[ बलबीर पुंज ]: लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ-साथ रोजगार और किसानों की आर्थिक स्थिति महत्वपूर्ण मुद्दा है। विरोधियों का मोदी सरकार पर सबसे बड़ा आक्षेप है कि न केवल रोजगार में भारी कमी हुई है, अपितु नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े आर्थिक सुधारों के बाद छोटे-मझोले क्षेत्र की रही-सही नौकरियां भी चली गई हैं। आखिर सच क्या है? भारत में रोजगार के अवसर वाकई बढ़े हैं या घटे हैं, इससे जुड़ी सच्चाई का एक पक्ष खाड़ी देशों से संबंधित एक हालिया समाचार में मिल जाता है। आर्थिक समृद्धि और बेहतर भविष्य की खोज में लगभग तीन करोड़ भारतीय अन्य संपन्न देशों में बसे हुए हैं। इन प्रवासियों की एक बड़ी संख्या मध्यपूर्व एशिया और खाड़ी देशों में भी बसती है, जिसमें अकेले केरलवासियों की संख्या लगभग 20 लाख है।

एक अनुमान के अनुसार वे केरल में 90-95 हजार करोड़ रुपये भेजते हैं, किंतु अब उन पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। सेंटर ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज की एक रिपोर्ट के अनुसार, इन दिनों खाड़ी देशों में अफ्रीका, नेपाल और फिलीपींस जैसे देशों के लोग आधे वेतन पर भारतीयों से रोजगार छीन रहे हैैं। इन देशों में भारतीय ड्राइवर 20,000 रुपये से अधिक वेतन मांगते हैं, जबकि अफ्रीकी इसके लिए 8,000 रुपये प्रतिमाह में तैयार हैं। इसी तरह भारतीय सुरक्षाकर्मी 30,000 रुपये के वेतन की मांग करते हैं, जबकि अफ्रीकी 20,000 रुपये में संतुष्ट हैं। कतर में नेपाली श्रमिक तो 14 हजार रुपये प्रतिमाह में खुश हैं।

मध्यपूर्व देशों में फिलीपींस का श्रमिक एक घरेलू नौकर के रूप में जितनी मजदूरी प्राप्त करता है वह उसके देश में एक शिक्षक के वेतन से कहीं अधिक है। स्पष्ट है कि खाड़ी देशों में नेपाली, फिलीपींस और अफ्रीकी लोग भारतीयों से आधे या उससे भी कम वेतन पर काम करने को इसलिए भी तैयार हो रहे हैं, क्योंकि उन्हें वहां अपने देश में उपलब्ध वेतन से कहीं अधिक पगार मिल रही है। खाड़ी में इस स्थिति के मुख्य तीन कारण हैैं। पहला, 2008 की आर्थिक मंदी से खाड़ी-मध्यपूर्व के देश अभी तक उबर नहीं पाए हैं और नीतिगत प्रयासों के बाद भी उनकी अर्थव्यवस्था गिर रही है। दूसरा, वहां जनसांख्यिकी संतुलन बनाए रखने का दवाब है। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण, भारत में इन सभी श्रेणियों के वेतन में बढ़ोतरी होना।

एक रिपोर्ट के अनुसार सऊदी अरब में भारतीय दूतावास ने बिना-कौशल वाले श्रमिकों के लिए 1,500 सऊदी रियाल अर्थात 27,700 रुपये का प्रतिमाह वेतन तय किया है- जो अरब देशों के स्थानीय परिवारों और कंपनियों को काफी महंगा पड़ रहा है, क्योंकि उन्हें वेतन के अतिरिक्त भोजन, आवास, परिवहन, बीमा, वैतनिक अवकाश आदि भी देना होता है।

भारत में मजदूरी बढ़ने का बड़ा कारण हमारी अर्थव्यवस्था है, जिसने सकल घरेलू उत्पाद के मामले में गत वर्ष फ्रांस को पीछे छोड़ते हुए छठा स्थान प्राप्त किया। यदि भारत आर्थिक और कारोबारी सुधार जारी रखता है तो 2030 तक वह विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। क्या पिछले पांच वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार रोजगार के अवसर पैदा किए बिना बढ़ गया? कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के हालिया आंकड़ों के अनुसार संगठित क्षेत्र में पिछले 17 महीनों में 76.4 लाख नए अंशधारक जुड़े। अकेले जनवरी में यह आंकड़ा 8.96 लाख है, जो गत वर्ष इसी अवधि में 3.8 लाख की तुलना में लगभग 130 प्रतिशत अधिक है। भारतीय उद्योग परिसंघ ने रिपोर्ट में कहा है कि मझोले और लघु उद्योग में पिछले चार वर्षों में हर साल 1.35-1.49 करोड़ लोगों को रोजगार मिला है। इस सर्वे में 28 राज्यों के एक लाख से अधिक लघु उद्योगों ने भाग लिया था।

स्कॉच नामक संस्था के अनुसार, अकेले मुद्रा योजना के अंतर्गत 16 करोड़ से अधिक लोगों को 7.5 लाख करोड़ रुपये स्वरोजगार के लिए दिए गए हैं। प्रधानमंत्री रोजगार प्रोत्साहन योजना से लाभान्वितों की संख्या एक करोड़ के पार निकल चुकी है। सरकार ने मेक इन इंडिया से 2020 तक 10 करोड़ तो आयुष्मान भारत-जन आरोग्य योजना के तहत 10 लाख रोजगार के अवसर सृजन करने का लक्ष्य रखा है। हाल में रेलवे भर्ती बोर्ड ने विभिन्न श्रेणियों में 1.30 लाख नौकरियों का विज्ञापन निकाला है। ये आंकड़े विपक्षी दलों और उनके बौद्धिक समर्थकों के उन दावों के उलट हैैं जिनमें कहा जा रहा है कि नोटबंदी, जीएसटी के कारण बेरोजगारी बढ़ी है। यदि विपक्षी दलों के इस आरोप को आधार बनाएं तो पिछले पांच वर्षों में पीएम आवास योजना के तहत जो 1.53 करोड़ घर बनाए गए वे क्या बिना किसी को नौकरी दिए बन गए? जब स्वयं पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम मानते हैं कि मोदी सरकार ने संप्रग शासन की तुलना में अधिक किमी राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण किया है और गंगा नदी को स्वच्छ बनाने में दृढ़ कदम उठाया है तो क्या यह सब बिना रोजगारों के संभव हो गया?

कुछ माह पूर्व रेलवे में निचली दो श्रेणियों के 90 हजार पदों के लिए 2.5 करोड़ आवेदन आए, जिसमें सामान्य स्नातक से लेकर तकनीकी स्नातकोत्तर और पीएचडी डिग्रीधारक तक भी शामिल रहे। इस पर विरोधियों को बेरोजगारी पर मोदी सरकार को घेरने का अवसर मिल गया। क्या यह सत्य नहीं कि अधिकांश भारतीयों को सरकारी नौकरियां अधिक वेतन, सुविधा और सामाजिक सुरक्षा के कारण आकर्षित करती हैं? क्या यह भी सत्य नहीं कि आज निजी क्षेत्र में बड़े शहरों में जहां ड्राइवर को औसतन 12-18 हजार रुपये प्रतिमाह मिल रहा है वहीं सरकारी ड्राइवरों को अतिरिक्त सुविधाओं के साथ हर महीने 25 हजार से अधिक वेतन मिलता है?

भारत में बेरोजगारी का एक बड़ा कारण बड़ी आबादी का आज भी कृषि आधारित रोजगार/व्यवसाय में संलग्न होना और सीमित आमदनी में उमड़ती आकांक्षाओं का मकड़जाल भी है। कई किसान खेती के उद्देश्य से कर्ज लेते हैं, किंतु अन्य कारणों से उसका अधिकतर हिस्सा अपनी निजी जरूरतों को पूरा करने में खर्च कर देते हैैं। परिणामस्वरूप वे आर्थिक चक्रव्यूह में फंस जाते हैैं। यदि किसानों को इस संकट से बाहर निकालना है तो उन्हें अन्य क्षेत्रों के रोजगारों से जोड़ना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि उन्हें कौशल प्रशिक्षण दिया जाए। उन्हें आधारभूत सुविधाओं के साथ उचित जानकारी मिले, क्योंकि निरक्षर होने के कारण अधिकांश ग्रामीण न केवल बेरोजगार रहते हैैं, बल्कि गुणहीन शिक्षित होने के कारण आज की गला-काट प्रतिस्पर्धा में किसी आधुनिक उद्योग-धंधे के लिए समर्थ भी नहीं रहते। जब तक ग्रामीण क्षेत्रों में सस्ती और प्रतिस्पर्धात्मक शिक्षा नहीं दी जाएगी और किसान कृषि के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में अवसर ढूंढने के लिए प्रोत्साहित नहीं होंगे, देश में रोजगार बड़ा मुद्दा बना रहेगा।

( लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )