[ डॉ. एके वर्मा ]: अंतत: कमल नाथ सरकार ने बहुमत परीक्षण से पहले ही मैदान छोड़ दिया। उनकी सरकार का पतन तभी सुनिश्चित हो गया था जब ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए थे। इस पर कम ही चर्चा हुई कि आखिर योग्य, युवा और प्रतिबद्ध कांग्रेसियों को पाटी क्यों छोड़नी पड़ती है? यह मर्ज आज का नहीं बहुत पुराना है। ओडिशा में बीजू पटनायक, उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह, रीता बहुगुणा जोशी और जगदंबिका पाल, महाराष्ट्र में शरद पवार, बंगाल में ममता बनर्जी, आंध्र में जगन मोहन रेड्डी, तमिलनाडु में जयंती नटराजन, तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव, असम में हेमंत सरमा आदि नेताओं की लंबी सूची है, जो कांग्रेस छोड़ गए।

राष्ट्रीय पार्टी राज्यों में अपने नेताओं को खोती जाए तो उसका जनाधार बचेगा कैसे

प्रश्न यह है कि यदि कोई राष्ट्रीय पार्टी अनेक राज्यों में अपने नेताओं को खोती जाए तो उसका जनाधार बचेगा कैसे? उस पार्टी का अस्तित्व कितने दिन बना रहेगा? क्या इसी का परिणाम नहीं कि कांग्रेस पार्टी धीरे-धीरे कुछ राज्यों में सिमटती जा रही है? क्या वह स्वयं को ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ की ओर नहीं धकेल रही? क्या जिन लोगों ने अपने खून-पसीने से कांग्रेस को खड़ा-बड़ा किया, वे एक व्यक्ति और परिवार के लिए उसे दांव पर लगा देंगे? काफी दोष कांग्रेस के बड़े नेताओं का है। ऐसी कौन सी मजबूरी है, जो किसी भी कांग्रेसी को पार्टी की दुर्दशा पर अपनी आवाज उठाने नहीं देती? पार्टी छोड़ना तो आसन विकल्प है, लेकिन पार्टी के अंदर रह कर पार्टी की कमजोरियों और बुराइयों से लड़ना और उसे सही मार्ग पर ले जाना बहुत कठिन है।

सोनिया और राहुल राज्य स्तर पर भी नेतृत्व को तरजीह नहीं दे पा रहे

कांग्रेस के नेता यह क्यों नहीं सोचते कि सोनिया और राहुल यदि पार्टी को आगे नहीं ले जा पा रहे तो राष्ट्रीय नेतृत्व को कैसे पुनर्परिभाषित किया जाए? वे राज्य स्तर पर भी नेतृत्व को तरजीह नहीं दे पा रहे हैं। क्यों राज्यों के मुख्यमंत्री, अन्य मंत्री या संगठन के पदाधिकारी शीर्ष नेतृत्व की कृपा पर आश्रित होते हैं? क्यों कांग्रेस में आज तक आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो पाई है? क्या यही पार्टी की लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता है? आज वे लोग संगठन के प्रत्येक स्तर पर हावी होते जा रहे हैं जो पार्टी के ‘कुबेर’ या ‘दबंग’ हैं। आम कांग्रेसी तो बिल्कुल हाशिये पर चला गया है। कोई भी राष्ट्रीय पार्टी बिना संगठन और विचारधारा के कैसे अपनी अस्मिता बचा सकती है?

भाजपा में मोदी-शाह हर जगह पार्टी के तारणहार की भूमिका में दिखाई देते हैं

यह संकट केवल कांग्रेस में ही नहीं है। यह भाजपा में भी उतना ही व्याप्त है। आज सिंधिया को लेकर इतना उत्साह क्यों है भाजपा में? क्योंकि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के अलावा कोई कद्दावर नेता दिखाई नहीं देता। ज्योतिरादित्य के आने से पार्टी को युवा नेता मिल रहा है। भाजपा की यही हालत अन्य राज्यों में है। मोदी सरकार के 2014 में सत्ता में आने पर भाजपा में भी नेतृत्व संबंधी गुणात्मक बदलाव दिखाई देता है। राष्ट्रीय स्तर पर सामूहिक नेतृत्व समाप्त सा हो गया है और मोदी-शाह हर जगह पार्टी के तारणहार की भूमिका में दिखाई देते हैं। इससे भाजपा के अधिकतर मंत्री, सांसद, विधायक आदि हाशिये पर चले गए हैं। वे निश्चिंत हैं कि कुछ करें या नहीं, मोदी-शाह तो हैं ही बेड़ा पार करने को। इसी का परिणाम है कि राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और दिल्ली के चुनावों में भाजपा को पराजय मिली।

भाजपा के सांसद या विधायक मोदी सरकार की  ‘मार्केटिंग’ करते दिखाई नहीं देते

मोदी सरकार ने पिछले पांच-छह वर्षों में बहुत कुछ किया है, लेकिन भाजपा के अधिकतर सांसद या विधायक उनकी योजनाओं की ‘मार्केटिंग’ करते दिखाई नहीं देते। अभी हाल में सरकार ने राष्ट्रीय मार्गों पर टोल पर ‘फास्ट-टैग’ की व्यवस्था की, जो अत्यंत सुविधाजनक है जिससे समय, ईंधन और धन की बचत हो रही है। ऐसी ही अनेक योजनाएं हैं, जिनसे जनता लाभान्वित हो रही है, लेकिन राज्य स्तर पर भाजपा नेताओं को उनके संबंध में कोई जनजागृति या विमर्श विकसित करते देखा नहीं जाता। अधिकतर मंत्री, नेता और अफसर आपसी गठजोड़ से भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और उसका खामियाजा मोदी के खाते में जा रहा है।

कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियां नेतृत्व संकट से गुजर रही हैं

कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियां नेतृत्व संकट से गुजर रही हैं। वे नहीं समझ पा रहीं कि दूरगामी राजनीति के लिए प्रत्येक स्तर पर योग्य, जनप्रिय और स्थापित नेतृत्व होना चाहिए, पर नेतृत्व निर्माण के लिए लोकतांत्रिक और संस्थागत स्वरूप तो विकसित करना ही होगा, जिसमें प्रत्येक सदस्य को अपनी योग्यता के अनुसार आगे बढ़ने का अवसर हो। नेतृत्व कोई ऐसी शख्सियत नहीं जो रातों-रात बन जाए, उसके लिए पार्टियों के पास योग्य, जनप्रिय नेताओं की लंबी ‘सप्लाई-लाइन’ होनी चाहिए। राष्ट्रीय, प्रांतीय, शहरी और ग्रामीण स्तर पर क्या कोई भी पार्टी संगठन और युवा नेतृत्व को लेकर गंभीर है?

कोई भी दल अपने सदस्यों को असहमति, आलोचना और आरोप का फर्क नहीं समझाता

जिन दलों के पास युवा, महिला, छात्र आदि के अनुषांगिक संगठन हैं, वे भी उनको संगठनात्मक, विचारधारामूलक, नीतिगत और शासन एवं प्रशासन संबंधी कोई प्रशिक्षण नहीं देते, जिससे उनके द्वारा दिशाविहीन विमर्श में समय नष्ट होता है जो प्राय: आरोप-प्रत्यारोप में बदल जाता है। कोई भी दल अपने सदस्यों को असहमति, आलोचना और आरोप का फर्क नहीं समझाता, जिससे प्रत्येक मंच पर वाद-विवाद का स्वरूप विकृत हो चला है। इस क्रम में वामपंथी दल फिर भी आगे हैं, जिनके पास संगठनात्मक कौशल, वैचारिक दृष्टि और बौद्धिक क्षमता अन्य दलों के मुकाबले बेहतर हैं। इसीलिए किसी भी वाद-विवाद में वे अपना पक्ष मजबूती से रखते हैं, भले ही विचारधारा के स्तर पर उनकी जन-स्वीकार्यता न हो।

भाजपा के लिए जरूरी है कि अपने नेताओं को सम्यक प्रशिक्षण दिलाएं

भाजपा के पास राष्ट्रीय स्तर पर गिने-चुने प्रवक्ता हैं जो तथ्य और तर्क का सहारा लेकर अपना पक्ष रखते हैं, पर नीचे के स्तर पर ज्यादातर नेता भाषा का संयम खो देते हैं। भाजपा के लिए जरूरी है कि अपने नेताओं को सम्यक प्रशिक्षण दिलाए या दक्षिणपंथी रुझान वाले बुद्धिजीवियों को प्रवक्ता बनाए। कांग्रेस को भी यही फॉर्मूला अपनाना चाहिए।

दलों में आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना पर विमर्श होना चाहिए

सिंधिया प्रकरण सभी राजनीतिक दलों को सोचने का अवसर देता है। दलों में गुटबाजी कोई नई बात नहीं। सभी दलों में अनेक गुट होते हैं जो सामाजिक विभिन्नता को प्रर्तिंबबित करते हैं, पर उसके बावजूद दल को कैसे एकजुट रखा जाए और विचारधारा तथा नेतृत्व के प्रति कैसे सबकी निष्ठा बनाई रखी जाए, मंथन इस पर होना चाहिए। विमर्श सिंधिया पर नहीं, वरन दलीय-व्यवस्था और दलों में आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना पर होना चाहिए।

( लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं )