[निरंकार सिंह]। कोरोना वायरस चीन या फिर किसी व्यक्ति की उस महत्वाकांक्षा का परिणाम माना जा रहा है, जिसमें ‘सुपर पावर’ या ‘महाबली’ बनने के लिए वह कुछ भी कर सकता है या किसी भी हद तक जा सकता है। फिर इसके लिए उसे प्रयोगशाला में चाहे जैविक हथियार ही क्यों न बनाना पड़े, जो आज सारी दुनिया में तबाही मचा रहा है। दरअसल आज दुनिया में जो अर्थशास्त्र पढ़ाया जाता है, उसी का यह दुष्परिणाम है। इस अर्थशास्त्र का एक ही सबसे प्रमुख लक्ष्य है कि हमारे पास जितना है, उससे भी अधिक होना चाहिए। यह विचार एक ऐसे बेलगाम पूंजीवाद को जन्म देता है, जिसमें अधिक से अधिक पूंजी जुटाना और उससे ताकत हासिल करना ही किसी देश या व्यक्ति का उद्देश्य हो जाता है। इस महत्वाकांक्षा के कारण आज कई देशों ने एक से बढ़कर एक संहारक हथियार बनाए हैं।

आज दुनिया के कई देशों के पास इतने अधिक परमाणु और हाइड्रोजन बम हैं जिनसे धरती पर मनुष्य के साथ-साथ सभी प्रकार के जीव-जंतुओं का अंत किया जा सकता है। इसलिए आज इस बात पर विचार करना जरूरी हो जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था का स्वरूप कैसा होना चाहिए। आज हम जिसे अर्थव्यवस्था का सिद्धांत कहते हैं, उसका आधार जीवन का केवल एक ही पहलू है, वह एक ही दृष्टिकोण को लेकर चला है- भौतिकवाद। अर्थशास्त्र की प्रत्येक कल्पना का मूल यही दृष्टिकोण है। अर्थशास्त्र की दृष्टि से मनुष्य की गतिविधियां उत्पादक या अनुत्पादक हो सकती हैं। उत्पादक गतिविधि वह है, जो किसी न किसी रूप में, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे। ऐसा नहीं है कि अर्थशास्त्र ‘कल्याण’ पर ध्यान देने में विफल रहा हो, किंतु जहां कल्याण की भी बात आई है, वहां उसकी जड़ें गहराई के साथ भौतिकवाद में चली गई हैं। अर्थशास्त्र का यह एक पक्षात्मक रूप आश्चर्यजनक और निश्चय ही असाधारण है, फिर भी यह समझ के परे नहीं है।

भारत का पारंपरिक स्वदेशी दर्शन: करीब ढाई हजार साल पहले भारत में गौतम बुद्ध ने जिस दर्शन की व्याख्या की थी, उसे आप बौद्ध अर्थशास्त्र या बौद्ध आर्थिक पद्धति कह सकते हैं। महात्मा गांधी ने भी एक ऐसी आर्थिक प्रणाली का आधार प्रस्तुत किया जो भारतीय समाज के अनुकूल है। उनके आर्थिक विवेचन का आधार स्वदेशी है। अर्थव्यवस्था का सीधा सा मतलब यह है कि अर्थशास्त्र में बताए गए सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए जीवन की पद्धति का विकास किया जाए। अर्थशास्त्र का शास्त्रीय पक्ष निराधार नहीं है। इसका आधार जीवन के उद्देश्य और अभिप्राय को स्पष्ट करने वाली विचारधारा है। आर्थिक विचारों की एकमात्र विकसित प्रणाली वही है, जो आज सर्वत्र छाई हुई है और जो बहुत ही स्पष्ट रूप से जीवन के भौतिकवादी पक्ष पर आधारित है। यदि आप जड़वादी बनना चाहते हैं तो पश्चिम के मार्ग पर चलिए। यदि बौद्ध बने रहना चाहते हैं तो अपने लिए किसी मध्यम मार्ग का अनुसंधान कीजिए।

सीमित प्रभावी आर्थिक विकास: आज सारी दुनिया करोना वायरस की महामारी से त्रस्त है और अपने घरों में कैद रहने के लिए बाध्य है। अब भी यदि हम नहीं माने तो वह दिन दूर नहीं, जब सारी मानव जाति का विनाश सुनिश्चित है और इसकी शुरुआत हो चुकी है। आत्मसंयम, स्वयं आरोपित सीमा बंधन और अपनी सीमा का बोध जीवनदायी और जीवनरक्षक गुण है। नई अर्थव्यवस्था जिसकी आज हमें आवश्यकता है, इन मान्यताओं को आधार मानकर चलेगी कि आर्थिक विकास एक सीमा तक ही लाभदायक है, जीवन में जटिलता का संचार एक सीमा तक ही संभव है। दक्षता और उत्पादकता के लिए प्रयास एक सीमा तक ही ठीक है। फिर से प्राप्त होने वाले साधनों का उपयोग एक सीमा तक करना ही बुद्धिमानी है। मानव की परिपूर्णता के भाव के साथ विशेषज्ञता का मेल एक सीमा तक ही बैठता है। इसी तरह से सामान्य बुद्धि के स्थान पर वैज्ञानिक बुद्धि (विधि) का उपयोग भी एक सीमा तक ही ठीक है।

प्रारंभिक काल में विवेक और स्वतंत्र निर्णय को सबसे बड़ा आदर्श माना गया। इसने राजनीतिक समानता पर बड़ा जोर दिया, किंतु इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि राजनीतिक समानता से तब तक भ्रातृत्व का भाव नहीं आ सकता, जब तक सामाजिक आर्थिक ढांचा भी नहीं बदलता या सुधरता। समाजवाद और विशेषकर मार्क्‍सवाद ने सामाजिक आर्थिक ढांचों में परिवर्तन पर तो अत्यधिक जोर दिया, किंतु वे यह भूल गए कि जब तक मनुष्य की प्रकृति में सुधार नहीं होता, तब तक केवल आर्थिक सुधारों से ही अच्छा समाज नहीं बन सकता। पिछले दो हजार वर्षो के बीच सुधार के जो भी आंदोलन चले, उन सबने जीवन का एक ही पक्ष लिया, दूसरे की उपेक्षा कर दी। इसके लिए उनकी योजनाएं क्रांतिकारी होते हुए भी सफलता नहीं प्रदान कर सकी। इन क्रांतिकारी मांगों से कुछ लोग तो लाभ उठा लेते हैं, किंतु बाकी के लिए वह सिद्धांत और शास्त्र ही बनकर रह जाता है।

यह निर्विवाद है कि जीवन को अखंड मानकर सभी क्षेत्रों में एक कदम भी दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ाना मानव जाति के विकास के लिए कहीं अधिक श्रेयस्कर और प्रभावकारी है, बजाय इसके कि एक ही साथ अलग-अलग क्षेत्रों में सैकड़ों कदम उठाने की बात कही जाए तथा उठाकर चाहे थोड़े समय के लिए रख भी लिए जाएं। एक ही क्षेत्र में बढ़ने के हजारों वर्षो के विफल प्रयासों से अब तो मानव जाति को शिक्षा लेनी ही चाहिए। क्या पश्चिमी लोकतंत्र और साम्यवादी अधिनायकवाद एक ऐसी आधुनिक सभ्यता के दो पहलू नहीं हैं, जो इस धरती पर मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरा बन गए हैं? जब कोई सभ्यता जीवन का समग्र बोध खो देती है, तो उसे मानव जाति की सामुहिक हत्या करने से कोई कैसे रोक सकता है?

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]