नई दिल्ली (पंकज चतुर्वेदी)। देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के इलाके पहली बरसात में ही ठिठक से गए थे। इसके बाद हाल की बारिश ने उन्हें एक तरह की आफत से घेर दिया। दिल्ली और उससे सटे गाजियाबाद, नोएडा, गुड़गांव घुटने-घुटने पानी में डूबते दिखे। इसके पहले देश के अन्य दूसरे शहर भी इसी दशा से दो-चार होते हुए खबरों का हिस्सा बने। इनमें मुंबई के साथ-साथ गुजरात और राजस्थान के भी शहर शामिल हैं। शिवपुरी और गोंडा जैसे छोटे शहर भी बारिश के बाद बाढ़ जैसे हालात से जूझते दिखे।

यह एक विडंबना ही है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे-चौड़े सरकारी अमले पानी के बहाव के समक्ष खुद को असहाय पाते हैं। वे सारा दोष नालों की सफाई न होने, बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं। कभी-कभी वे दूसरे विभागों पर भी दोष मढ़कर कर्तव्य की इतिश्री करते हैं। इसका जवाब कोई नहीं दे पाता कि नालों की सफाई साल भर से क्यों नहीं होती? इसके लिए मई-जून का इंतजार क्यों होता है? जैसे दिल्ली में बने ढेर सारे पुलों के निचले सिरे, अंडरपास और सबवे हल्की बरसात में जलभराव के स्थाई स्थल बन जाते हैं वैसा ही दूसरे अनेक शहरों में होता है। कभी कोई यह जानने का प्रयास नहीं करता कि आखिर इन सबके निर्माण की डिजाइन में कोई कमी है या फिर उनके रखरखाव में? हमारे नीति निर्धारक यूरोप या अमेरिका के किसी ऐसे शहर की सड़क व्यवस्था का अध्ययन करते हैं जहां न तो दिल्ली, मुंबई की तरह मौसम होता है और न ही एक ही सड़क पर विभिन्न तरह के वाहनों का संचालन। इसके साथ ही सड़क, अंडरपास और फ्लाईओवरों की डिजाइन तैयार करने वालों की शिक्षा भी ऐसे ही देशों में लिखी गई किताबों से होती है। नतीजा ‘आधी छोड़ पूरी को जावे, आधी मिले न पूरी पावे’ वाला होता है।

हम अंधाधुंध खर्चा करते हैं, फिर उसके रखरखाव पर लगातार पैसा फूंकते रहते हैं। इसके बावजूद न तो सड़कों पर वाहनों की औसत गति बढ़ती है और न ही जाम से मुक्ति मिलती है। काश कोई स्थानीय मौसम, परिवेश और जरूरतों को ध्यान में रख कर जनता की कमाई को सही दिशा में व्यय करने की भी सोचे। हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उनके तट पर मानव-जीनव फलता-फूलता रहा है, लेकिन बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वहां बस गई। यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृति का परिणाम है कि देश

में शहरों की आबादी बढ़ती जा रही है।

दिल्ली, कोलकाता, पटना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना जलभराव का स्थाई कारण है। नागपुर का सीवर सिस्टम बरसात के जल का बोझ उठाने लायक नहीं है। मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और सीवर की 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। बेंगलुरु में पुराने तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारण माना जाता है। शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्त्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थाई निर्माण को हटाने का करना होगा। महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण हैं। जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे तो फिर खुले नालों से काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं? पॉलीथीन और नष्ट न होने वाले अन्य कचरे की बढ़ती मात्रा सीवरों की दुश्मन है।

महानगरों में सीवरों और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है। यह कार्य किसी जिम्मेदार एजेंसी को सौंपना आवश्यक है, वरना आने वाले दिनों में महानगरों में कई-कई दिनों तक पानी भरने की समस्या सामने आएगी जो यातायात के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा होगा। महानगरों में बाढ़ का मतलब है परिवहन और लोगों काआवागमन ठप होना। जाम के दौरान ईंधन की बर्बादी, प्रदूषण स्तर में वृद्धि जैसे कई दुष्परिणाम होते हैं। इसका स्थाई निदान तलाशने की कोशिश मुश्किल से ही होती है। जल भराव और बाढ़ मानवजन्य समस्याएं हैं और इनका निदान दूरगामी योजनाओं से संभव है, यह बात शहरी नियोजनकर्ताओं को भलीभांति जान लेना चाहिए और उन्हें इसी सिद्धांत पर भविष्य की योजनाएं बनाना चाहिए।