[ डॉ. अश्विनी कुमार ]: जब पूरी मानवता एक आपदा से जूझ रही है तब उससे जुड़े सबक कलमबद्ध करने की कवायद में मेरा ध्यान सबसे पहले प्रकृति के आगे मनुष्य की तुच्छता की ओर जाता है। जब मनुष्य ने पृथ्वी पर आधिपत्य स्थापित करने का दावा किया तब प्रकृति ने हस्तक्षेप कर उसे उसकी हैसियत दिखा दी। कोरोना वायरस के खिलाफ हमारी सामूहिक असमर्थता ने मानवीय क्षमताओं की सीमाओं को लेकर बड़ी-बड़ी दंभी धारणाओं की पोल खोलकर रख दी है। कोरोना वायरस से उपजी कोविड-19 महामारी को लेकर सबक यही है कि प्रकृति के आगे मनुष्य असहाय है और जब प्रकृति सबक सिखाती है तो उसमें पूरी मानव जाति के लिए एक सीख होती है।

महामारी ने वैश्विक व्यवस्था की बुनियाद को लेकर सवाल उठा दिए

सुरक्षा और प्रगति के लिए जिस स्थिर समाज और भविष्य को लेकर निश्चिंतता एक जरूरी शर्त होती है उसके लिए भी कोविड-19 एक और बड़ा सबक है। इस महामारी के चलते जिस रफ्तार के साथ वैश्विक स्तर पर गतिरोध उत्पन्न हुआ है उसने वैश्विक व्यवस्था की बुनियाद को लेकर सवाल उठा दिए हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे हम प्रकृति की व्यवस्था में पर्यावरणीय संतुलन की उन अनिवार्यताओं को याद कर हिल जाते हैं जिन पर कोई तर्क-वितर्क नहीं हो सकता।

कोरोना के चलते मानवीय पीड़ा को विभाजित नहीं किया जा सकता

कोरोना वायरस स्मरण कराता है कि मानवीय पीड़ा को विभाजित नहीं किया जा सकता। यह सभी पर असर दिखाती है और इससे केवल हम अकेले ही जुड़े हुए नहीं हैं। जैसे गरीबी और गरिमा का संबंध है वैसे ही न्याय और संवेदना भी किसी समाज की गुणवत्ता को दर्शाती है। हमने यह बात फिर से सीखी है कि बंधुता, मानवीय निकटता एवं मित्रता अभी भी जीवंत हैं और किसी संकट के समय मानवता की कड़ी और मजबूत होती है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि मानवता के लिए गंभीर खतरा प्रार्थना में हमारे विश्वास को और प्रगाढ़ करता है और एकजुटता के भाव को भी, खासतौर से उस खतरे के खिलाफ जो अपनी चपेट में लेने के लिए कोई भेदभाव न करता हो। अगर मानवता का भाव प्रभावी हो तो किसी महामारी के खिलाफ महायुद्ध में कोई भी तमाशाई बनकर नहीं रह सकता।

संकट की घड़ी में मानवीय कुशलक्षेम को मापने के लिए भौतिक संपन्नता का पैमाना नहीं होना चाहिए

यह त्रासदी हमें स्वयं से यह सवाल करने के लिए भी विवश कर रही है कि क्या हम जीडीपी आंकड़े की धुन में ही लगे रहें या फिर इसके बजाय सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता की राह पकड़ें? नि:संदेह आर्थिक वृद्धि और भौतिक संपन्नता की भी खुशियां बढ़ाने में अपनी भूमिका होती है, पर क्या मानवीय कुशलक्षेम को मापने के लिए यही मुख्य पैमाना होना चाहिए? ज्ञात मानवीय इतिहास में हुई भौतिक प्रगति और व्यापक तकनीकी बदलाव से जो कुछ भी हासिल हुआ वह इस संकट की घड़ी में हमारे कितना काम आ रहा है? इससे हमें साझा भविष्य को लेकर अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए, विशेषकर वैश्वीकरण को लेकर कि क्या यही वैश्विक बदलाव लाने वाली सबसे प्रमुख धारा है।

ताकि उदार लोकतांत्रिक राज्य की बुनियाद सुरक्षित रहे

आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी शक्ति में असमान देश सिर्फ एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना में बहुस्तरीय कदमों के लिहाज से समान रूप से योगदान नहीं कर सकते। हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि वैश्वीकरण का भविष्य इसी बात से निर्धारित होगा कि दुनिया के वंचित वर्गों के लिए इससे क्या हासिल होता है? अगर कुछ हासिल होता है तो भी वैश्वीकरण को लेकर वाजिब पड़ताल इस पहलू पर होनी चाहिए कि राज्य व्यवस्था में अधिकारों के प्रयोग की कवायद में नैतिक दबाव से अनियंत्रित भीमकाय व्यवस्था को कितना प्रोत्साहन दिया जाए? इसके साथ ही हमारे संवैधानिक संस्थानों और वर्षों से उन्हें समृद्ध किए जाने की उस प्रक्रिया को लेकर भी बहस शुरू हो जाएगी जिसमें इन संस्थानों को समय के साथ और समृद्ध किया गया ताकि उदार लोकतांत्रिक राज्य की बुनियाद सुरक्षित रहे। कुल मिलाकर जो त्रासदी हम झेल रहे हैं वह हमें मानवीय कल्पना की सीमाओं का स्मरण कराने के साथ यह भी बता रही कि जीवन वैसे नहीं चलता जैसे हम उसके लिए योजनाएं बनाते हैं।

प्रधानमंत्री देश के मिजाज को समझें और दें सही दिशा

निराशा और अंदेशे के इस दौर में राष्ट्र के नेता होने के नाते प्रधानमंत्री से अपेक्षा है कि वह देश के मिजाज को समझें और उसे सही दिशा प्रदान करें। वह नागरिकों को उन्मुख करें कि वे सरकार द्वारा उठाए गए कदमों को सफल बनाने के लिए अपनी सहभागिता करें।

कोरोना वायरस के चलते पीएम ने वंचित लोगों के लिए भी पर्याप्त कदम उठाए

कोरोना वायरस के संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए उठाए गए कदमों के साथ ही सरकार ने उन वंचित लोगों के लिए भी भरोसेमंद और पर्याप्त कदम उठाए जिनके पास न तो काम-धंधा है और न खाने-पीने के साधन और घर-बार न होने के कारण भावनात्मक असुरक्षा भी। ऐसे में यह जरूरी होगा कि सरकारी फैसलों को लागू करने में लोगों की गरिमा के साथ कोई समझौता नहीं किया जाए।

बेबस लोगों पर सरकारी सख्ती और पुलिसिया बर्ताव देश की आत्मा को छलनी करने वाला है

भूख के खिलाफ बेबस लोगों पर सरकारी सख्ती और पुलिसिया बर्ताव देश की आत्मा को छलनी करने वाला है। स्वतंत्रता एवं गरिमा का आकांक्षी कोई राष्ट्र अपने नागरिकों को यूं ही मरने नहीं दे सकता। हमें यह नहीं भूलना होगा कि जिंदगी की जद्दोजहद में रोजाना उनकी गरिमा को तार-तार किया जाता है। इसका समाधान किसी भी संवैधानिक राज्य के समक्ष एक कड़ी चुनौती है। हमारी सामूहिक गरिमा पर प्रहार का कोई भी प्रयास समूचे राष्ट्र के लिए निंदनीय और साथ ही उसकी आध्यात्मिक विरासत पर भी आघात होगा।

पीएम सुनिश्चित करें कि राष्ट्र हमेशा अपने नागरिकों के लिए तत्पर है

यह समय नेतृत्व के लिए नैतिक साहस और मानवीय गरिमा के आह्वान का है। प्रधानमंत्री का दायित्व है कि वह भारतीय राज्य के समस्त संसाधनों के सदुपयोग से सुनिश्चित करें कि देश के लोगों के जीवन की रक्षा पूरी गरिमा के साथ की जाएगी। हमारे सामाजिक जुड़ाव की अंतर्निहित तार्किकता को भी पुष्ट करना होगा कि राष्ट्र हमेशा अपने नागरिकों के लिए तत्पर है।

मौजूदा माहौल में पूरा देश प्रधानमंत्री के साथ एकजुट है

मौजूदा माहौल में पूरा देश प्रधानमंत्री के साथ एकजुट है। प्रवर्तनकारी राजनीति इस आपदा के समय सबसे सही राष्ट्रीय प्रतिक्रिया होगी। हम जानते हैं कि इतिहास में ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है जो हमें अतीत की व्याख्या, वर्तमान का समाधान और भविष्य का आकलन करना सिखाता हो, पर हम इतनी उम्मीद तो कर सकते हैं कि कोविड-19 के बाद की दुनिया और बेहतर होगी। यह भी आशा है कि नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था अधिक मानवीय हो जिसमें शांति एवं सह-अस्तित्व जैसी अवधारणाएं महज कल्पनालोक के विचार न रह जाएं।

( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं )