अरविंद कुमार। वर्तमान लोकसभा चुनाव में संविधान बचाना एक मुद्दा बना हुआ है। कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन के घटक दल भाजपा पर चुनाव जीतने के बाद संविधान बदलने का आरोप लगा रहे हैं, वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कह रहे हैं कि उनके रहते हुए कोई भी संविधान के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता। आजाद भारत में यह पहला आम चुनाव है, जिसमें भारत का संविधान एक प्रमुख मुद्दा बन गया है। इससे भारत का संविधान जन-जन तक पहुंच रहा है। ऐसा होना भारतीय जनमानस में संविधान की स्वीकार्यता और महत्व, दोनों ही बढ़ाएगा।

संविधान बचाने के शोर के बीच सबसे महत्वपूर्ण सवाल छूट गया कि संविधान बचाने से मतलब क्या है? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि हमारा संविधान अनुच्छेद-368 के तहत संसद को इसमें संशोधन करने की शक्ति देता है। वहीं अनुच्छेद-13 और 32 सुप्रीम कोर्ट को शक्ति देते हैं कि वह ऐसे सभी कानूनों को निरस्त कर दे, जो मूल अधिकारों के खिलाफ हों। ऐसे में राजनीतिक पार्टियां यह नहीं बता रही हैं कि संविधान बचाने से उनका वास्तविक मतलब क्या है? वह संविधान को कैसे बचाएंगी? वह क्या नहीं करेंगी, जिससे संविधान बचा रहेगा?

शासन चलाने के लिए लिखी गई सबसे प्रमुख कानून की किताब को संविधान कहा जा सकता है, लेकिन वास्तव में यह किसी भी देश में रह रहे शासकों और जनता के बीच बनी सहमति का दस्तावेज होता है। दुनिया में ऐसे दस्तावेज तैयार करने की शुरुआत 15 जून, 1215 को ब्रिटेन में मैग्नाकार्टा से होती है, जिसके तहत वहां के तत्कालीन राजा जान ने नागरिकों को तमाम अधिकार दिए। आगे चलकर ऐसे ही दस्तावेज दुनिया भर के देशों में तैयार हुए। इस प्रकार भारत का संविधान दरअसल संविधान सभा के सदस्यों के बीच बनी सहमति का दस्तावेज है।

संविधान सभा में निर्णय मतदान द्वारा होता था, इसलिए एक-एक प्रविधान पर बहस करके वोट डालकर निर्णय लिया गया। ऐसे में संविधान बचाने का मतलब पूर्व में संविधान सभा में जिन विषयों पर निर्णय हो चुका है, उन्हें वैसे ही माना जाना है। ऐसा करने के लिए जरूरी हो जाता है कि संविधान सभा ने जिन बातों को नकार दिया, उनको किसी भी कीमत पर दोबारा नहीं उठाया जाए, परंतु देश में ऐसा हो नहीं रहा है।

भारत में सिर्फ संविधान नहीं, बल्कि संविधान सभा के निर्णयों का भी उल्लंघन किया जा रहा है। इसके तीन बड़े उदाहरण हैं। पहला है शीर्ष न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति के लिए कलेजियम सिस्टम का अस्तित्व में आना। 1993 के बाद भारत की शीर्ष न्यायपालिका ने कलेजियम नामक ऐसी व्यवस्था बना ली, जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में जज ही जज की नियुक्ति करते हैं।

ऐसा करने वाला भारत एकमात्र देश है। बाकी देशों में जजों की नियुक्ति सरकार या फिर वहां की संसद करती है। हमारे यहां जज खुद ही जज की नियुक्ति करते हैं। ऐसा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में दिए गए ‘परामर्श’ शब्द की परिभाषा को बदल कर ‘बाध्यता’ कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति की कलेजियम नामक जो विधि बनाई, वैसी व्यवस्था को संविधान सभा ने पहले ही खारिज कर दिया था। मोदी सरकार ने सभी पार्टियों की सहमति से संविधान संशोधन द्वारा इस व्यवस्था को बदलने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हो पाई।

दूसरा उदाहरण विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के मध्य शक्ति के विभाजन की सीमा को समाप्त करने की कोशिश है। शक्ति का उक्त विभाजन आधुनिक लोकतंत्र की बुनियाद है, लेकिन एक समूह पिछले कुछ वर्षों से इस विभाजन को समाप्त करने की लगातार कोशिश कर रहा है। इसके लिए वह लगातार दबाव डाल रहा है कि बड़े अधिकारियों की चयन समिति में मुख्य न्यायाधीश को सदस्य बनाया जाए। चयन समिति में बतौर सदस्य मुख्य न्यायाधीश की मौजूदगी न सिर्फ शक्ति के विभाजन का उल्लंघन करती है, बल्कि इस पद की गरिमा को भी नुकसान पहुंचाती है। न्यायपालिका का काम कार्यपालिका के कामों की समीक्षा करना है। जब न्यायाधीश खुद ही चयन समिति में शामिल हो जाएगा, तो न्यायपालिका किस नैतिक शक्ति से ऐसी नियुक्तियों की समीक्षा करेगी?

संविधान के उल्लंघन का तीसरा सबसे बड़ा उदाहरण रंगनाथ मिश्र आयोग का गठन था, जिसकी आजकल खासी चर्चा है। मनमोहन सरकार ने अल्पसंख्यक मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए वर्ष 2004 में इस आयोग का गठन किया था। इसके गठन का आरंभिक उद्देश्य धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों की स्थिति का अध्ययन करना था। बाद में इसे मुस्लिमों और ईसाइयों की कुछ जातियों को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल करने के लिए जांच की जिम्मेदारी दे दी गई थी। आयोग की रिपोर्ट में मुस्लिमों और ईसाइयों की जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की सिफारिश की गई, जिसे विवाद बढ़ने पर तत्कालीन सरकार ने नहीं माना।

रंगनाथ मिश्र आयोग को दिया गया कार्य संवैधानिक रूप से सही नहीं था, क्योंकि अनुसूचित जाति/जनजाति के मामलों को देखने के लिए संविधान निर्माताओं ने हमारे संविधान के अनुच्छेद-338 में राष्ट्रपति द्वारा एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति का प्रविधान किया था, जिसे बाद में संशोधित करके अनुसूचित जाति आयोग में बदल दिया गया।

इस आयोग ने मुस्लिमों और ईसाइयों की कुछ जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग को पूर्व में कई बार खारिज कर दिया था। साफ है मनमोहन सिंह सरकार ने न केवल संविधान के अनुच्छेद-338 का उल्लंघन किया, बल्कि संविधान निर्माताओं की उस बात को भी नहीं माना, जिसके तहत उन्होंने अनुसूचित जातियों से जुड़े मामलों को देखने के लिए एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति का प्रविधान किया।

(लेखक लंदन विश्वविद्यालय के रायल हालवे कालेज में सहायक प्रोफेसर हैं)