संसार में सभी किसी न किसी कारण दुखी हैं। कोई अधिक, कोई अल्प। दुख स्वाभाविक है जब परिस्थितियां अनुकूल न हों, कभी स्थितियों पर हमारा वश नहीं होता अथवा उनके निदान के हमारे प्रयास विफल हो जाते हैं। वावजूद इसके, हमारे अधिकांश दुखों का कारण हम स्वयं हैं। मन में चल रहे विकार समाज और संसार को देखने का दृष्टिकोण बदल देते हैं। मन का अहंकार दूसरों की उपलब्धियां देख ईर्ष्या और क्रोध उत्पन्न करता है। मन में बसा लोभ कामनाओं की पूर्ति न होने से क्षोभ और निराशा को जन्म देता है। मनुष्य यह विश्वास कर ले कि वह किसी का भी भाग्यविधाता नहीं है, तो उसके दुख कम हो जाएंगे। यदि वह किसी को कुछ देने की स्थिति में है, तब भी वह दाता नहीं है। दाता एक ही है परमेश्वर। मनुष्य को तो उसने माध्यम बना रखा है। यदि ईश्वर किसी को देना चाहता है तो उसके पास माध्यमों का अभाव नहीं है। उसे देने से रोक लेने की सामर्थ्य भी किसी मनुष्य में नहीं है।

मनुष्य का जन्म माता व पिता के संयोग से हुआ और पंच तत्वों से मिल कर उसका तन बना। इस तन में जीव का निवास परमात्मा की कृपा से ही हुआ। जीव के बिना तन निर्जीव है। तन तभी तक सजीव है जब तक परमात्मा उसमें जीव को स्थित किए हुए है। यह परमात्मा का सबसे बड़ा उपकार है। मनुष्य को तो प्रत्येक सांस हर पल के लिए परमेश्वर का आभारी होना चाहिए कि उसने इतनी सुंदर सृष्टि को देखने का अवसर दिया। परमात्मा की इस महान कृपा के अहसास के साथ जीवन जीने का आनंद ही कुछ और है। जिस परमात्मा ने जीवन दिया है वही इसका संरक्षण भी करेगा। जैसे मनुष्य अपनी बनाई कृतियों से प्यार करता है और उन्हें सुरक्षित रखने के प्रयास करता है, वैसा ही परमात्मा है। परमात्मा ने संपूर्ण सृष्टि की रचना की और उसे संभाल रहा है। सृष्टि के संचालन का सबसे मुख्य तत्व है संतुलन। जन्म और मृत्य आदि सभी एक निश्चित नियम से आबद्ध हैं। मनुष्य यदि संयम और संतुलन को जीवन का तत्व बनाए तो जीवन सहज और आनंद से परिपूर्ण हो जाएगा। मनुष्य को फल चाहिए, तो जीवन को निरंतर गुणों और शुभ भावनाओं और शुभ कर्मों से सींचता रहे। समय पर उपलब्धियां स्वयं मार्ग में स्वागत करती मिलेंगी। जीवन में दुख कम से कम हों, यह स्वयं पर निर्भर करता है।

[ डॉ. सत्येंद्र पाल सिंह ]