नई दिल्ली [ कुलदीप नैयर ]। मैं अब वह उत्साह नहीं पाता हूं जो पहले गणतंत्र दिवस पर दिखाई देता था। मुझे याद है कि किस तरह हम लोग इंडिया गेट जाने वाले राजपथ जहां सेना, नौ सेना, वायु सेना के लोगों और सशस्त्र पुलिस ने अपनी सैनिक ताकत दिखाई थी, पर पंक्ति में खड़े होने को एकदम सुबह उठ जाते थे। पहले प्रधानमंत्री सलामी लेते थे, उसके विपरीत अब राष्ट्रपति सलामी लेते हैं। पूरी चीज रस्मी हो गई है। राष्ट्रपति भवन से राष्ट्रपति घोड़ों से खींची जा रही एक बग्घी में सलामी के मंच तक आते हैं। प्रधानमंत्री उनका स्वागत करते हैं। वह सलामी लेते हैं। जो होता है उसमें एक पारदर्शिता होती है। सामान्य तौर पर भारत एक सम्मानित अतिथि को आमंत्रित करता है जिसकी खातिरदारी धूमधाम और शानदार तरीके से की जाती है। इस साल गणतंत्र दिवस समारोह में आसियान के दस देशों के शासनाध्यक्ष मेहमान बनकर आए। ऐसा पहली बार हुआ जब दस देशों को एक साथ आमंत्रित किया गया। उन्हें जगह देने के लिए 35 फीट के मंच को 90 फीट तक बढ़ाया गया। यह एक बड़ा परिवर्तन देखने को मिला।

गणतंत्र दिवस पर पुरस्कार संविधान-निर्माताओं की सोच के विपरीत हैं

गणतंत्र दिवस एक ऐसा दिन भी होता है जब विभिन्न क्षेत्रों में उत्तम कार्य के लिए पुरस्कार दिया जाता है। इसमें खासकर सेना के वे लोग होते हैं जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में सीमा पर बहादुरी दिखाई होती है और जिन्होंने भारत की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर किए होते हैं। ये लोग इस सम्मान को पाने के योग्य हैं, लेकिन पुरस्कार संविधान-निर्माताओं की सोच के विपरीत हैं। उन्होंने पुरस्कार पर प्रतिबंध लगा दिए थे। यही वजह है कि जब गांधीवादी जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए लोकप्रिय आंदोलन के तहत जनता पार्टी सरकार में आई तो उसने इस रिवाज को रोक दिया था।

गणतंत्र दिवस पर पुरस्कार की शुरुआत करने वाले प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू थे

पुरस्कार की शुरुआत करने वाले प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू थे। वह चाहते थे कि उन लोगों को पुरस्कार मिले जिन्होंने साहित्य, अर्थशास्त्र या विज्ञान के क्षेत्र में महारत हासिल की है। कोई पैसा नहीं दिया जाता है, क्योंकि पुरस्कार इतने मूल्यवान हैं कि उसे धन के लाभ के पैमाने पर नहीं तौला जा सकता। नेहरू यह भी चाहते थे कि पुरस्कार को राजनीति से न जोड़ा जाए। वह इसकी कल्पना नहीं कर पाए कि एक दिन इस पुरस्कार का राजनीतिकरण हो जाएगा, सरकार अपने चहेतों को चुनेगी और सत्ताधारी पार्टी को दी गई सेवा के लिए उन्हें पुरस्कार देगी।

पुरस्कारों के चयन में विदेश मंत्रालय से चलकर गृह मंत्रालय तक का सफर

मुझे याद है कि जब ये पुरस्कार शुरू किए गए तो वे विदेश विभाग के मातहत थे, जिसके मुखिया जवाहरलाल नेहरू थे। बाद में यह काम गृह मंत्रालय को दे दिया गया जिसने यह जिम्मेदारी एक उपसचिव को सौंप दी थी। उसके पास और बहुत सारे काम थे। उसने यह काम विभाग से जुड़े सूचना अधिकारी की ओर खिसका दिया। इस तरह यह काम मैं देखने लगा, क्योंकि मैैं उस समय गृह मंत्रालय का सूचना अधिकारी था। चयन का तरीका मनमाना था। प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्री एक या एक से ज्यादा नाम सुझाते थे जिन्हें बतौर सूचना अधिकारी मैं एक फाइल में जमा करता जाता था। गणतंत्र दिवस के एक महीने पहले मुझे नामों की एक संक्षिप्त सूची बनानी पड़ती थी। मैं यह स्वीकार करता हूं कि सूची बनाते समय मैं किसी नियम का पालन नहीं करता था। यह सूची इस कार्य को देखने वाले उपसचिव को जाती थी। वहां से गृह सचिव को और अंत में गृहमंत्री के पास। मैं भेजी गई सूची में बहुत कम परिवर्तन कर पाता था, लेकिन प्रशस्ति-पत्र बनाने का काम सबसे कठिन था। शब्दकोश मेरे सामने होते थे। कुछ मामलों में मेरे मार्गदर्शन के लिए बायोडाटा होता था, जिनमें दबी सूचना होती थी कि वह व्यक्ति वैज्ञानिक, शिक्षाविद या अर्थशास्त्री है।

पुरस्कारों के लिए प्रशस्ति-पत्र बनाना चुनौती भरा काम था

बायोडाटा मेरी कुछ मदद करता था, लेकिन उस आधार पर प्रशस्ति-पत्र बनाना चुनौती भरा काम था। यह सारा काम इतना बेतरतीब था कि सर्वोच्च न्यायालय को सरकार को यह कहना पड़ा कि वह एक चयन समिति बनाए जिसमें विपक्ष के नेता भी हों। हालांकि इससे कुछ तरतीब आ गई, फिर भी प्रशास्ति-पत्र बनाने का काम मेरा था। नामों की घोषणा गजट-सूचना के जरिये राष्ट्रपति भवन से जाती थी। मुझे स्मरण है कि एक बार राष्ट्रपति की ओर से सुश्री लाजारस का नाम सुझाया गया। गृह मंत्रालय में हम लोगों ने सोचा कि यह सम्मान प्रसिद्ध शिक्षाविद सुश्री लाजारस को दिया गया है। इस अनुसार सूचना को सार्वजनिक किया गया, लेकिन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सूचना देखी तो उन्होंने कहा कि जो नाम सुझाया था वह तो एक नर्स का था। नर्स ने उस समय उनकी देखभाल की थी जब आंध्र प्रदेश में कुर्नूल से हैदराबाद जाते समय उन्हें दमे का दौरा पड़ा था। हम सब शर्मिंदा थे कि सम्मान गलत व्यक्ति को दे दिया गया, लेकिन हम लोग कुछ नहीं कर सकते थे, क्योंकि नाम लोगों के बीच जा चुका था। उस साल दो लाजारस को पुरस्कार दिया गया।

पुरस्कार योग्यता पर आधारित नहीं होते

अतीत में जब कांग्रेस सत्ता में थी तो उसने अमेरिका के होटल मालिक संतसिंह चटवाल को पद्म भूषण दे दिया, जबकि उनके खिलाफ कुछ आपराधिक मामले चल रहे थे। इस पर देश में हंगामा हुआ, लेकिन गृह मंत्रालय ने उनके चयन को इस आधार पर उचित ठहराया कि वह एक जाने-पहचाने भारतीय हैैं, जिन्होंने विदेशों में भारतीय हितों को मदद पहुंचाई है। ऐेसे भी कई मामले हैं जिनमें मशहूर व्यक्तियों ने इस आधार पर पुरस्कार ठुकरा दिए कि चयनकर्ताओं की समिति इतनी योग्य नहीं थी कि उनके कामों को परख सके। इससे यही सबक लेना चाहिए कि आखिरकार कोई पुरस्कार होना चाहिए या नहीं। सत्ताधारी पार्टी की प्रवृत्ति होती है कि वह उन लोगों को मान्यता दे जो पार्टी के सदस्य हैं या उससे जुड़े हैं, लेकिन जो असली उद्देश्य होता है वह गायब हो जाता है। इससे इसी बात को बल मिलता है कि पुरस्कार योग्यता पर आधारित नहीं होते। यह आरोप रहेगा, क्योंकि चयन वे लोग करते हैं जिन्हें सरकार नामजद करती है। सरकार को विपक्ष के नेता को शामिल करना चाहिए था, लेकिन वह चयन समिति में अल्पमत में होंगे। देश में पुरस्कार के महत्व पर बहस होनी चाहिए। उन्होंने अपनी उपयोगिता खो दी है जो उस समय भी नहीं थी जब इन्हें शुरू किया गया था।

पुरस्कार शुरू करना गलत था

जब संविधान ने पुरस्कारों पर पाबंदी लगाई है तो उन्हें क्यों रहना चाहिए? पुरस्कार शुरू करना गलत था। प्रधानमंत्री मोदी को यह जानने के लिए देश में बहस शुरू करनी चाहिए कि पुरस्कार जारी रखे जाएं या नहीं?

[ लेखक जाने-माने स्तंभकार हैैं ]