विवेक काटजू। कोरोना वायरस से उपजी कोविड-19 महामारी को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ की भूमिका भी संदेह के दायरे में आ गई है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने तो उसकी खुली आलोचना कर डाली है। सवाल उठ रहे हैं कि क्या डब्ल्यूएचओ ने गंभीरता दिखाते हुए पर्याप्त कदम उठाए? क्या उसने चीन से सही सवाल पूछे ताकि इस बीमारी के संभावित खतरे को लेकर कुछ भनक लगती? क्या इस बीमारी को लेकर विश्व को समय से सलाह न दे पाने में नाकाम रहने के लिए उसे जिम्मेदार माना जाना चाहिए?

डब्ल्यूएचओ की स्थापना 1948 में एक अंतर-सरकारी संगठन के रूप में हुई थी। इसका मकसद मानवीय स्वास्थ्य के सभी पहलुओं को सुधारने और बीमारियों की रोकथाम में अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना था। इसे एक निष्पक्ष तकनीकी संगठन के रूप में काम करना चाहिए, लेकिन कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों की तरह यह भी अमीर और ताकतवर देशों के दबावों से प्रभावित होता है। दवा कंपनियों के अलावा मानवीय स्वास्थ्य पर असर डालने वाले अन्य अनेक उद्योगों की लॉबी भी इस पर असर डालती है। डब्ल्यूएचओ का कामकाज एक सचिवालय से चलता है। इसमें तकनीकी और प्रशासनिक सलाहकारों का अमला होता है। ये महानिदेशक के मातहत काम करते हैं। महानिदेशक का चुनाव कार्यकारी बोर्ड की सिफारिश पर सदस्य देशों द्वारा किया जाता है।

किसी भी किस्म की स्वास्थ्य आपदा में डब्ल्यूएचओ से यह अपेक्षा होती है कि वह बिना किसी पक्षपात समय रहते कारगर कदम उठाए। इसमें महानिदेशक की भूमिका बेहद अहम होती है। उसे इससे फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि उसकी निजी पसंद क्या है या उसके मूल देश का इस पर क्या रुख है? मौजूदा महानिदेशक टेड्रोस गेब्रेयसस 2017 में चुने गए थे। इसके पहले वह इथियोपिया के विदेश मंत्री और उससे पहले वहीं के स्वास्थ्य मंत्री थे। उनकी अकादमिक पृष्ठभूमि सार्वजनिक स्वास्थ्य मसलों से जुड़ी है और उन्हें आपदा नियंत्रण का भी अनुभव है। इसे देखते हुए उन्हें तब एकदम सतर्क हो जाना चाहिए था जब 7 जनवरी को चीन ने कोरोना वायरस के फैलने की सूचना दी। इससे एक हफ्ते पहले चीन ने डब्ल्यूएचओ को बताया था कि वुहान शहर में हो रही मौतों की वजह उसे पता नहीं लग पा रही। गेब्रेयसस तब भी सावधान नहीं हुए। क्या वह चीन के प्रभाव में थे जिसने उनके चुने जाने का जबरदस्त समर्थन किया था?

डब्ल्यूएचओ ने 20 जनवरी को कोविड-19 से जुड़ी पहली रिपोर्ट जारी की तब तक कोरोना थाईलैंड, जापान, दक्षिण कोरिया में दस्तक दे चुका था। डब्ल्यूएचओ ने दावा किया कि उसने बदलते घटनाक्रम को देखते हुए खुद को सक्रिय कर दिया था, पर ऐसा लगा नहीं कि वह जरूरी तत्परता दिखा रहा था। 23 जनवरी को चीन ने अपने हूबे प्रांत को लॉकडाउन कर दिया। वुहान इसी प्रांत की राजधानी है। चीन को जब संक्रमण को रोकने का कोई और उपाय नहीं सूझा तब उसने यह कदम उठाया। इससे डब्ल्यूएचओ और एक तरह से दुनिया भर में खतरे की घंटी बज जानी चाहिए थी। ऐसा नहीं हुआ।

हालांकि कुछ देशों ने चीन से आने वाले लोगों की स्क्रीनिंग जरूर शुरू कर दी। हालात का मुआयना करने के लिए टेड्रोस 27 जनवरी को चीन पहुंचे। इस दौरान वह राष्ट्रपति शी चिनफिंग और चीनी स्वास्थ्य विशेषज्ञों से मिले। फिर उन्होंने शी की तारीफों के पुल बांधे और चीन के सख्त कदमों की सराहना करते हुए कहा कि यदि ऐसा न किया जाता तो यह वायरस और खतरनाक तरीके से दुनिया भर में फैलता। तब तक कोरोना 15 देशों में फैल चुका था। फिर भी टेड्रोस ने कहा कि कि कोरोना संक्रमण के नियंत्रण को लेकर चीन दुनिया के आभार और सम्मान का पात्र है।

इस पड़ाव पर चीन का सहयोग बेहद जरूरी था, क्योंकि एक तो वायरस वहीं जन्मा और दूसरे, केवल उसे ही इसके बारे में जानकारी थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। टेड्रोस का रुख भी किसी अंतरराष्ट्रीय संस्था के मुखिया जैसा नहीं था। उनका रवैया तब और संदिग्ध हो गया जब उन्होंने डब्ल्यूएचओ-चीन की संयुक्त टीम पर सहमति जताई, जबकि डब्ल्यूएचओ की टीम को स्वतंत्र रूप से काम करना चाहिए था। आखिरकार 30 जनवरी को डब्ल्यूएचओ ने कोविड-19 को अंतरराष्ट्रीय चिंता वाली स्वास्थ्य आपदा करार दिया। यह एलान पहले ही हो जाना चाहिए था। लापरवाही का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ। 4 से 8 फरवरी के बीच डब्ल्यूएचओ के कार्यकारी बोर्ड की बैठक हुई। वहां 52 सूत्रीय एजेंडे में कोविड-19 को शामिल तक नहीं किया गया।

टेड्रोस ने केवल दो संक्षिप्त ब्रीफिंग की। 7 फरवरी को दूसरी ब्रीफिंग के समय तक कोरोना 24 देशों में फैल चुका था। इसके लिए कार्यकारी बोर्ड के सभी सदस्यों सहित उसके जापानी प्रमुख भी गैर-जिम्मेदार माने जाएंगे जो इस खतरे को भांपकर डब्ल्यूएचओ को सक्रिय नहीं कर पाए। डब्ल्यूएचओ-चीन के विशेषज्ञों की संयुक्त टीम ने 14 से 29 फरवरी के बीच कोविड-19 के मेडिकल एवं तकनीकी पहलुओं का विश्लेषण किया। इसकी रोकथाम के सुझावों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय इन विशेषज्ञों ने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को यह सलाह दी कि वे चीन के साथ अपना संपर्क पुन: जोड़ें, ताकि वहां आर्थिक गतिविधियां फिर से जोर पकड़ सकें। उन्होंने चीन के कदमों का पुरजोर समर्थन किया। चूंकि इसमें शामिल चीनी सदस्य अपनी ही सरकार की आलोचना नहीं कर सकते थे इसलिए इस रिपोर्ट को स्वतंत्र नहीं माना जा सकता था।

कोविड-19 का प्रकोप बढ़ाता रहा, फिर भी डब्ल्यूएचओ उसे वैश्विक महामारी घोषित करने से कतराता रहा। उसने 11 मार्च को यह एलान किया। कुल मिलाकर इस मामले में डब्ल्यूएचओ का रुख उसके उद्देश्यों के उलट रहा। उससे यही अपेक्षा है कि वह किसी जोखिम का स्वतंत्र रूप से आकलन करे, न कि किसी देश का पिछलग्गू बनकर। यहां वह चीन के पिट्ठू के रूप में काम करता दिखा। फिलहाल तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय का पूरा ध्यान कोरोना संकट से निपटने में सहयोग और एकजुटता पर केंद्रित होना चाहिए, लेकिन वह इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि जिस डब्ल्यूएचओ को प्रहरी की भूमिका निभानी थी वह उसमें नाकाम रहा।

(लेखक विदेश मंत्रलय में सचिव रहे हैं)