Radical vs Liberalism: जानिए आखिर ईरान की राजनीति में इतना बड़ा बदलाव क्यों हुआ?
Radical vs Liberalism ईरान के चुनावों की खास बात ये थी कि इन चुनावों में कोई राजनीतिक दल नहीं था लेकिन चुनाव लड़ने वाले दो भागों में बंटे हुए थे।
[अशोक श्रीवास्तव]। Radical vs Liberalism: ईरान में हुए हालिया चुनावों में कट्टरपंथियों को बड़ी जीत मिली है। कुल 290 में से 230 सीटों पर कट्टरपंथियों की जीत हुई। सबसे बड़े सूबे तेहरान में तो सभी 30 सीटें कट्टरपंथियों ने कब्जा ली हैं, जबकि 2016 के नतीजे इसके उलट थे, यानी उस वक्त तेहरान की सभी 30 सीटें उदारवादियों ने जीती थीं। ईरान के चुनावों की खास बात ये थी कि इन चुनावों में कोई राजनीतिक दल नहीं था, लेकिन चुनाव लड़ने वाले दो भागों में बंटे हुए थे। एक तरफ कट्टरपंथी थे तो दूसरी तरफ उदारवादी।
राष्ट्रपति हसन रूहानी उदारवादियों की तरफ झुके मध्यमार्गी नेता हैं जो 2013 में उदारवादियों के समर्थन से ही चुनाव जीते थे। वर्ष 2017 में भी उन्हें भारी समर्थन मिला और वो लगातार दूसरी बार राष्ट्रपति चुने गए। लेकिन चूंकि राष्ट्रपति हसन रुहानी ने पिछले साल ही जुलाई में परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और इसके बाद से ही उदारवादी और कट्टरपंथी दोनों कैंपों के बीच संघर्ष बढ़ गया था। कट्टरपंथी, राष्ट्रपति रूहानी की विदेश नीति और ईरान में राजनीतिक सुधारों का विरोध कर रहे थे और उन्हें ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्ला खामनेई का समर्थन मिल रहा था।
फिर इसी साल अमेरिकी हवाई हमले में ईरान की कुर्द फोर्स के प्रमुख जनरल कासिम सुलेमानी की मौत ने भी देश में कट्टरपंथी ताकतों को मजबूत होने का मौका भी दे दिया और बहाना भी। इन सब हालात में हुए चुनावों में उदारवादियों का हश्र यह हुआ है कि वो महज 17 सीटों पर सिमट कर रह गए हैं, जबकि पिछली संसद में उनकी गिनती 120 की थी। तो अब ईरान की नई संसद का चेहरा पिछली संसद से पूरी तरह बदला-बदला होगा। निवर्तमान संसद के 20 प्रतिशत से भी कम सांसद नई संसद में दिखाई देंगे। जब कट्टरपंथियों को इतनी बड़ी जीत मिली है तो ईरान की राजनीति और उसकी कूटनीति में कट्टरपंथियों का दबदबा दिखाई देना स्वाभाविक है। यानी अब ईरान पूरी तरह कट्टरपंथियों के नियंत्रण में है। इससे राष्ट्रपति रूहानी की मुश्किलें बढ़नी भी तय हैं और भविष्य में ईरान में बड़े बदलाव भी देखने को मिलेंगे।
कट्टरपंथ बनाम कट्टरपंथ : आखिर ईरान की राजनीति में इतना बड़ा बदलाव क्यों हुआ? क्या ईरान के लोगों ने उदारवादियों को नकार दिया है? हालांकि चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले बिल्कुल नहीं हैं, लेकिन फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि ईरान के लोगों ने उदारवादियों को ठुकरा दिया है।
दरअसल आयतुल्ला खामनेई को सीधे रिपोर्ट करने वाली 12 सदस्यों की गार्डियन काउंसिल ने जिस तरह उदारवादी खेमों के सात हजार से ज्यादा उम्मीदवारों की दावेदारी खारिज कर दी थी उसके बाद से ही माना जा रहा था कि चुनाव तो कट्टरपंथी ही जीतेंगे। कुल 15 हजार लोगों ने चुनाव लड़ने के लिए आवेदन दिया था। इनमें से 7,296 लोगों को अयोग्य करार दिया गया, तो गार्डियन काउंसिल के इस कदम से 31 प्रांतों की 290 सीटों के चुनाव में ज्यादातर सीटों पर कट्टरपंथी नेताओं के मुकाबले में कट्टरपंथी नेता ही थे।
वैसे तो ईरान की कट्टरपंथी मजहबी संस्था गार्डियन काउंसिल हमेशा से ही नेताओं पर इसी तरह लगाम कसे रहती है और देश की ‘मजहबी लाइन’ से अलग राय रखने वाले नेताओं को आगे नहीं बढ़ने दिया जाता है। लेकिन इस बार खास बात यह रही कि गार्डियन काउंसिल ने ऐसे लोगों को भी संसदीय चुनावों में उतरने नहीं दिया जो पिछले चुनावों में काउंसिल की ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघ कर चुनाव लड़े भी थे और जीते भी थे। लगभग 80 सांसदों को चुनाव लड़ने ही नहीं दिया गया। इसके चलते उदारवादी धड़ों ने चुनावों में कोई दिलचस्पी ही नहीं ली। इतना ही नहीं, 31 में से 22 प्रांतों में उदारवादियों ने किसी भी उम्मीदवार का समर्थन तक नहीं किया।
काफी कम रहा मतदान प्रतिशत : उदारवादी नेताओं को चुनावों से दूर रखने के फैसले ने ईरान के निराशा में घिरे लोगों को और नाउम्मीद कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि ज्यादातर लोग चुनावों में वोट देने के लिए घरों से निकले ही नहीं। 41 साल के इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान के इतिहास में इस बार सबसे कम यानी 42.57 फीसद मतदान हुआ। तेहरान में तो सबसे कम 26.2 फीसद मतदान हुआ, जबकि ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्ला खामनेई ने लोगों से कहा था कि वोट देना उनका धार्मिक कर्तव्य है। लेकिन जब उनकी अपील पर भी लोग मतदान के लिए नहीं निकले तो उन्होंने कहा कि दुश्मनों के दुष्प्रचार और कोरोना वायरस के बढ़ते खतरे के कारण लोग वोटिंग के लिए नहीं निकले। 2016 के पिछले चुनावों में लगभग 61.83 प्रतिशत मतदान हुआ था और 2012 में तो 66 फीसद मतदान हुआ था।
इस बार कम मतदान होने के कारण भी हैं। ऐसे लोगों की तादात बढ़ी है जिन्हें लगता है कि वोट देने से कुछ नहीं बदलेगा। राष्ट्रपति रूहानी से लोगों को जिस खुलेपन और बदलाव की अपेक्षा थी वो पूरे नहीं हुए हैं। दूसरी तरफ ईरान में बेरोजगारी की दर जो 2018 में 14.5 फीसद थी, 2019 में वो बढ़कर 16.8 फीसद हो गई है। लगातार प्रतिबंध झेलने के कारण जीडीपी गिर रही है। आइएमएफ ने 2020 के लिए ईरान में शून्य विकास दर रहने का अनुमान जताया है। नवंबर में सरकार ने पेट्रोल और डीजल के दाम 50 प्रतिशत तक बढ़ा दिए जिसके विरोध में लोग सड़कों पर उतर आए। यहां तक कि प्रदर्शनकारियों को नियंत्रित करने के लिए गोली चलानी पड़ी जिसमें दर्जनों लोगों की जान गई। ऐसे हालात में लोगों को चुनाव से कोई उम्मीद नहीं थी।
राष्ट्रपति चुनावों पर असर की आशंका : इन नतीजों का असर 2021 में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों पर भी पड़ेगा। जानकारों का मानना है कि अब राष्ट्रपति रूहानी के लिए संसद से तालमेल बनाना मुश्किल हो जाएगा और राष्ट्रपति के अगले चुनाव में भी किसी कट्टरपंथी का जीतना तय है। आयतुल्ला खामनेई का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं है, लेकिन चुनावों ने उन्हें इतना मजबूत बना दिया है कि वो सभी अहम पदों पर अपने खास लोगों को आराम से ‘सेट’ कर सकेंगे। जल्द ही उनके उत्तराधिकारी का चयन होगा और इस दौड़ में भी खामनेई के पसंदीदा कट्टरपंथी इब्राहिम रायसी आगे चल रहे हैं।
यह भी आशंका है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव से पहले ईरान परमाणु समझौता भी तोड़ दे और पश्चिम के साथ उसके संबंध और खराब हो सकते हैं। कुल मिला कर ईरान में बदलाव का दौर है और ये बदलाव शुभ संकेत नहीं देते। वैसे भी ईरान में कोरोना वायरस फैलने की जो खबरें आ रही हैं वो भी चिंता बढ़ाने वाली हैं। शायद यही कारण रहा कि ईरान के चुनावों की चर्चा मीडिया में कम हुई और यह चर्चा ज्यादा हुई कि चीन के बाद वो कोरोना से प्रभावित दूसरा बड़ा देश बन गया है। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया में यह तंज भी कसा कि ईरान के चुनावों में कोरोना वायरस की जीत हुई है।
[वरिष्ठ टीवी पत्रकार]
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