[ क्षमा शर्मा ]: कुछ साल पहले मैं केरल गई थी। इस दक्षिणी प्रदेश की वह मेरी पहली यात्रा थी। सौ फीसद साक्षरता ने वहां के लोगों में क्या बदलाव किया है, यह देखने की भी उत्सुकता थी। लिहाजा उत्साह होना स्वाभाविक था। उसे ‘गॉड्स ओन कंट्री’ यानी ‘ईश्वर की अपनी भूमि’ भी कहा जाता है, लेकिन वहां लोगों से बातचीत करके बहुत निराशा हुई। मेरे एक वामपंथी मित्र ने कहा कि दूर से चीजें बहुत आकर्षक लगती हैं, मगर यहां कट्टरपंथ लगातार बढ़ता जा रहा है। उनकी बातें सुनकर मेरे उत्साह पर पानी फिर गया। कुछ दिनों पहले एक खबर पढ़ी तो मुझे उस मित्र की बातें याद आ गईं।

केरल में मुस्लिम माता-पिता कट्टरपंथी बच्चों से परेशान

उसमें बताया गया था कि केरल में बहुत से मुस्लिम माता-पिता अपने बच्चों से परेशान हैं, क्योंकि वे बहुत कट्टर हो रहे हैं। वे उस कार में नहीं बैठना चाहते जो कर्ज लेकर ली गई हो। वे उस घर में भी नहीं रहना चाहते जो ऋण लेकर खरीदा गया हो। वे कहते हैं कि ये सब बातें इस्लाम के खिलाफ हैं। यह अकारण नहीं कि केरल में ही पीएफआइ जैसे कट्टरपंथी संगठन बहुत मजबूत हैं। इसी संगठन ने विगत में एक प्रोफेसर के हाथ काट दिए थे। समस्या यह है कि यदि ऐसे संगठनों पर रोक लगा भी दी जाए तो वे दूसरे नामों से अपना काम करने लगते हैं। इन पर रोक लगाने के मुकाबले सोचने की बात तो यह है कि आखिर कट्टरपंथी विचारधारा फैलती कैसे है?

एक कट्टरवादी विचार दूसरे कट्टर विचार को बढ़ाता है

शिक्षा अच्छा मनुष्य बनाने के मुकाबले नफरत करने वाले इंसान में क्यों तब्दील कर रही है? आखिर अपने अधिकार हम नफरत फैलाकर कैसे प्राप्त कर सकते हैं? मिसाल के तौर पर कश्मीर की आंद्रिया असाबी के माता-पिता उदार विचारों के थे। आंद्रिया ने इस्लाम पर एक ब्रिटिश लेखक द्वारा लिखी किताब पढ़ी। फिर वह अपने माता-पिता से झगड़ने लगी कि उन्होंने उसे सच्चे इस्लाम के बारे में कभी क्यों नहीं बताया? इसके बाद उसने ‘दुख्तराने मिल्लत’ बनाया और उसके जरिये अपने उग्र विचारों को जाहिर करती रही। आंद्रिया पुरुष के चार विवाहों की भी प्रबल समर्थक है। दुख की बात है कि ऐसे लोगों को अक्सर हमारे बुद्धिजीवी भटके हुए स्त्री-पुरुष कहकर अनदेखी करने की कोशिश करते हैं। वे कभी उनसे बहस नहीं करते। कभी उन्हें बदलने की कोशिश नहीं करते। हम जानते हैं कि एक कट्टरवादी विचार दूसरे कट्टर विचार को बढ़ाता है। इस तरह वे एक-दूसरे के गहरे मित्र होते हैं। मीडिया ऐसे विचारों को लगातार दिखाता है।

आतंकवाद को पनपाने में पढ़े-लिखे लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं

धर्म को लेकर जहां-जहां भी आतंकवाद पनप रहा है, यह देखकर हैरत होती है कि उसमें पढ़े-लिखे लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। जिन्होंने अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को उड़ाया वे सब खूब पढ़े लिखे थे। यही नहीं आतंक का शायद गरीबी, अमीरी से भी कोई लेनादेना नहीं है। अक्सर बुद्धिजीवी कहते हैं कि शिक्षा से आतंकवाद और उग्र विचारों को दूर किया जा सकता है, मगर लगता है कि ये सब गए जमाने की बातें हो गई हैं। इसके उलट देखने में तो यह आता है कि कई बार पढ़ाई-लिखाई हमें अधिक कुटिल बनाती है। हम अच्छी बातों की भी अपनी सुविधा के हिसाब से गलत व्याख्या करने लगते हैं।

शिक्षा से हम अच्छा मनुष्य बनाने के मुकाबले सिर्फ एकतरफा नजरिये से सोचने वाले बनते हैं

आखिर असम को शेष देश से काटने की वकालत करने वाला और गांधी को फासिस्ट बताने वाला शरजील इमाम भी बहुत पढ़ा-लिखा ही है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आपत्तिजनक नारे लगवाने वाले अनुराग ठाकुर भी खूब पढ़े-लिखे हैं। इन्हें देखकर यही लगता है कि शिक्षा से हम अच्छा मनुष्य बनाने के मुकाबले सिर्फ एकतरफा नजरिये से सोचने वाले बनते हैं।

हिटलर ने पकड़े लोगों को प्रशिक्षित डॉक्टरों से जहर के इंजेक्शन दिलवाए थे

कुछ दिनों पहले फेसबुक पर एक पोस्ट पर नजर पड़ी। उसमें एक ऐसे अध्यापक के बारे में बताया गया था, जो हिटलर के प्रताड़ना शिविर से बच निकला था। उसने बताया था कि हिटलर ने जिन लोगों को पकड़ा था, उन्हें बेहद पढ़े-लिखे और प्रशिक्षित डॉक्टरों ने ही जहर के इंजेक्शन दिए थे। नर्सों ने बच्चों को जान से मार दिया था। मनुष्यों को मारकर उनकी खाल, दांत, हड्डियों से तरह-तरह की चीजें बनाने के लिए पढ़े-लिखे वैज्ञानिकों और इंजीनियर्स ने तरह-तरह के उपकरण विकसित किए थे।

जरूरी नहीं कि शिक्षा हमें अच्छा इंसान बनाए

इस अध्यापक ने निष्कर्ष के रूप में यही कहा था कि जरूरी नहीं कि शिक्षा हमें अच्छा इंसान बनाए, वह मानवीय मूल्यों में हमारी आस्था दृढ़ करे, बल्कि इन दिनों तो यह फैशन भी चल पड़ा है कि जो जितना कट्टरपंथी हो, वह अपनी भाषा में जनवाद, मानवतावाद, धर्मनिरपेक्षता और बराबरी आदि की बातें दूसरे को भ्रम में डालने के लिए लगातार करता रहे।

सियासी दलों की मंशा- कैसे लोगों को असली मुद्दों से भटकाकर धार्मिक मसलों में उलझा दिया जाए

कहने को तो हम यह कहते हैं मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, लेकिन शायद धर्म ही है जो एक को दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने के लिए आपसी मनमुटाव और भेदभाव पैदा करता है। राजनीतिक दल इस भेदभाव का खूब फायदा उठाते हैं। कहना तो यह चाहिए कि अब राजनीतिक दलों में इस बात की चाहत नहीं बची कि लोगों को आगे बढ़ाने का यत्न करें। उन्हें आगे बढ़ने का मार्ग दिखाएं। उनकी तरक्की में सहयोगी बनें, बल्कि उनकी मंशा रहती है कि कैसे लोगों को असली मुद्दों से भटकाकर धार्मिक मसलों में उलझा दिया जाए।

हर कोई अपनी तरह से धर्मों की व्याख्या करता है

चूंकि शिक्षा हमें एक-दूसरे के धर्मों के बारे में शिक्षित नहीं करती, इसीलिए हर कोई अपनी तरह से धर्मों की व्याख्या करता है। इन दिनों जब हर आदमी एक वोट में बदल गया है, तब आदमी को अधिक से अधिक अपने खोल में बंद करके इस्तेमाल किया जा सकता है। शिक्षित होकर भी हम क्यों हजारो साल पीछे लौट जाना चाहते हैं। दिलचस्प यह है कि हजारों साल पुराने विचारों को आज की तकनीक से फैलाया जा रहा है। सुविधाएं और तकनीक आज की हों और विचार सैकड़ों साल पुराना हो तो आखिर दोनों का क्या मेल है।

नफरत, नफरत को बढ़ाती है, इस बात पर क्यों ध्यान नही दिया जाता

सबसे अफसोस की बात यह है कि जो जितनी तल्ख बात कहता है, मीडिया उसी की बात को बार-बार दिखाता है। नफरत, नफरत को बढ़ाती है, इस बात पर क्यों कभी ध्यान नही दिया जाता। सच तो यह है कि इन दिनों धर्मनिरपेक्षता का नाटक बहुत है। सब अपने-अपने वोटों की खातिर धर्म निरपेक्षता का नाटक करते हैं।

( लेखिका साहित्यकार एवं स्तंभकार हैं )