प्रदीप सिंह

कौआ कान ले गया कहावत तो सुनी ही होगी। लोग अपना कान देखने की जहमत उठाने के बजाय कौवे के पीछे दौड़ पड़ने का काम करते ही रहते हैैं। बाकी कोई ऐसा करे तो करे, लेकिन जब पत्रकार/बुद्धिजीवी ऐसा करने लगें तो मानना चाहिए कि कुछ गड़बड़ है और समस्या गंभीर है। तर्क, बुद्धि और समझदारी यह कहती है कि कान की सलामती या गैर सलामती सुनिश्चित करने के बाद ही कोई कदम उठाएं, पर तय मानिए कि जब स्वार्थ हावी हो जाए तो ऐसा नहीं होगा। इसे यों भी कह सकते हैं कि जब स्वार्थ के चलते झूठ को को सत्य के रूप में पेश करने आदत बन जाए तो बलि सत्य की ही चढ़ेगी। सस्पेंस बढ़ाने की बजाय बता दें कि बात न्यायाधीश बृजमोहन हरिकिशन लोया की मौत और उससे जुड़े विवाद की हो रही है। जज लोया की मौत नागपुर में एक दिसंबर 2014 को हृदयगति रुकने के कारण हुई। वह सोहराबुद्दीन हत्याकांड की सुनवाई कर रहे थे। न्यायाधीश लोया एक साथी न्यायाधीश की बेटी की शादी में शरीक होने नागपुर गए थे। उनकी मौत को लेकर अब तक कोई विवाद नहीं था, पर कुछ दिनों पहले एक अंग्रेजी पत्रिका में उनकी बहन और उनके पिता के हवाले से छपा कि न्यायाधीश लोया की मौत संदेहजनक परिस्थितियों में हुई। इस खबर में ऐसी कई बातें कही गई थीं जिनका मकसद यही साबित करना अधिक था कि जज लोया की मौत स्वाभाविक नहीं थी। इस खबर के छपते ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, कांग्रेस, वामदलों के कुछ नेता और दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एपी शाह ने जांच की मांग कर दी। वकील प्रशांत भूषण ऐसे हर मौके की तलाश में रहते ही हैं। इसके बाद फिर क्या था? दिल्ली के लेफ्ट लिबरल मीडिया ने इस खबर की कोई तफ्तीश या तस्दीक किए बिना उसे हाथों हाथ उठा लिया। उसने यह काम न्यायाधीश लोया या उनके परिवार से सहानुभूति के चलते नहीं उठाया। उनकी इस बिना विचारे अति सक्रियता का एकमात्र कारण यह था कि लोया जिस मामले की सुनवाई कर रहे थे उसमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ भी आरोप था, जिससे वह बरी हो चुके हैैंं।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के खिलाफ कुछ भी मिले तो मीडिया और बुद्धिजीवियों के इस वर्ग के लिए सत्य और तथ्य पीछे चले जाते हैैं। उनके लिए कही-सुनी बात भी पत्थर की लकीर बन जाती है। दरअसल अंग्रेजी पत्रिका की खबर और जांच की मांग पर राष्ट्रीय विमर्श खड़ा करने की जी तोड़ कोशिश इसीलिए हुई। मान लिया गया कि न्यायिक व्यवस्था पर भारी खतरा आ गया है। जजों की जान मुश्किल में हैै और जो लोग इस खबर पर मौन हैं वे या तो बिके हुए हैं या फिर डरे हुए। एक चैनल के एंकर महोदय हैैं जिन्हें पिछले कुछ सालों से यह मुगालता हो गया है कि उनके अलावा सब पत्रकार बिकाऊ हैं और भारत में निर्भीक एवं स्वतंत्र पत्रकारिता का सारा बोझ उन्हीं के कंधों पर टिका है। उन्होंने अंग्रेजी पत्रिका की खबर पर ऐसी कहानी गढ़ी कि ‘सच्ची कहानियों’ के लेखक भी दांतों तले उंगली दबा लें। उनके मुताबिक, ‘‘एक रिपोर्टर ने बहुत मुश्किल से एक जज की मौत से धूल की परत हटाकर रिपोर्ट छापी है। यह दिल्ली उसे बर्फ की सिल्ली में दबा देना चाहती है। पहाड़ों पर जितनी बर्फ नहीं गिरी उससे अधिक दिल्ली में सत्ता के गलियारे में गिर रही है। रिपोर्ट पढ़ने वालों की सांसें जम जाती हैैं और इसे तो रात को रजाई के अंदर टार्च की रोशनी में पढ़ना चाहिए।’’ आखिर इसे अतिशयोक्ति और आत्मश्लाघा की पराकाष्ठा के अलावा और क्या कहा जा सकता है? यह सब चल ही रहा था कि एक अंग्रेजी दैनिक ने इस मामले की पड़ताल और उस रात नागपुर के उस अस्पताल में मौजूद न्यायाधीश लोया के दो साथी न्यायाधीशों(जो चश्मदीद हैं) से बातचीत के आधार पर बताया कि पत्रिका में दिए गए तथ्य निराधार हैं। एक अन्य अंग्रेजी दैनिक के अनुसार, न्यायाधीश लोया के पुत्र ने इसी मंगलवार को मुंबई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से मिलकर उन्हें एक पत्र दिया कि उन्हें अपने पिता की मौत की परिस्थितियों पर न तो कोई शुबहा है और न ही शिकायत। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें अपने पिता के साथी जजों की बातों पर भरोसा है जो उस रात वहां मौजूद थे। उसके बाद से सन्नाटा पसरा है। पता नहीं दिल्ली में गिरी बर्फ की सिल्लियों का क्या हुआ, लेकिन तथाकथित पत्रकारिता के इस रूप का यह न तो पहला उदाहरण है और न ही आखिरी। यह सिलसिला पिछले 15 सालों से चल रहा है। जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आएगा, इसमें और तेजी आएगी।
मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने एक दूसरे संदर्भ में फिलासफर किंग की व्याख्या की थी। बुद्धिजीवियों का यह वर्ग परसाई के उसी फिलासफर किंग की तरह ही है। परसाई ने लिखा था, ‘फिलासफर किंग की एक ताकत होती है जो तर्क और यथार्थ से आगे होती है। वह है फिलासफर किंग की अदा। जनता (यहां पाठक और दर्शक समझें) अदा पर मरती है।’ आगे उन्होंने लिखा है, ‘और कभी-कभी ऐसा भी वक्त आता है जब अदा काम नहीं करती।’ पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के इस वर्ग की खासियत है कि इनके न्याय के दो रूप होते हैैं-एक दूसरे के लिए, दूसरा अपने लिए। इनके खिलाफ आरोप लगे तो आरोप लगाने से पहले ही आप सारे सुबूत दे दीजिए और साबित कर दीजिए तब सोचेंगे कि आरोप बनता है कि नहीं? और आपने सुबूत दे दिए तो जवाबी हमले का सबसे धारदार अस्त्र तैयार है कि यह बोलने की आजादी/मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला है। दूसरों पर इनका आरोप लगाना ही आरोप को सिद्ध होना मान लिया जाना चाहिए। इन्हीं हथकंडों से इनके झूठ का कारवां चलता रहता है। कोई कमी रह जाती है तो भक्त लोग अपने व्यवहार और कथन से उसकी भरपाई कर देते हैं। इनकी सबसे बड़ी कला है, इनका समवेत स्वर में बोलना। बिना तथ्यों के भी ये इतना बड़ा विमर्श खड़ा कर देंगें कि जिसे विषय और तथ्यों की जानकारी नहीं है उसे लगने लगेगा कि कुछ तो होगा ही। इसी कला का प्रदर्शन जज लोया की मौत के मामले में किया गया।
इनकी बड़ी समस्या है कि नरेंद्र मोदी को आम मतदाताओं ने चुनकर भेजा है। लाखों लोगों की हत्या करवाने वाले लेफ्ट लिबरल्स माओ और स्टालिन की फोटो का बैज सीने पर लगाने या उनके चित्र घर में टांगने में गर्व महसूस करते हैं, पर मोदी को डिक्टेटर बताते हैं। ये मानते हैैं कि मोदी का विरोध नहीं होना चाहिए, बल्कि मोदी से नफरत की जानी चाहिए। मोदी से नफरत का मतलब उनसे जुड़े सभी लोगों से नफरत। उनकी यह नफरत उन्हें या तो सच्चाई देखने नहीं देती या ये लोग सच्चाई को देखकर अनदेखा करते हैं। इन्हें उत्तर प्रदेश के मतदाताओं से बड़ी उम्मीद थी। वहां से निराश होने के बाद अब सारी उम्मीदें गुजरातियों पर टिकी हैं। यदि गुजरातियों ने निराश किया तो जवाब तैयार है कि हम जानते थे कि गुजराती सांप्रदायिक हैं।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]