नई दिल्ली [ राजीव मिश्र ]। लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ कराने का विचार फिर खबरों में है। नि:संदेह देश भर में लगातार होने वाले चुनाव भारतीय अर्थव्यवस्था और विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैैं। बार-बार होने वाले चुनाव न केवल मानवीय संसाधनों पर भारी बोझ डालते हैं, बल्कि आदर्श आचार संहिता की घोषणा के कारण विकास प्रक्रिया भी बाधित करते हैैं। इसलिए एक साथ चुनाव के विषय पर बहस जरूरी है। सभी राजनीतिक दलों को इस मुद्दे पर आम सहमति बनाने की आवश्यकता है, लेकिन क्या मामला इतना आसान है? सच्चाई यह है कि एक साथ चुनाव की राह पेचीदगियों से भरी है। इसलिए और भी, क्योंकि मसला राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि से जुड़ा है। साथ-साथ चुनावों का विचार नया नहीं है। 1951-52 में लोकसभा के पहले आम चुनाव के साथ-साथ सभी विधानसभाओं के चुनाव भी कराए गए थे। 1967 के आम चुनाव तक यह परंपरा चलती भी रही, लेकिन 1968 में कुछ विधानसभाओं के समयपूर्व भंग होने के कारण इसमें बाधा आई। दुर्भाग्य से 1970 में लोकसभा भी समय से पहले भंग हो गई। नतीजतन लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग होने लगे।

एक साथ चुनाव होने से सरकारी कोष की बचत होगी

आम चुनाव में दो तरह के खर्चे होते हैं-एक, चुनाव आयोग द्वारा किए गए व्यय और दूसरे, राजनीतिक दलों द्वारा किया गया खर्चा। सरकारी कर्मचारियों की एक बड़ी संख्या को चुनाव संबंधी कार्यों में झोंक दिया जाता है और वे उस समय अपनी नियमित जिम्मेदारियों से हटा दिए जाते हैं। साथ-साथ चुनावों के समर्थन में तर्क यह है कि लोकसभा चुनाव में जितना खर्चा होता है उसी खर्च में विधानसभाओं के भी चुनाव हो जाएंगे और सरकारी राजस्व की काफी बचत होगी। यह सही है कि एक साथ चुनाव होने से सरकारी कोष के पैसे की बचत होगी, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं कि राजनीतिक दलों के खर्च में कोई उल्लेखनीय कमी आएगी। ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि बड़े नेताओं की एक ही रैली में विधानसभा और लोकसभा के प्रत्याशियों का साझा प्रचार हो जाए। इस पूरे प्रकरण का एक दूसरा पहलू भी है और यह है क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के हितों का। कुछ समय पहले किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि एक साथ चुनाव होने से मतदाता के मत देने के व्यवहार पर एक महत्वपूर्ण असर पड़ सकता है। आइडीएफसी संस्थान के एक विश्लेषण के अनुसार औसतन 77 प्रतिशत मतदाता एक साथ चुनाव होने पर एक ही राजनीतिक दल को मत देंगे। इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि एक साथ चुनाव होने की स्थिति में मतदाताओं की नजर राष्ट्रीय मुद्दों और राष्ट्रीय पार्टियों पर ज्यादा रहेगी और राज्यों के मुद्दे गौण हो जाएंगे अथवा उनका सीमित महत्व रह जाएगा।

एक साथ चुनाव होने से क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के हित के खिलाफ

यह स्थिति क्षेत्रीय दलों के हितों के खिलाफ जा सकती है। क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व ही क्षेत्रीय मामलों पर आधारित है। अगर चुनाव में क्षेत्रीय मसले ही गौण हो जाएंगे तो उन्हें वोट किस आधार पर मिलेगा? कांग्रेस और भाजपा के लिए तो एक साथ चुनाव लाभकारी हो सकते हैैं, लेकिन आखिर बाकी क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का क्या होगा? क्षेत्रीय क्षत्रप कहां जाएंगे? हैरत नहीं कि क्षेत्रीय राजनीतिक दल एक साथ चुनाव कराने की अवधारणा के पीछे कोई केंद्रीय सोची-समझी रणनीति देख रहे हैैं? केंद्र और राज्य, दोनों ही संघीय ढांचे के लिए महत्वपूर्ण हैं और अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में बराबर और संप्रभु भी हैं।

लोकसभा-विधानसभा के एक साथ चुनाव संघवाद की अवधारणा पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं

लोकसभा-विधानसभा के एक साथ चुनाव संघवाद की अवधारणा पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाले साबित हो सकते हैैं। इसके अलावा यह सवाल तो है ही कि इसकी क्या गारंटी कि पांच साल के लिए चुनी गई सरकार पांच वर्षों तक बनी रहेगी? क्या विभिन्न दलों द्वारा गठजोड़ करके बनी केंद्र या किसी राज्य की सरकार पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा कर पाएगी? स्वहित की राजनीति के जिस न्यूनतम स्तर पर हम आज हैं ऐसे में इस तरह का प्रयोग क्या व्यावहारिक है? अतीत में ऐसा कई बार हुआ है जब किसी राज्य में बिल्कुल ही कमजोर आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। 1977 में जनता पार्टी ने पहले की कांग्रेसी सरकारों की तरह कई राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया था। कई मामलों में आधार ऐसे थे जिन्हें हास्यास्पद कहा जा सकता है। ऐसे दूसरे उदाहरण भी दिए जा सकते हैं। जैसे-कभी-कभी स्थानीय निकाय राज्यों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण में आ जाते हैं। अगर स्थानीय निकाय विरोधी दलों के कब्जे में है तो राज्य सरकारें समयपूर्व उसे भंग कर देती हैं। संविधान में अविश्वास प्रस्ताव का कोई जिक्र नहीं है। अविश्वास प्रस्ताव का जिक्र ‘लोकसभा के नियम और आचरण’ की किताब के नियम 198 में है जिसमें कहा गया है कि लोकसभा के 50 या अधिक सदस्य अविश्वास प्रस्ताव पेश कर सकते हैं। नियम कहता है कि यदि प्रस्ताव पारित होता है तो सरकार को इस्तीफा देना पड़ेगा और अगर कोई अन्य राजनीतिक दल या गठजोड़ सरकार बनाने में असमर्थ है तो फिर समयपूर्व चुनाव ही एकमात्र विकल्प है। इस तरह की परिस्थितियों से पांच वर्ष में एक बार ही साथ-साथ चुनाव कराने की परिकल्पना कैसे पूरी होगी?

संघीय ढांचे की मजबूती के साथ-साथ राज्य की संप्रभुता भी बनी रहनी चाहिए

इस मामले में एक समाधान की चर्चा यह हो रही है कि अविश्वास प्रस्ताव पास हो जाने की परिस्थिति में मध्यावधि चुनाव से बचने के वैसे ही उपाय किए जा सकते हैैं जैसे कुछ दूसरे देशों ने कर रखे हैैं। 1999 में विधि आयोग ने जिस समाधान की सिफारिश की थी वह दरअसल जर्मन संविधान से लिया गया है। जर्मन संसद में जब एक चांसलर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है तो संसद सदस्य किसी अन्य व्यक्ति के लिए विश्वास प्रस्ताव ला सकते हैं और अगर विश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है तो जर्मन राष्ट्रपति नए चांसलर की नियुक्ति कर सकता है। मुश्किल यह है कि भारत में आज जिस प्रकार की राजनीति हो रही है उसमें विश्वास प्रस्ताव की परिकल्पना एक दिवास्वप्न जैसा ही है। इसके बाद भी एक साथ चुनाव के विचार को सिरे से खारिज करना सही नहीं होगा, लेकिन इसे लागू करने से पहले न केवल संविधान संशोधन की आवश्यकता होगी, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होगा कि संघीय ढांचे की मजबूती के साथ-साथ राज्य की संप्रभुता भी बनी रहे और देश की विविधता, एकता एवं अखंडता भी कमजोर न हो।

[ लेखक एमिटी टीवी के सीईओ एवं संपादक हैं ]