कैप्टन आर विक्रम सिंह। तिहासबोध का अभाव हमें अपनी ऐतिहासिक त्रसदियों से शिक्षा ग्रहण नहीं करने देता। छह दिसंबर की तिथि को हम रामजन्मभूमि पर बनाए गए ढांचे के ध्वंस की घटना से याद करते हैं। अयोध्या में रामजन्मभूमि पर किसी मस्जिद का औचित्य ही नहीं, अत: वहां पूर्ववत मंदिर बनना चाहिए था, लेकिन यह लक्ष्य साढ़े चार सौ वर्षों बाद हासिल किया जा सका। जब देश धार्मिक आधार पर विभाजित हुआ तो हिंदू समाज की आधारभूत समस्याओं जैसे-काशी, मथुरा, अयोध्या का सरलता से समाधान हो सकता था, लेकिन जो लोग सत्ता में आए वे भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की संभावना से भयभीत थे। नेहरू ने ध्वस्त हुए सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण की सरदार पटेल की पहल का यह कहकर विरोध किया था कि यह तो हिंदू पुनर्जागरण है। नेतृत्व का यह दृष्टिकोण मुगलों से कहीं भिन्न नहीं था।

आखिर हमारी धार्मिक पराजय और उससे उपजी बेचारगी का कारण क्या है? धर्म-संस्कृति की धारा इतनी असहाय क्यों हो गई? किसी ने हमारे मंदिर वापस नहीं किए। हमारे इतिहासकारों ने पंथनिरपेक्षता के घोषित आग्रह के कारण इन प्रश्नों पर विचार करने से भी गुरेज किया है। आखिर इस अशक्तता के कारण क्या हैं? छह दिसंबर की तिथि बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का महापरिनिर्वाण दिवस भी है। पारंपरिक सामाजिक अनुक्रम के पिछड़े वर्ग में जन्मे बाबा साहब के जीवन से हमें अपने प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे। गांधी जी ने तुर्की के खलीफा की बहाली के गैर-राष्ट्रीय मुद्दे पर असहयोग आंदोलन किया था। तब वह समझ ही नहीं पाए कि गुलामी की समस्या तो मूलत: विभाजित-खंडित हिंदू समाज की शक्तिहीनता में छिपी हुई है। बहुत बाद में 1932 में पूना पैक्ट के दौरान वह समझ पाए कि हिंदू समाज को पंगु कर रही यह आंतरिक विभाजनकारी समस्या क्या है।

वास्तव में समाधान तो हिंदू समाज की एकता में है। दरअसल वर्ण व्यवस्था द्वारा उत्पन्न संकट, जो आठवीं शताब्दी से लेकर सोमनाथ, तराइन, खानवा के युद्धों और आगे भी हमारी पराजय का कारण बना। गांधी दो वर्ष तक सामाजिक अलगाव का कारण बने इस जाति-वर्ण विभाजन से संघर्ष करते रहे, लेकिन वह इससे अकेले नहीं लड़ पाए। वह वापस तुष्टीकरण की राजनीति के मद्देनजर जिन्ना से वार्ता में लग गए।

इसी जाति-वर्ण विभाजन के फलस्वरूप अपनी युद्धक शक्ति के ह्रास के कारण इतिहास में दस करोड़ की जनसंख्या वाली समृद्ध भारतभूमि कुल 50-60 लाख की आबादी से निकल कर आए कुछ अरबों, ईरानियों, तुर्को से पराजित होती रही। यहीं मगध में शूद्र शासक महापद्मनंद का साम्राज्य था, जिनकी शक्ति के सम्मुख विश्वविजेता सिकंदर भी पंजाब से आगे बढ़ने का साहस नहीं कर सका। फिर उसी व्यवस्था को सशक्त करता हुआ मौर्य साम्राज्य आया। तब जाति-वर्ण आधारित समाज नहीं थे। कर्म आधारित व्यवस्थाएं थीं। महापद्मनंद, चंद्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त, कनिष्क, ललितादित्य जैसे हमारे महान सम्राटों ने जातियों-वर्णो को कभी कोई महत्व नहीं दिया। समग्र समाज उनका सैनिक था। समाज के कर्मठ शूद्र वर्ग को प्रताड़ित और आधिकारविहीन बनाने का अपराध हमारे महान सम्राटों ने नहीं किया था। उनकी शक्तियों के सामने यवनों, शकों, हूणों आदि को भारत की सीमाओं पर पराजय मिली।

इसके उलट जब भारत निज संपत्ति के समान छोटे राजाओं में विभाजित होकर जाति-वर्ण आधारित व्यवस्था में बंटता गया और समाज विभाजित होता गया तो हमारी पराजय और संकट भी बढ़ते गए। कर्मठ वर्ग को शूद्र वर्ण में मात्र सेवक, अछूत और निम्न कार्य करने वाला बना दिया गया। उन्हें मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया गया, वेदाध्ययन से रोक दिया गया, कुओं के पानी से वंचित कर दिया गया। उनके लिए अलग तालाब-अलग बस्तियों की व्यवस्था की गई। इस अलगाव का परिणाम क्या हुआ?

इसी अलगाव के परिणामस्वरूप समग्र हिंदू समाज अशक्त होता गया। फिर उसे आठ सौ वर्ष लंबी गुलामी, सामूहिक हत्याओं, दुष्कर्मो, बाजारों में विक्रय होती बहनों-बेटियों, बलात मतपरिवर्तनों के रूप में जो दंड मिला उसका कोई हिसाब ही नहीं। जब प्रताड़ित हिंदू समाज का एक बड़ा भाग बाध्य होकर आक्रांताओं के मजहब को मानने वाला हो गया तो हिंदू सभ्यता पर हुए भीषण अत्याचार और मर्मातक पीड़ा की कथाएं कौन कहेगा?

हिंदुओं से अधिक नरसंहार किसी अन्य धर्मावलंबियों का नहीं हुआ। यह 60 लाख यहूदियों के नरसंहार की तुलना में 20 गुने से भी अधिक होगा। जितनी हत्याएं उतने ही बलात मतपरिवर्तन। फलत: आज के अफगानिस्तान से लेकर बंगाल और असम तक एक बड़ी भारतीय आबादी हिंदू धर्म से बाहर हो गई है। जो समाज अपने 70 प्रतिशत भाग को समाज-सभ्यता की मुख्यधारा से बाहर कर दे, उसका जो परिणाम हो सकता है, वही हमारे साथ हुआ। फिर हार का क्रम चलता ही गया। संविधान निर्माताओं की मंशा यह तो न रही होगी कि हम भारत के लोग अपनी धर्म-संस्कृति का त्याग कर विदेशी पंथ-मजहब के अनुयायी हो जाएं, मगर संविधान का सहारा लेकर आज भी मतांतरण जारी है।

यदि हमने निषादराज, वनवासियों के मित्र, शबरी को माता कहने वाले राम के उस वन्य जीवन से प्रेरणा ली होती, जो शूद्र समाज में ही व्यतीत हुआ। अपने पूर्ववर्ती संतों कबीर, नानक, तुलसी की सामाजिक एकता-समरसता की वाणी को सुना-समझा होता तो संपूर्ण समाज जातीय और वर्णवादी विभाजनों को छोड़कर एक साथ खड़ा रहता। फिर विदेशी हमलावर सिंधु नदी तो छोड़िए, हिंदूकुश पर्वत श्रृंखला ही पार न कर पाते। रामजन्मभूमि मंदिर के ध्वंस की तो कल्पना ही न होती। राम आदर्श एक सेतु समान है, जो राष्ट्र के समग्र समाज को जोड़ता है। उस आदर्श को हमें अपने भविष्य के लिए पुन: भूमि पर उतारना है।

(लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं)