के पूरा होने में मददगार बनना पड़ता है। चाहे वह मुद्दा आपके एजेंडे में न भी हो, लेकिन तब आपको सियासी चश्मा उतार व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना पड़ता है। समाज के कमजोर तबके को दस फीसद आरक्षण या फिर जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति ऐसे ही कुछ हालिया मामले हैं। बेशक इन फैसलों की पहल केंद्र सरकार ने की, पर सत्तारूढ़ गठबंधन से बाहर के भी कई दलों ने इनका समर्थन किया।

नागरिकता संशोधन कानून किसी धर्म या पंथ के खिलाफ नहीं

ताजा मामला नागरिकता संशोधन कानून का है। इसे संसद से पारित कराने में राजग से बाहर की भी कई अन्य पार्टियों ने सरकार का साथ दिया। राजग का घटक होने के नाते नीतीश कुमार की अगुआई वाले जनता दल (यू) और चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी ने भी स्वाभाविक रूप से विधेयक के पक्ष में मतदान किया। हालांकि जदयू के अंदर ही विरोध के कुछ स्वर उभर रहे हैं, लेकिन नेतृत्व की ओर से उन्हें संदेश दिया जा रहा है कि विधेयक का समर्थन आनन-फानन नहीं, बल्कि सोचसमझकर किया गया है। पार्टी ने इस नजरिये का समर्थन किया है कि नागरिकता संशोधन कानून किसी धर्म या पंथ के खिलाफ नहीं, देश में वर्षों से रह रहे विदेशी अल्पसंख्यक शरणार्थियों के आंसू पोंछने का प्रयास भर है।

राजद और कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों का विरोध

नागरिकता संशोधन कानून को लेकर बिहार की सियासत में भी दो पाले खिंच गए हैं। एक तरफ सत्तारूढ़ राजग है, जो कानून के समर्थन में है तो दूसरी ओर विपक्ष का महागठबंधन है। राजद और कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों का विरोध तो समझ में आता है, लेकिन सत्तारूढ़ जदयू के अंदर के कुछ विरोधी सुर जरूर चौंका रहे हैं। संसद में इस बिल पर बहस के दौरान जदयू नेता आरसीपी सिंह और ललन सिंह ने अपने वक्तव्य में साफ कहा कि इस कानून के जरिये लंबे समय से भारत में शरणार्थी का जीवन जी रहे लोगों को राहत मिल जाएगी। भला इस बात में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। बावजूद इसके, प्रशांत किशोर जैसे कुछ लोग इस मुद्दे पर पार्टी का लगातार विरोध कर रहे हैं। उन्हें पार्टी की ओर से हिदायतें भी दी जा रही हैं, लेकिन इसका कोई असर फिलहाल दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसे में  सवाल है कि क्या विरोध के बहाने कहीं यह नये सियासी ठौर-ठिकाने की तलाश तो नहीं?

पीके की छवि नेता से ज्यादा चुनावी प्रबंधक की

जाहिर है कि पीके की छवि नेता से ज्यादा चुनावी प्रबंधक की है। वह नारे गढ़ सकते हैं, दलों की आपसी बातचीत में मध्यस्थ बन सकते हैं, लेकिन जहां तक वोटरों के दिल में जगह बनाने की बात है तो फिलहाल जदयू में वह कूवत तो नीतीश कुमार के पास ही है। नीतीश ने यह माद्दा चुनाव-दर- चुनाव दिखाया भी है। बिहार में अगले साल विधानसभा का चुनाव है और तमाम दल अपनी-अपनी पेशबंदियों में जुट गए हैं। इन पेशबंदियों के बीच पीके की निगाह कहां और निशाना कहां है, यह तो वह ही बता सकते हैं, लेकिन इतना साफ है कि उनके तेवर पार्टी के हित में तो कतई नहीं हैं।

बांग्लादेश के लाखों मुस्लिम शरणार्थी बेहतर जीवन की तलाश में भारत आए

पीके सुलझे हुए हैं, इस बात में कोई संदेह नहीं है। ऐसे में यह मानना मुश्किल है कि वह नागरिकता संशोधन कानून के प्रभाव- दुष्प्रभाव से अनभिज्ञ हैं। पीके या उन जैसे अन्य को यह बताना चाहिए कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होकर कौन-सा मुसलमान जान-आबरू बचाते हुए भारत आया हुआ है। कानून के विरोधियों को इसके चंद उदाहरण भी पेश करना चाहिए। यह सभी को पता है कि बांग्लादेश के लाखों मुस्लिम शरणार्थी सिर्फ और सिर्फ बेहतर जीवन-यापन की तलाश में भारत आए हैं। दूसरी ओर हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी आदि अल्पसंख्यक समुदायों के शरणार्थी हैं, जिनका इन तीनों देशों में धार्मिक उत्पीड़न हुआ है। ये अपने देश से जान और इज्जत बचाकर यहां आए हैं।

पाकिस्तान के ईशनिंदा कानून में

पाकिस्तान में गैरइस्लामी समाज की युवतियों का आए दिन अपहरण, दुष्कर्म या जबरन विवाह या फिर ईशनिंदा में सजा देने जैसी घटनाएं इसका जीता-जागता प्रमाण है। कानून का विरोध कर रहे लोगों को ही यह बताना चाहिए इनमें से मदद किन्हें मिलनी चाहिए? क्या उन्हें, जो अपने देश की भ्रष्ट और अपंग व्यवस्था का शिकार होकर रोजी-रोटी की तलाश में यहां आए हैं या फिर उन्हें, जिनका गैर-मुसलमान होना ही अकेला गुनाह है। क्या देश में मौजूद लाखों बांग्लादेशी शरणार्थियों को सिर्फ इसलिए भारत की नागरिकता दे देनी चाहिए, क्योंकि वे वोटबैंक बन सकते हैं। क्या देश के संसाधनों पर उनका भी हमारी तरह बराबर का हक है?

जदयू ने समर्थन कर अपनी सियासी दूरदर्शिता का दिया संदेश

जाहिर है कि विरोध करने वाले इन तमाम सवालों से बचना चाहते हैं। दरअसल, उनके पास जवाब है भी नहीं। चूंकि इस मुद्दे से हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई जैसे शब्द जुड़े हैं, इसलिए इसे सांप्रदायिक बताने में आसानी हो रही है। जबकि यह पूरी तरह से मानवीय और समाजिक मुद्दा है। अभी इसका विरोध राजनीति के लिहाज से तो कइयों के लिए मुफीद हो सकता है, लेकिन जहां तक देश और समाज का सवाल है तो कालांतर में यह नासूर भी बन सकता है। जहां तक जदयू का प्रश्न है तो उसने इस कानून का समर्थन कर अपनी सियासी दूरदर्शिता और परिपक्वता का ही संदेश दिया है। साथ ही यह संदेश भी कि बिहार में राजग की एकता फिलहाल चट्टान की तरह मजबूत है और आगामी चुनावी में विपक्ष को इसी एकजुटता से लोहा लेना पड़ेगा।

[स्थानीय संपादक, बिहार]

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