[ बलबीर पुंज ]: बीते दिनों अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय यानी एएमयू और जामिया मिलिया इस्लामिया में दलित आरक्षण की चर्चा क्या हुई, कुछ लोगों की भृकुटियां तन गईं। इसमें वे अग्रिम पंक्ति में हैैं जिन्होंने बीते चार वर्षों से दलित उत्पीड़न की घटनाओं को लेकर भाजपा-मोदी सरकार को दलित-विरोधी बताया और तथ्यों को विरुपित करके देश की छवि को कलंकित किया और हिंदू समाज के विरोध में दलित-मुस्लिम गठजोड़ की बात की। पिछले दिनों राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के अध्यक्ष रामशंकर कठेरिया ने पूछा, ‘एएमयू में दलितों-पिछड़ों को आरक्षण क्यों नहीं दिया जा रहा? इस राष्ट्रीय आयोग की उत्तर प्रदेश इकाई ने इसी संबंध में विश्वविद्यालय को नोटिस भेजकर आठ अगस्त तक जवाब मांगा। प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पहले ही सवाल उठा चुके थे कि यदि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में दलितों को आरक्षण दिया जा सकता है तो एएमयू और जामिया में ऐसा क्यों नहीं हो सकता?

कई वर्षों से एएमयू का दावा है कि वह अल्पसंख्यक संस्थान है और संविधान की धारा-30(1) के अंतर्गत उसे अल्पसंख्यकों की इच्छानुसार- शिक्षण संस्थान स्थापित करने और उन्हें संचालित करने का अधिकार प्राप्त है। साथ ही अनुच्छेद 15(5) के तहत वह सरकारी हस्तक्षेप और संवैधानिक आरक्षण संबंधी बाध्यता से मुक्त है। यूं तो यहां मुस्लिम आरक्षण की कोई घोषित नीति नहीं है, किंतु स्वयं को अल्पसंख्यक संस्थान मानते हुए जो मापदंड उसने स्थापित किए हैैं उससे यहां लगभग 70 प्रतिशत सीटें मुस्लिम छात्रों के लिए आरक्षित हैं। जामिया भी 50 प्रतिशत मुस्लिम छात्र-छात्राओं को आरक्षण दे रहा है। देश में जितने भी केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं उनका संचालन संसदीय अधिनियमों, सरकारी अनुदानों और राष्ट्रीय आरक्षण नीति आदि संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप हो रहा है। दूसरी ओर एएमयू और जामिया जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालय संविधान का उल्लंघन कर रहे हैं। आखिर इन दोनों विश्वविद्यालयों की वस्तुस्थिति क्या है?

अंग्रेजों के विश्वासपात्र सैयद अहमद खान ने अलीगढ़ में वर्ष 1877 में एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की थी जो 1920 में तत्कालीन संसदीय प्रावधानों के अंतर्गत अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में स्थापित हुआ। संविधान सभा (1946-50) में जब केंद्रीय विश्वविद्यालयों के नामों पर चर्चा हुई तब एएमयू और बीएचयू पर गंभीर विमर्श हुआ। डॉ. भीमराव आंबेडकर, नजीउद्दीन अहमद, शिब्बनलाल सक्सेना, सरदार हुकुम सिंह सहित संविधान सभा के अनेक सदस्यों ने पूर्ण सहमति के साथ इन दोनों शिक्षण संस्थाओं को सातवीं अनुसूची की संघीय सूची क्रमांक-1 की प्रविष्टि-63 में महत्वपूर्ण स्थान दिलाया और इन्हे ‘राष्ट्रीय महत्व का संस्थान’ माना। इस सूची में उद्धृत है, ‘संविधान के प्रारंभ के समय काशी हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय तथा कोई भी अन्य संस्थान, जो संसद द्वारा पारित हो, उसे राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित किया जाएगा।’ इसमें कोई भी अल्पसंख्यक संस्थान शामिल नहीं हो सकता।

वर्ष 1951-79 के बीच तत्कालीन सरकारों ने एएमयू को केंद्रीय विश्वविद्यालय माना। वर्ष 1968 के अजीज बाशा बनाम भारतीय संघ मामले में संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मत निर्णय दिया कि एएमयू अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान नहीं है और स्पष्ट किया कि संसद द्वारा स्थापित किसी भी संस्था को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा नहीं दिया जा सकता। वर्ष 1980 के मध्यावधि चुनाव में सत्ता के लिए लालायित कांग्रेस ने मुस्लिम वोटबैंक सुनिश्चित करने हेतु एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने की असंभव सी और गैर-संवैधानिक घोषणा कर दी। सत्तासीन होते ही उसने 1981 में एएमयू अधिनियम की धारा-2 में संशोधन करके परिभाषित कर दिया- ‘इस विश्वविद्यालय की स्थापना मुस्लिमों द्वारा हुई थी’, जबकि यह संसदीय अधिनियमों के तहत स्थापित हुआ था।

इन्हीं संशोधनों में एक नई धारा-5(सी) जोड़ी गई, जिसके अनुसार- ‘भारत के मुसलमानों के लिए सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक विकास हेतु विशेष प्रयास किए जाएं।’ इन्हीं प्रावधानों के आधार पर अगस्त 1989 में एएमयू प्रबंधन ने तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमन को 50 प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण हेतु एक प्रस्ताव भेज दिया जिसे उन्होंने 1990 में निरस्त कर दिया।

ढाई दशक बाद विश्वविद्यालय ने वही प्रस्ताव तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री के पास भेजा। इस पर उसे 25 फरवरी 2005 को अनापत्ति पत्र मिल गया। इसके बाद जब मुस्लिम आरक्षण संबंधी याचिका पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सुनवाई हुई तब अदालत ने 1981 के संशोधनों को अवैधानिक ठहराकर उस अनापत्ति पत्र को भी खारिज कर दिया। मामला अब सर्वोच्च न्यायालय में है।

वर्ष 2016 में मोदी सरकार ने हलफनामा दाखिल कर संवैधानिक प्रतिबद्धता को दोहराया है और इसे राष्ट्रीय महत्व का संस्थान और केंद्रीय विश्वविद्यालय माना है। इस प्रकार कहीं भी यह सिद्ध नहीं होता कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान है, फिर भी वहां दलितों को आरक्षण नहीं। आखिर इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है?

जामिया की स्थापना भी 1920 में अलीगढ़ में हुई थी। 1935 में उसे दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। वर्ष 1988 में संसद से इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त हुआ। जैसे ही 2011 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा आयोग ने इसे अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दिया और संप्रग-2 सरकार ने इसका समर्थन किया वैसे ही उसने दलितों-पिछड़ों को आरक्षण देना बंद कर दिया। मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित है।

देश में एक समूह-विशेषकर वामपंथी और मुस्लिम समाज के कुछ संगठन ‘दलित-मुस्लिम’ गठजोड़ की बात करते हैं। क्या उनकी ओर से इन दोनों विश्वविद्यालयों में दलितों को उनका वैध अधिकार-आरक्षण दिलाने का प्रयास हुआ? आखिर इस स्थिति का क्या कारण है?

हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों और उनके कारण होने वाले अन्याय के विरुद्ध आवाज बीते कई शताब्दियों से मुखर है। संघर्ष रूपी उसी तप से भारत में जहां दलितों-वंचितों को आरक्षण सहित समान संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं वहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश में दलितों का आर्थिक, शारीरिक और सामाजिक शोषण- मुस्लिम-दलित गठबंधन के अप्रासंगिक होने का ज्वलंत उदाहरण है।

स्वतंत्रता से पूर्व जिन्ना ने एएमयू को ‘पाकिस्तान की आयुधशाला’ कहा था। आखिर शत-प्रतिशत केंद्रीय अनुदान से संचालित और संघीय सूची में शामिल संस्थान में दलितों-वंचितों को उनके संवैधानिक अधिकारों से कैसे वंचित किया जा सकता है?

[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]