रवि शंकर। संसद के दोनों सदनों में पारित हो चुके तीन कृषि विधेयकों को जहां सरकार कृषि सुधार के लिए क्रांतिकारी बता रही है, वहीं किसान संगठन और विपक्ष इनके खिलाफ है। ऐसे में अहम सवाल यह है कि वर्ष 2022 तक किसानों की आमदनी बढ़ाने का वादा करने वाली केंद्र सरकार के इन विधेयकों का विरोध क्यों हो रहा है? क्यों किसानों को लग रहा है कि सरकार उनकी मंडियों को छीनकर उसे कॉरपोरेट के हाथों करना चाहती है? क्यों किसानों को लगता है कि सरकार का यह कदम किसान विरोधी है।

दरअसल, किसान और व्यापारियों को इन विधेयकों से एपीएमसी मंडियां खत्म होने की आशंका है। किसानों को डर है कि नए कानून के बाद एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर उनके उत्पादों की खरीद नहीं होगी, क्योंकि विधेयक में इस संबंध में कोई व्याख्या नहीं है कि मंडी के बाहर जो खरीद होगी, वह एमएसपी से नीचे के भाव पर नहीं होगी। हालांकि सरकार का इस संबंध में यह कहना है उसने एपीएमसी को नहीं छुआ है और न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था भी पहले की तरह ही जारी रहेगी। लेकिन इस संबंध में हमें शांता कुमार समिति की रिपोर्ट में सुझाई गई सिफारिशों पर भी ध्यान देना होगा, जिसमें अन्य कई तथ्यों के साथ इस बारे में प्रमुखता से कहा गया है कि देश में केवल छह प्रतिशत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिलता है और 94 प्रतिशत किसान खुले बाजार पर निर्भर हैं।

ऐसे में यह विचारणीय है कि यदि खुला बाजार अच्छा होता, तो किसानों की समस्या इतनी क्यों बढ़ती? अगर खुले बाजार में किसानों को उचित मूल्य मिल रहा होता, तो वे भला क्यों न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करते? यह बात बिल्कुल सही है कि कृषि उत्पाद विपणन समिति यानी एपीएमसी मंडियों के साथ कई दिक्कते हैं और किसान इससे खुश भी नहीं हैं। यह विधेयक कहता है कि बड़े कारोबारी सीधे किसानों से उपज खरीद कर सकेंगे, लेकिन ये यह नहीं बताता कि जिन किसानों के पास मोल-भाव करने की क्षमता नहीं है, वे इसका लाभ कैसे उठाएंगे।

सरकार एक राष्ट्र, एक मार्केट बनाने की बात कर रही है, लेकिन उसे यह नहीं पता कि जो किसान अपने जिले में अपनी फसल नहीं बेच पाता है, वह राज्य या दूसरे जिले में कैसे बेच पाएगा। सरकार को इस बात को समझना होगा कि किसानों को हमेशा केवल अपने उत्पाद का उचित दाम को लेकर विरोध-प्रदर्शन रहा है। इसलिए सरकार को ऐसी नीति बनाने पर जोर देना चाहिए जो किसानों को सशक्त बनाने में सक्षम हो।

कोरोना महामारी के दौर में पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है। हमारी अर्थव्यवस्था का हाल भी चिंताजनक है। इस आपदा ने देश में उद्यमों की कमर तोड़ दी है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी कृषि क्षेत्र ही मजबूती से देश की अर्थव्यवस्था को सहारा दे रहा है। क्या इसके बाद सरकारी नीति में कृषि को वरीयता मिलेगी या संकट से बाहर निकल जाने के बाद कृषि के प्रति पहले जैसा ही उपेक्षित नजरिया रहेगा। भारतीय रिजर्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष समेत तमाम आíथक संगठनों की रिपोर्ट के मुताबिक कोविड-19 की चुनौतियों के बीच भारत के लिए कृषि एवं ग्रामीण विकास की अहमियत बढ़ गई है। इसलिए हमें भी किसानों के बारे में सोचना चाहिए।

लॉकडाउन के दौरान जब सबकुछ बंद रहा तो कृषि क्षेत्र ने एक बड़ी आबादी को अपनी तरफ आकर्षति किया, जोकि हाल के वर्षो में खेती छोड़ने वाले किसानों की बड़ी संख्या को देखते हुए असामान्य सा लगता है। लेकिन भविष्य की आजीविका की अनिश्चितता के कारण देशभर में लाखों की संख्या में लोग गांवों की ओर लौटे हैं, जिनमें से अधिकांश कृषि को बतौर आजीविका अपना रहे हैं। ऐसे में हमें इन किसानों के अर्थव्यवस्था में योगदान को देखते हुए इनकी आर्थिक दशा को सुधारने के लिए समग्र प्रयास करना चाहिए। आज किसान जो सवाल उठा रहे हैं, सरकार को उनका जवाब भी देना चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)