[ ए. सूर्यप्रकाश ]: मोदी सरकार द्वारा नानाजी देशमुख, प्रणब मुखर्जी और भूपेन हजारिका को भारत रत्न से सम्मानित किए जाने का देशभर में जहां व्यापक रूप से स्वागत हुआ वहीं कुछ स्वर इसके विरोध में भी उभरे हैं। विशेषकर कुछ कांग्रेसी नेता इससे कुपित हैं जो सरकार पर अपने कथित वफादारों को सम्मानित करने का आरोप लगा रहे हैं, लेकिन सच्चाई से परे कुछ नहीं हो सकता। अगर कुछ बातें सामने रखी जाएंगी तो फिर कांग्रेस नेता देश के वास्तविक नायकों के सम्मान को लेकर छिड़ने वाली बहस में मोर्चा छोड़कर भागते नजर आएंगे।

ग्रामीण स्वावलंबन और कृषि सुधारों के लिए नानाजी देशमुख के प्रयास और त्याग की मिसाल मिलनी मुश्किल है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि उन्हें अभी तक देश के सर्वोच्च सम्मान से क्यों नहीं नवाजा गया? भूपेन हजारिका पर भी यही बात लागू होती है, जिन्होंने पूर्वोत्तर भारत और शेष भारत के बीच एक सांस्कृतिक सेतु की तरह काम किया। अपनी कला और संगीत के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीय एकता में अहम योगदान दिया। इसी तरह पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे प्रणब मुखर्जी में प्रधानमंत्री बनने की पूरी काबिलियत थी, लेकिन एक राजनीतिक परिवार की असुरक्षा के चलते उन्हें कम से कम दो बार पीएम नहीं बनने दिया गया। उनके स्थान पर ‘एक्सीडेंटल’ प्रधानमंत्री बनाए गए। हालांकि 2012-17 के दौरान दो अलग-अलग प्रधानमंत्रियों को उन्होंने राष्ट्रपति के रूप में अपना विवेकसम्मत और पक्षपात से मुक्त मूल्यवान मार्गदर्शन दिया।

अब भारत रत्न से जुड़ी असहज करने वाली सच्चाई से भी रूबरू हुआ जाए। यह सम्मान प्रधानमंत्री की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा दिया जाता है। 1954 में इसकी शुरुआत हुई। उसके अगले ही साल प्रधानमंत्री नेहरू ने खुद को भारत रत्न से सम्मानित कर दिया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी 1971 में स्वयं को भारत रत्न से सम्मानित किया। नेहरू और इंदिरा ने भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ. बीआर आंबेडकर, पांच सौ से अधिक रियासतों का विलय कराकर भारतीय संघ की अवधारणा को मूर्त रूप देने वाले सरदार वल्लभभाई पटेल को यह सर्वोच्च सम्मान देने के बारे में नहीं सोचा। जबकि राजीव गांधी को उनकी हत्या के तुरंत बाद जून 1991 में मरणोपरांत भारत रत्न से नवाजा गया।

डॉ. आंबेडकर को वीपी सिंह के नेतृत्व वाली जनता दल की उस सरकार ने भारत रत्न से सम्मानित किया जिसे भाजपा का भी समर्थन हासिल था। आखिर इससे पहले तक उनकी ऐसी अनदेखी क्यों की गई? डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी के अनुसार ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि तब तक कोई भी प्रधानमंत्री नेहरू की परंपरा से उलट कदम उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता था। इसी तरह भारतीय एकता के सूत्रधार सरदार पटेल के राष्ट्र निर्माण में अतुलनीय योगदान को 1991 में गैर-कांग्रेसी चंद्रशेखर सरकार में ही सम्मान मिला। चंद्रशेखर ने सरदार पटेल को मरणोपरांत पुरस्कार देने का फैसला किया। तत्कालीन राष्ट्रपति वेंकटरामण ने अपने संस्मरण में इसका जिक्र किया कि प्रधानमंत्री के इस प्रस्ताव पर वह तुरंत सहमत हो गए। राष्ट्रपति भवन ने जून 1991 में राजीव गांधी के साथ ही सरदार पटेल को भी भारत रत्न देने का एलान किया। इससे पहले चंद्रशेखर ने पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को भी आजादी के आंदोलन में योगदान और राष्ट्रसेवा के लिए भारत रत्न देने का फैसला किया। देसाई की उम्र तब 96 साल थी।

हजारिका को भारत रत्न दिए जाने से वाजपेयी सरकार द्वारा गोपीनाथ बोरदोलोई को सम्मानित किए जाने की यादें ताजा हो गईं। महान देशभक्त बोरदोलोई ने भारत के एकीकरण में सरदार पटेल के साथ मिलकर अहम योगदान दिया। उन्होंने सुनिश्चित किया कि असम के कुछ हिस्सों पर पाकिस्तानी दावा खारिज हो जाए और पूर्वोत्तर का यह अहम राज्य भारत का हिस्सा ही बना रहा। कांग्रेस ने उन्हें कभी इस सम्मान के योग्य नहीं समझा। उन्हें यह सम्मान 1999 में वाजपेयी सरकार ने दिया। एक और महान गांधीवादी, देशभक्त और राष्ट्रीय नायक थे जयप्रकाश नारायण। इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाए जाने के बाद उन्होंने देश में लोकतंत्र बहाली की लंबी लड़ाई लड़ी। उन्हें भी भाजपा सरकार ने 1999 में भारत रत्न से सम्मानित किया।

महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस आजादी के आंदोलन की मशाल थामे हुए थी। मगर नेहरू-गांधी परिवार के दौर में पार्टी संकीर्ण मानसिकता और द्वेष भाव से ग्रस्त हो गई। नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के पास ही 38 वर्षों तक देश की सत्ता रही। उनके अलावा सोनिया गांधी ने भी दस वर्षों तक अप्रत्यक्ष रूप से देश की बागडोर संभाली। वर्ष 1991-96 के दौरान नरसिंह राव सरकार के दौरान भी परिवार अपने राजनीतिक हित साधता रहा। तमाम प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा वाजपेयी को भारत रत्न दिए जाने की मांग किए जाने के बावजूद सोनिया-मनमोहन सिंह उसे अनसुना करते रहे। आखिरकार 2014 में जब कांग्रेस की ऐतिहासिक हार हुई और पार्टी संसद में अपनी न्यूनतम संख्या पर सिमट गई तब वाजपेयी को वह सम्मान मिला जिसके वह वाजिब हकदार थे। दूसरी ओर मोदी सरकार ने इस मामले में संकीर्णता नहीं दिखाई और मदनमोहन मालवीय जैसे कांग्र्रेस के पुराने दिग्गज से लेकर प्रणब मुखर्जी जैसे समकालीन नेता को देश का सर्वोच्च सम्मान दिया।

भारत रत्न का इतिहास यही दर्शाता है कि नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों ने अपने कार्यकाल में ही स्वयं को इस पुरस्कार से सम्मानित किया, लेकिन उन्हें उन तमाम भारतीयों को यह सम्मान देने की सुध नहीं आई जिनमें से कई हस्तियों ने एक सशक्त, स्वतंत्र एवं लोकतांत्रिक भारत के उभार के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनमें डॉ. आंबेडकर, पटेल, मालवीय, जेपी, मोरारजी देसाई और वाजपेयी जैसे तमाम नाम शामिल हैं। जनता ने जब गैर-कांग्रेसी सरकारें चुनीं तभी इन नेताओं को उनका हक मिल पाया। कांग्रेस भले ही विविधता के प्रति समर्पण की बात करती रहे, लेकिन नेहरू-गांधी परिवार ने उन लोगों के अतुल्य योगदान को कभी स्वीकृति नहीं दी जो उसे सियासी रूप से नहीं सुहाए। कांग्रेस के कोश में राजनीतिक-वैचारिक विविधता शामिल नहीं है। वहीं पीएम मोदी और भाजपा ने अपने फैसलों में व्यापक परिपक्वता और उदारता का परिचय दिया है।

अंत में कांग्रेस के उस रवैये पर भी चर्चा की जाए कि उसने चुनावी फायदे के लिए राष्ट्रीय प्रतीकों-पुरस्कारों का कैसे उपयोग किया? इस मामले में फिल्मस्टार से नेता बने एमजी रामचंद्रन की मिसाल लें जिन्हें 1988 में भारत रत्न दिया गया। तब राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस एमजीआर का समर्थन हासिल करने के लिए बेचैन थी ताकि अगले साल चुनाव में लाभ उठाया जा सके। तत्कालीन कैबिनेट सचिव बीजी देशमुख ने अपने संस्मरण में लिखा है, ‘तमाम लोगों ने इसे कांग्रेस का सियासी दांव माना।’ उन्होंने यह भी लिखा कि मरणोपरांत भारत रत्न का विरोध हुआ, क्योंकि इससे एक झड़ी लगने का अंदेशा था। इन सभी दलीलों को चुनावी लाभ के लोभ में खारिज कर दिया गया। ऐसे में भारत रत्न को लेकर हंगामा कर रहे कांग्रेसियों के लिए सबसे बेहतर सलाह यही रहेगी कि वे इस मामले में अपना मुंह बंद ही रखें।

( लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )