राजीव मिश्र

कितना दुखद है कि कोसीवासी आज फिर उसी तिराहे पर खड़े हैं जहां तकरीबन सत्तर साल पहले थे। तब यह बहस हुआ करती थी कि आखिर इस कोसी नदी का क्या उपाय किया जाए? क्या बराज और तटबंध के जरिये कोसी को काबू में किया जा सकता है? पता नहीं क्यों हम आज भी श्रापित हैं और मानसून में बाढ़ का दंश हर बार झेलते हैं। आज फिर बिहार तीव्र वर्षा के दुष्प्रभाव से निपटने के लिए संघर्ष कर रहा है। बाढ़ के इस वार्षिक दुष्चक्र से हम कब तक जूझते रहेंगे? सरकार, बचाव और राहत कार्य की तैयारी में हमेशा पीछे क्यों रह जाती है? तत्काल राहत शिविर स्थापित करने, स्वास्थ्य की बुनियादी सहायता और सूखा राशन और दवाओं के भंडारण के प्रति सरकार गंभीर क्यों नहीं रहती और समय रहते ही इस तरफ ध्यान क्यों नहीं देती है? यह समझ से परे है।
बाढ़ प्रबंधन के लिए न सिर्फ एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है, बल्कि नदियों के ‘पैटर्न’ की अच्छी समझ के साथ-साथ उसके बहाव की दिशा में हो रहे बदलाव पर पैनी नजर रखना भी उतना जरूरी है। बाढ़ की पूर्व सूचना के लिए सिर्फ उपग्रह या भौगोलिक सूचना प्रणाली पर निर्भर रहने के बजाय, भू-स्तरीय सर्वेक्षणों और वास्तविक घटनाओं की जमीनी रिपोर्टिंग का गहन प्रयोग भी आवश्यक है। कोसी के ‘पैटर्न’ और बहाव की दिशा में बदलाव ने समस्या की जटिलता में वृद्धि की है और इसलिए कोसी नदी पर गहरे अनुसंधान की आवश्यकता है। इसके पूरे ‘पैटर्न’ को गहराई से समझने की जरूरत है तभी हम इस पूरे क्षेत्र के लिए एक रक्षात्मक बुनियादी सुरक्षा ढांचे के निर्माण के साथ-साथ, आपातकालीन परिस्थिति में बचाव कार्य में व्यावहारिकता और कार्यकुशलता में व्यापक सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं। कोसी नदी को हम बिहार के एक श्राप की तरह कब तक झेलते रहें? इस बार भी बिहार में भीषण बाढ़ ने जिस तरह का कहर ढाया है और दिनोदिन इसके और भयावह होने की आशंका है, उसने हमारे आपदा प्रबंधन तंत्र की पोल खोलकर रख दी है। आपदा प्रबंधन के संपूर्ण तंत्र और उसके क्रियान्वयन के दावों की पड़ताल यदि कोसी की विनाशलीला को ध्यान में रखकर की जाए तो इनके नौसिखियेपन का सारा सच सामने आ जाएगा। आपदा प्रबंधन से जुड़ा सूचना और संचार तंत्र न तो समय पर राहत कार्यों की शुरुआत करा सका है और न ही आपदा के मूल कारण के संदर्भ में त्वरित विश्लेषण ही जारी कर सका है। यह सही है कि बिहार सरकार ने कोसी की धारा को उसके मूल प्रवाह मार्ग पर ले जाने के लिए एक पायलट प्रोजेक्ट यानी प्रायोगिक परियोजना बनाई है, लेकिन उस पर अभी तक काम क्या हुआ है? इसके पीछे किस तरह के अनुसंधान किए गए हैं और यह कितना प्रभावी हो पाएगा, कहना कठिन है। संयुक्त राष्ट्र और इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की ओर से कई बार चेतावनी दी गई है और बताया गया है कि हमें आने वाले कुछ दशकों में बाढ़, सूखा, चक्रवाती तूफान, भूकंप आदि आपदाओं व तद्जनित महामारियों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
पायलट प्रोजेक्ट बनाने से पहले व्यापक अनुसंधान की आवश्यकता इसलिए भी है, क्योंकि कोसी दुनिया की सबसे विनाशकारी नदियों में से एक है। यह सिर्फ पानी से भरी नदी ही नहीं हैं, बल्कि हिमालय से बंगाल की खाड़ी तक की एक विशाल कन्वेयर बेल्ट है। हर साल कई करोड़ क्यूबिक मीटर बजरी रेत और मिट्टी नेपाल से कोसी द्वारा बहाकर लाई जाती है। यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तैमोर, अरून, सरयू और कोसी नदियों द्वारा लाए गए इन मलबों को सुदूर पूर्व में कंचनजंगा, मकालू और एवरेस्ट से होते हुए पश्चिम में चतरा के संकरे रास्ते से गुजरना पड़ता है। और जैसे ही तराई के मैदानों पर नदी धीमी होती है मलबा बिछ जाता है जिससे नदी का तल बढ़ जाता है और नदी अपने तट तोड़ कर अतिप्रवाह के लिए मजबूर हो जाती है। इसी वजह से विशेषज्ञों ने बार-बार सप्तकोसी बहुउद्देशीय परियोजना को अमली जामा पहनाए जाने और कोसी नदी पर बने बांध के रखरखाव के लिए नई तकनीक के इस्तेमाल की वकालत की है। भारत और नेपाल के बीच 2004 में ही सप्तकोसी बहुउद्देशीय परियोजना के तहत चार सदस्यीय भारतीय दल का गठन किया गया था और इस परियोजना की व्यवहार्यता रिपोर्ट तैयार की गई थी। इसमें सप्तकोसी पर ऊंचे बांध के निर्माण की बात कही गई थी, जिसकी ऊंचाई तजाकिस्तान में बख्श नदी पर विश्व के सबसे ऊंचे रोंगन बांध के बराबर 335 मीटर निर्धारित की गई थी। इसके अलावा कोसी की सात सहायक नदियों में शामिल सुनकोसी नदी पर भी बांध बनाया जाना था और नेपाल के ओखलाधुंगा क्षेत्र में सुनकोसी से नहर निकाल कर उसे मध्य नेपाल के रास्ते कमला नदी से जोड़ा जाना था। सच्चाई यही है कि यह कवायद अभी तक पूरी नहीं की जा सकी है। नि:संदेह बिहार में हर साल आने वाली बाढ़ से निजात पाने का रास्ता कोसी नदी पर ऊंचा बांध बनाना ही है। सप्तकोसी नेपाल की सबसे बड़ी नदी है जिससे सूखे मौसम में औसतन एक लाख पचास हजार क्यूसेक जल प्रवाह होता है। मानसून के दौरान यह बढ़कर चार लाख क्यूसेक हो जाता है।
पिछले महीने भारत-नेपाल के बीच सप्तकोसी परियोजना पर 15वीं बैठक हुई और परियोजना को फिर तीस महीने की अवधि के लिए बढ़ा दिया गया। क्या यह हास्यास्पद नहीं है? 2004 में नेपाल के विराटनगर में संयुक्त परियोजना का कार्यालय स्थापित किया गया था। भारत-नेपाल के संयुक्त विशेषज्ञ दल की मार्च 2001 में हुई बैठक में संसाधन जुटाने के लिए तीन माह, अन्वेषण के लिए 16 माह व विस्तृत परियोजना प्रतिवेदन तैयार करने के लिए नौ माह अर्थात कुल 30 महीने की अवधि निर्धारित की गई थी, किंतु सोलह वर्षों के बाद भी कार्य नगण्य है। क्या भारत-नेपाल संयुक्त मंत्रिस्तरीय आयोग की बैठक में दोनों देशों के प्रतिनिधियों के बीच इस दिशा में खुलकर बातें नहीं की जा सकतीं? बहुउद्देशीय परियोजना के तहत नेपाल में हाई डैम का निर्माण कार्य होना था। कार्य में गति लाने के लिए संयुक्त परियोजना कार्यालय को अधिकाधिक वित्तीय अधिकार दिए जाने की आवश्यकता जताई गई थी, फिर मामला क्यों अटक गया, यह समझ में नहीं आता। दूसरी तरफ बाढ़ की समस्या से निजात पाने केलिए बूढ़ी गंडक-नून लिंक, कोसी-मेसी लिंक और सकरी-नाटा लिंक परियोजनाओं में भी तेजी लाने की दरकार है। पता नहीं नेताओं को यह महत्वपूर्ण क्यों नहीं लगता? आखिर हम कब तक बाढ़ की अभिशप्तता का शिकार होते रहेंगे?
[ लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ]