नई दिल्ली [अभिषेक कुमार सिंह]। हमारे देश में जितनी तेजी से चिकित्सा के पेशे का व्यापारीकरण हुआ है, उसे देखते हुए दवा और इलाज के मानकों को उन्नत बनाने की जरूरत है। यह जरूरत इसे देखते हुए भी है कि अब तक आम आदमी को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं कराई जा सकी हैं। भले ही सरकार अब आयुष्मान भव: योजना के तहत गरीबों को सेहत का बीमा मुहैया कराने की दिशा में बढ़ रही है, इसके बावजूद सस्ती और उन्नत स्वास्थ्य सेवाएं सबको हासिल नहीं हैं। अभी भी ज्यादा गंभीर संकट इस क्षेत्र में जारी धांधली और अराजकता को रोकने के लिए सक्षम तंत्र का अभाव भी रहा है। इसका एक बड़ा मामला फिक्स डोज कॉम्बीनेशन दवाओं को धड़ल्ले से बिकते पाया जाना है, जिन पर सरकार ने वर्ष 2016 में बैन लगाया था। अब एक बार फिर इन्हें बाजार से बाहर का रास्ता दिखाने की कवायद शुरू हुई है, क्योंकि इधर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर देश के ड्रग कंट्रोलर जनरल ने इनकी जांच के लिए एक कमेटी गठित कर दी है। यह देखते हुए कि दो साल पहले जिन करीब 350 दवाओं को प्रतिबंधित किया गया था, उनका देश के संगठित दवा क्षेत्र में कुल कारोबार करीब 4 हजार करोड़ रुपये का है, यह एक बड़ा मामला बनता है।

वर्ष 2016 में रोक के खिलाफ कई नामी कंपनियां सुप्रीम कोर्ट चली गई थीं और अदालत ने बैन को गलत ठहराया था, लेकिन पाया गया कि दुनिया के कई दूसरे देशों में इन्हें बेचने की इजाजत नहीं है। अमेरिका, जापान, फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन के साथ ही कई देशों में ये दवाएं बेची नहीं जा सकतीं, लेकिन भारत और कुछ अन्य विकासशील देशों के कानून इनके दुष्प्रभावों को जानते हुए भी फार्मा कंपनियों के दबाव के कारण इन्हें रोक नहीं पा रहे हैं। ये असल में वैसी दवाएं हैं, जिन्हें एक से ज्यादा दवाओं के मेल से बनाया जाता है। उदाहरण के लिए, पैरासिटामॉल और एस्प्रिन दो अलग-अलग दवाएं हैं, पर यदि इन्हें मिलाकर कोई नई दवा बनाई जाती है, तो वह फिक्स डोज कॉम्बीनेशन कहलाती है।

वर्ष 2016 में जब स्वास्थ्य मंत्रालय ने तमाम कफ सीरप समेत करीब 350 दवाओं को सेहत के लिए हानिकारक बताया था तो लगा था कि कम से कम सरकार को उस आम आदमी की सेहत की फिक्र है जो सिर्फ विज्ञापनों के जाल में फंसकर केमिस्ट की दुकान से बिना डॉक्टरी पर्चे के मिलने वाली कोई दवा उठा लाता है और कई बार मर्ज के लाइलाज हो जाने तक उसका सेवन करता रहता है। हमारे देश में दशकों तक ऐसी दवाएं बिना किसी बाधा के बिकती रही हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)