[ संजय गुप्त ]: सर्दियों की आहट आते ही एक बार फिर उत्तर भारत प्रदूषण की गिरफ्त में आने लगा है। दशकों से चला आ रहा यह सिलसिला इस बार भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। उत्तर भारत में वायु प्रदूषण की मार शासन-प्रशासन की घोर लापरवाही को ही इंगित करती है। जब कोविड महामारी के इस दौर में डॉक्टर इसके लिए आगाह कर रहे हैं कि बढ़ता वायु प्रदूषण लोगों की सेहत पर पहले से कहीं अधिक बुरा असर डालेगा, तब यह बेहद चिंताजनक है कि उस पर लगाम लगती नहीं दिख रही है। लोग कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने को लेकर तो सतर्क हो सकते हैं, लेकिन आखिर वायु प्रदूषण से कैसे बचें? प्रधानमंत्री मोदी ने हाल में देश के नाम संबोधन में लोगों को आगाह किया कि लॉकडाउन समाप्त हुआ है, कोरोना नहीं। उन्होंने यह चेतावनी शायद इसीलिए दी, क्योंकि यह आशंका बढ़ रही है कि बढ़ते वायु प्रदूषण से कोरोना का संक्रमण और खतरनाक हो सकता है।

सरकारें वायु प्रदूषण को नियंत्रित नहीं कर पा रहीं,  सरकारें पराली को जलने से रोक नहीं पा रहीं

आखिर ऐसा क्यों है कि सरकारें वायु प्रदूषण को नियंत्रित नहीं कर पा रही हैं? पराली यानी फसलों के अवशेष जलाने की समस्या आज की नहीं, बल्कि पिछले दो दशकों से चली आ रही है। पहले सरकारें इससे मुंह छिपाती थीं और यह मानने को तैयार नहीं होती थीं कि उत्तर भारत में अक्टूबर और नवंबर में वायु प्रदूषण बढ़ने के पीछे पराली का धुआं है, लेकिन अब वे ऐसा मानने लगी हैं। बावजूद इसके वे पराली को जलने से रोक नहीं पा रही हैं। लगता है कि उनमें इसे लेकर कोई दिलचस्पी ही नहीं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल के मुकाबले इस साल कहीं अधिक पराली जलाई जा रही है। इन दिनों इस पर बहस हो रही है कि दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण में पराली के धुएं का योगदान कितना है? इसे 10 से 20 प्रतिशत तक आंका जा रहा है। यह हवा के रुख पर निर्भर कर रहा है।

प्रदूषण के पीछे पराली के साथ-साथ सड़कों और निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल की भूमिका

प्रदूषण के पीछे पराली के साथ-साथ सड़कों और निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल की भी भूमिका है, लेकिन उसे नियंत्रित करने की कोई योजना नहीं नजर आती। धूल के कण धुएं के साथ मिलकर स्मॉग बढ़ाते हैं और यही जानलेवा साबित होता है। पराली के धुएं और धूल के साथ वाहनों का उत्सर्जन भी हवा को जहरीला बनाता है। यह अच्छा है कि भारत सरकार ने जोर देकर बीएस-6 मानक वाले वाहनों को लागू कर दिया है। चूंकि अभी इसकी शुरूआत हुई है, इसलिए उसका असर चार-पांच साल बाद ही दिखाई देगा।

शासन-प्रशासन में इच्छाशक्ति की कमी के चलते उत्तर भारत को प्रदूषण से छुटकारा मिलना संभव नहीं

शायद इसी को ध्यान में रखकर पिछले दिनों पर्यावरण मंत्री ने कहा कि चार-पांच साल में उत्तर भारत प्रदूषण से मुक्त हो जाएगा। यह सुनने में जरूर अच्छा लग रहा है, लेकिन अगर पराली का जलना नहीं रुका और सड़कों एवं निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल को नियंत्रित करने का कोई उपाय नहीं किया गया तो हालात ऐसे ही बने रह सकते हैं। हालात बदलने के लिए शासन-प्रशासन में इच्छाशक्ति की कमी के चलते ऐसा लगता नहीं कि उत्तर भारत को प्रदूषण से छुटकारा मिलेगा। जो भी हो, प्रदूषण की रोकथाम अकेले सरकार और नौकरशाही का ही काम नहीं। देश की जनता को भी इसमें सहयोग देना होगा।

आम लोग प्रदूषण को रोकने के लिए सजग नहीं

आम लोग प्रदूषण के नुकसान से तो परिचित हो रहे हैं, लेकिन उन तौर-तरीकों को रोकने के लिए सजग नहीं, जो हवा को जहरीला बनाते हैं। यह एक तथ्य है कि किसान पराली जलने से होने वाले नुकसान से परिचित होने के बाद भी उसे जलाते हैं। इसी तरह कुछ लोग कूड़ा-करकट या फिर पत्तियां जलाने का काम करते हैं। इसी तरह लोग भवन निर्माण के दौरान इसके उपाय नहीं करते कि धूल न उड़ने पाए। जो उपाय किए भी जाते हैं, वे दिखावटी ही होते हैं। यदि आम लोग प्रदूषण की रोकथाम में सहयोग नहीं देंगे तो फिर शासन-प्रशासन की कोशिश भी कामयाब नहीं होने वाली। जिस तरह पराली को जलाए जाने से रोका नहीं जा पा रहा है, उससे यह साफ है कि हमारे नेतागण जनमानस के सामने घुटने टेकने में ही अपनी भलाई समझते हैं। वे किसानों ही नहीं, वोट बैंक के लालच में प्रदूषण फैलाने वाले अन्य लोगों के साथ भी ऐसा ही करते हैं।

वायु प्रदूषण की मार शहरी इलाकों में अधिक

आखिर क्या कारण है कि आम जनता प्रदूषण की रोकथाम के मामले में अपने दायित्वों को समझने के लिए तैयार नहीं? नि:संदेह लोगों में चेतना आ रही है, लेकिन अभी वह एक सीमित स्तर पर ही है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि शासन-प्रशासन अपनी सक्रियता बढ़ाए और उन लोगों पर सख्ती करे, जो जानबूझकर गलत काम करने के आदी हो चुके हैं। वायु प्रदूषण की मार शहरी इलाकों में अधिक है और वहीं उसके प्रति ज्यादा लापरवाही देखने को मिल रही है।

शहरों में सड़कों पर अतिक्रमण सख्ती से रोका जाए

इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि शहरों में सड़कों पर अतिक्रमण सख्ती से रोका जाए, क्योंकि उसके कारण यातायात जाम होता है और जब ऐसा होता है तो वाहनों की गति धीमी हो जाती है और वे कहीं अधिक प्रदूषण फैलाते हैं। सड़कों पर अतिक्रमण एक ऐसी समस्या है, जिससे देश का हर शहर जूझ रहा है। मुश्किल यह है कि शहरों के सुनियोजित विकास और उनमें सुगम यातायात एजेंडे से बाहर दिखता है। सड़कों, पार्कों के किनारे बेतरतीब तरीके से खड़ी हुई गाड़ियां, फुटपाथ पर रेहड़ी-पटरी वालों के कब्जे ट्रैफिक जाम का कारण बनते हैं, लेकिन वोट बैंक की राजनीति के कारण इन समस्याओं का भी निदान होता नहीं दिखता।

यदि जनता जागरूक हो जाए तो पराली जलने के साथ निर्माण स्थलों से धूल उड़नी बंद हो सकती

चूंकि इन समस्याओं के निदान में कुछ परेशानी आएगी, इसलिए उनका सामना करने के लिए जनता को तैयार रहना होगा। वास्तव में यह जरूरी है कि जनता उन सभी कारणों का निवारण करने में मददगार बने, जो प्रदूषण फैलाते हैं। यदि जनता जागरूक हो जाए तो कम से कम पराली जलने के साथ निर्माण स्थलों से धूल उड़नी बंद हो सकती है।

वायु प्रदूषण से लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा, देश की अंतरराष्ट्रीय छवि खराब हो रही

वायु प्रदूषण को दूर करने में कोई कोताही इसलिए स्वीकार नहीं की जा सकती, क्योंकि एक तो उससे लोगों की सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है और दूसरे, देश की अंतरराष्ट्रीय छवि भी खराब हो रही है। विगत दिवस ही अमेरिकी राष्ट्रपति ने चीन और रूस के साथ भारत की हवा को गंदी बताया। इसके लिए उनकी आलोचना का मतलब इसलिए नहीं, क्योंकि यह एक सच्चाई है कि इन दिनों दिल्ली-एनसीआर की हवा बहुत खराब है। बेहतर हो कि यह ध्यान रखा जाए कि वायु प्रदूषण के कारण जब देश पर सवाल उठते हैं तो शासन-प्रशासन के साथ जनता की छवि को भी नुकसान पहुंचता है।

 

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]