[जगमोहन सिंह राजपूत]। लगभग 30 वर्ष पहले भोपाल से 20 किलोमीटर दूरी पर स्थित क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय के प्रशिक्षु अध्यापक एक गांव की हालत समझने के लिए वहां गए। वे मूलत: यह जानने के लिए वहां गए थे कि गांव में किन मूलभूत सुधारों की त्वरित आवश्यकता है और वहां चल रही विभिन्न योजनाओं को कैसे गति दी जा सकती है? जब वे सब गांव पहुंचे तो एक बूढ़ी महिला उनके पास आई। वह ठीक से चल नहीं पा रही थी। उसे बहुत तेज बुखार था और वह बुखार की गोली मांग रही थी। गांव में प्रारंभिक स्वास्थ्य केंद्र तो था मगर वह चलता नहीं था। चूंकि संयोगवश प्रारंभिक चिकित्सा से परिचय और उपयोग का प्रावधान इन प्रशिक्षु अध्यापकों के प्रशिक्षण का भाग था इसलिए वे उस बूढ़ी महिला को बुखार की गोली दे सके। इस प्रसंग के बाद सभी का ध्यान मूलभूत आवश्यकताओं पर केंद्रित हो गया। इसे लेकर जो सार्थक चर्चा शुरू हुई उसमें से निकले अनेक बिंदु पिछले तीन दशकों से मेरा मार्गदर्शन करते चले आ रहे हैं।

उक्त घटना का प्रभाव प्रशिक्षु अध्यापकों पर भी पड़ा। निराशा तब होती है जब आज भी स्थिति में बड़ा बदलाव दिखाई नहीं पड़ता। समझना कठिन है कि सरकारी स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति सुधारने के लिए ईमानदारी एवं कर्मठता से प्रयास क्यों नहीं हो रहे हैं? हर परिवार को सर्वाधिक प्रिय तो बच्चे ही होते हैं। पूरा परिवार उनके भविष्य निर्माण के लिए परिश्रम करता है और उनकी चिंता करने के क्रम में सबसे पहले अच्छे स्कूल की ओर देखता है। आज देश के 65 फीसद लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजते हैं। 40-50 साल पहले वे खुशी-खुशी भेजते थे। अब मजबूरी में भेजते हैं, क्योंकि वे यह देखते हैं कि अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा ही अच्छी मानी जाती है और वह केवल अधिक फीस देने वाले स्कूलों में ही उपलब्ध है। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की फीस देना अधिकांश परिवारों के लिए संभव नहीं है। बेहतर शिक्षा के लिए बेहतर स्वास्थ्य और पोषण आवश्यक है और इसे अब सभी अच्छी तरह समझते भी हैं। दुर्भाग्य से आज भी सरकारी तंत्र स्कूल और स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर जनमानस में अपनी साख बना नहीं पाया है।

देश के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न संस्थाओं में कार्य करने के कारण मेरा यह मानना है कि सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार केवल नई योजनाओं अथवा सरकारी अधिकारियों की संख्या बढ़ाकर संभव नहीं है। कुछ बड़े साहसिक निर्णयों की आवश्यकता है। सबसे पहले प्राचीन भारत की परंपरा के तहत विद्या प्राप्ति के चार तत्वों को समझाना चाहिए। ये चार तत्व हैं-अध्ययन, मनन, चिंतन और उपयोग। उस ज्ञान का कोई महत्व नहीं जिसके उपयोग के संबंध में सिखाने वाला ही अनभिज्ञ हो। इसी तरह उस शिक्षा का कोई उपयोग नहीं है जो व्यक्ति की मनन और चिंतन शक्ति को प्रखरता न प्रदान करे। जिस शोध एवं नवाचार में सर्वजन कल्याण का लक्ष्य निहित न हो वह केवल लाभांश कमाने के लिए उठाया गया कदम बन कर रह जाता है। सर्वभूत हिते रत: की परंपरा वाली प्राचीन भारत की संस्कृति से अपरिचित व्यक्ति ही केवल अपने संबंध में सोचेगा।

नदियों के किनारे उद्योग लगाकर उन्हें लगातार प्रदूषित कर रहे लोग भ्रष्ट व्यवस्था को धन देकर पर्यावरण नियमों के पालन का प्रमाणपत्र भले ही ले लें वे आने वाली पीढ़ियों के प्रति अन्याय कर रहे होते हैं। इनमें उनकी अपनी पीढ़ियां भी शामिल होती हैं। सेक्युलरिज्म के नाम पर नई पीढ़ी को शिक्षा प्राप्ति के दौरान प्राचीन भारतीय संस्कृति से अपरिचित रखने से बाज आना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। प्रत्येक देश शिक्षा में गतिशीलता बनाए रखने के लिए लगातार प्रयत्नशील रहता है। वह नए को स्वीकार करता है मगर अपनी संस्कृति से संबंध भी बनाए रखता है। भारत में फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली को लागू करने का सपना देखने के स्थान पर हमें चीन के व्यावहारिकता से भरे क्रियान्वयन से सबक लेना चाहिए, जहां स्कूली शिक्षा में समुदाय और सरकार, दोनों की भागीदारी तय है।

प्रारंभिक शिक्षा नि:शुल्क प्रदान करना सरकारों का उत्तरदायित्व है मगर इसका यह अर्थ कतई नहीं कि समाज इसकी सफलता की चिंता न करे। यह एक तथ्य है कि अपने देश में सामाजिक सहयोग के अभाव में अनेक प्रयास असफल हो गए हैं। पंचायतों को अध्यापक नियुक्तकरने का अधिकार है, लेकिन इस अधिकार का दुरुपयोग हो रहा है। अधिकांश नियुक्तियां पक्षपात और भ्रष्टाचार की कहानी कह रही हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि आम लोगों ने अपना सामाजिक और सामूहिक उत्तरदायित्व नहीं निभाया। यदि कोई राज्य सरकार किसी विभाग में 22 हजार सरकारी नियुक्तियों में से 18 हजार पर एक ही जाति के लोगों को नियुक्त करे तो इसका असर सब पर पड़ेगा। इसका दुष्परिणाम देश के भविष्य पर भी पड़ेगा। जब राज्यों के लोक सवा आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्तियों को न्यायपालिका कई बार निरस्त करे तो युवा पीढ़ी का व्यवस्था पर विश्वास डगमगाता है और चारों ओर निराशाहताशा फैलती है।

सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को मुख्य रूप से सरकारी स्कूलों की गिरती साख के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है मगर यह भुला दिया जाता है कि वे किन कठिन परिस्थितियों में कार्य करते है? यदि जिला स्तर के शिक्षा अधिकारी अध्यापकों के स्थानांतरण के लिए एक तय राशि लेने के लिए ही जाने जाते हों तो सरकारी स्कूलों में सुधार कैसे संभव होंगे? हाल में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने अपने व्यवहार से यह स्पष्ट किया कि इस देश में राजनेता अध्यापकों का कितना सम्मान करते हैं? उन्होंने उन सबका प्रतिनिधित्व किया जो महिलाओं का असम्मान करने में हिचकते नहीं। यदि ऐसी घटना फिनलैंड या नार्वे जैसे किसी देश में होती तो 24 घंटे के अंदर नेताश्री अपने घर चले गए होते और उनका नाम राजनीति में सुनाई नहीं देता। आखिर उस मुख्य सचिव का क्या जिसने अध्यापिका को मुअत्तल कर दिया? नौकरशाहों से यही अपेक्षा की जाती है कि वे नियमों का पालन करेंगे और जहां भी उन्हें नियमों के विरुद्ध जाने को कहा जाएगा वे कम से कम अपनी राय फाइल पर स्पष्ट लिखें।

अब किसी को ऐसे प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है कि जिला या ब्लाक स्तर पर अध्यापकों से कैसा व्यवहार किया जाता है? सुधार संभव है यदि नेता और नौकरशाह अपने कर्तव्य ढंग से निभाएं। यदि किसी क्षेत्र के विधायक और सांसद अपनी जन निष्ठा और ईमानदारी के लिए जाने जाते हों और वे शिक्षा सुधार में रुचि लेते हों तो सरकारी अधिकारी कोई दुस्साहस नहीं कर पाएंगे। संवेदनहीन नौकरशाहों और नेताओं के कारण कई अध्यापक 25-25 वर्ष तक दुर्गम क्षेत्र में रहने को मजबूर हैं। इसके विपरीत कितने ही रसूख वाले अपना लगभग सारा सेवाकाल राजधानी या बडे शहरों में ही संपन्न कर लेते हैं। यदि केंद्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों में नियमानुसार तय अवधि के बाद स्थानांतरण हो सकते हैं तो उत्तराखंड में क्यों नहीं? जो देश अपनी शिक्षा व्यवस्था को प्राथमिकता न देता हो और जो अपने अध्यापकों पर भरोसा न करता हो वह सुनहरे भविष्य की संकल्पना केवल सपनों में ही कर सकता है।

(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक है)