हृदयनारायण दीक्षित

राष्ट्रीय गौरवबोध में राष्ट्र का अमृतत्व है। भारत सत्य अमीप्सु सनातन यात्रा है। एक उल्लास धर्मा अनुभूति, जीवंत कविता और विश्व कल्याण में तपरत इतिहास पुरुष, लेकिन कथित प्रगतिशील, स्वयंभू वैज्ञानिक भौतिकवादी भारतीय उपलब्धियों को कमतर सिद्ध करने का अभियान चलाते रहे हैं। परिणाम यह हुआ कि भारतीय अनुभूति, ज्ञान और विज्ञान को भाववादी, मिथक या कल्पना ही जानने का वातावरण बना। भारतीय अनुभूति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और उपलब्धियों को विदेशी चश्मे से देखने की लत बढ़ी। जो विदेशी कहें वह ठीक और जो यहां जाना गया वह कल्पना। ‘रामसेतु’ को यहां हजारों बरस से रामसेना द्वारा निर्मित पुल कहा जा रहा था। कथित प्रगतिशील श्रीराम को ही इतिहास पुरुष नहीं मानते तो रामसेतु को क्यों मानें? लेकिन अमेरिकी पुरातत्वविदों ने श्रीलंका व भारत के बीच 30 मील का चट्टान निर्मित मार्ग बताया है। उनके अनुसार समुद्री रेत से प्राकृतिक रूप में बनने वाली चार हजार वर्ष पुरानी चट्टानों से भिन्न सात हजार वर्ष पुराना यह रास्ता मानव निर्मित है। डिस्कवरी कम्युनिकेशन ने इसे दिखाया है। नासा ने भी कुछ साल पहले ऐसे चित्र दिखाए थे। विदेशी स्नोतों से प्रसारित यह सूचना बेशक स्वागत योग्य है, लेकिन भारत के स्वयंभू विद्वान रामसेतु को खारिज ही कर रहे थे। विदेशी के स्वागत और स्वदेशी विश्वास के अनादर का सिलसिला जारी है।


कुंभ संगम दुनिया का सबसे बड़ा मेला है। इसमें अनेक देशों के लोग आते हैं। कुंभ भारतीय आस्था का संगम है। वायसराय लिनलिथिगो ने 1942 का कुंभ देखा। पं. मदन मोहन मालवीय से पूछा ‘भारी संख्या में लोगों को बुलाने पर भारी खर्च लगा होगा?’ मालवीय जी ने बताया सिर्फ दो पैसे के पंचांग से कुंभ तिथि जानकर लाखों लोग आए हैं। द. अफ्रीका से लौटे गांधी जी भी कुंभ को देखकर आश्चर्यचकित थे। पं. नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में लिखा ‘वास्तव में यह समग्र भारत था’ आश्चर्य व्यक्त करते हुए लिखा ‘कैसा आश्चर्य विश्वास? जो हजारों वर्ष से इनको, इनके पूर्वजों को देश के कोने-कोने से यहां खींच लाता है।’ कुंभ शब्द ऋग्वेद में है। अथर्ववेद व पुराणों में है। सूर्य की 12 राशियों में एक कुंभ भी है। पुराणों में कुंभ की तमाम कथाएं हैं। प्रयाग में कुंभ परंपरा की शुरुआत शंकराचार्य जी ने की। फिर भी कथित प्रगतिशील कुंभ को महत्व नहीं देते। संयुक्त राष्ट्र के शैक्षिक वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन यूनेस्को ने इसी माह कुंभ को विश्व मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में सम्मिलित किया है। सो कुंभ की महत्ता पर राष्ट्रीय चर्चा बढ़ी है। राष्ट्रीय गौरवबोध की कमी से ऐसा ही होता है।
भारत हजारों साल प्राचीन राष्ट्र है। दुनिया का प्राचीनतम ज्ञान दर्शन, इतिहास और समाज विज्ञान ऋग्वेद में है। यास्क ने ‘निरुक्त’ लिखकर वास्तविक अर्थ समझाने की कोशिश की। डॉ. रामविलास शर्मा को छोड़कर अधिकांश वामपंथी विद्वानों ने ऋग्वेद को आदर नहीं दिया। सायण, दयानंद आदि विद्वानों के भाव अर्थ को भी प्रतिष्ठा नहीं मिली। जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने ऋग्वेद का भाष्य किया। मैक्समूलर के कारण ऋग्वेद की चर्चा बढ़ी। कथित प्रगतिशील तब भी इसे चरवाहों के गीत बताते रहे। कुछेक वर्ष पूर्व यूनेस्को ने इसे अंतरराष्ट्रीय धरोहर बताया। तब ऋग्वेद की महत्ता बढ़ी। देसी विद्वान कहें तो बेकार और जब विदेशी वही बात कहें तो ठीक। मूलभूत प्रश्न है कि हम भारतवासियों को अपने दर्शन विज्ञान के लिए विदेशी विद्वानों से ही प्रमाण पत्र लेने की जरूरत क्यों पड़ती है? आत्महीनता की ऐसी ग्रंथि का मूल आधार क्या है? हम अपनी धरती पर जन्मे दर्शन, ज्ञान व विज्ञान के प्रति गौरव बोध से भरे पूरे क्यों नहीं हैं? संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, कला और शोध परंपराओं की विशिष्टता के बावजूद हम विदेशी सनद की ही प्रतीक्षा क्यों करते हैं?
भारतीय दर्शन का मूलाधार उपनिषद हैं। ऋग्वेद में दर्शन के बीज हैं, उपनिषद इसी दर्शन का विस्तार। कथित प्रगतिशीलों ने उपनिषद को लगातार भाववादी बताया। सत्रहवीं सदी में औरंगजेब के भाई दाराशिकोह ने उपनिषदों के फारसी अनुवाद कराए। फ्रांसीसी विद्वान आकतील टुपेरो ने फारसी से लैटिन अनुवाद किया। जर्मन दार्शनिक शोपेन हावर ने यही अनुदित उपनिषद पढ़े। उसने कहा ‘इनमें भारत का वातावरण प्रकृति से संलग्न है। मानस यहूदी अंधविश्वासों से घुल जाता है।’ लेकिन भारतीय जनमानस पर प्रगतिशील अंधविश्वासों की जकड़न है। उससे मुक्ति का आसान तरीका है-राष्ट्रीय गौरवबोध। विश्व कवि रवींद्र नाथ ठाकुर भी उपनिषद दर्शन से प्रभावित थे। उनकी तमाम कविताएं इसी दर्शन से भरी हैं, लेकिन उनकी प्रतिभा पर भारत का ध्यान तब गया जब पश्चिमी देशों ने स्वीकार किया। निराला को पश्चिमी सनद नहीं मिली। सो निराला का काव्य कम प्रतिष्ठित हुआ। कठोपनिषद् में अग्नि तत्व की सर्वव्यापकता है। यही अग्नि हिराक्लिट्स के दर्शन का केंद्र है। हिराक्लिट्स की प्रतिष्ठा ज्यादा है उपनिषद की कम। यूनानी थेल्स ने जल से सृष्टि का उद्भव बताया। ऋग्वेद में जलमाताएं सृष्टि की जननी हैं। भारतीय ज्ञान की बात लोकल और विदेशी की सनद ग्लोबल। इस हीनग्रंथि का औचित्य क्या है ? दुनिया का पहला व्याकरण ‘पाणिनि’ की ‘अष्टाध्यायी’ है। पतंजलि ने इसी पर ‘महाभाष्य’ लिखा था। एशियाटिक सोसाइटी में विलियम जोंस ने संस्कृत को दुनिया की सबसे व्यवस्थित, सुगठित भाषा बताया। संस्कृत की मान्यता बढ़ गई। कालिदास से बड़ा ललित कवि दुनिया में दूसरा नहीं हुआ। भारतीय विद्वान उन्हें ‘शेक्सपियर ऑफ इंडिया’ बताते रहे। यहां भी विदेशी से तुलना की हीनग्रंथि है। जोंस ने 1779 में कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम् का अंग्रेजी अनुवाद किया। इससे कालिदास की प्रतिभा का परिचय पश्चिम को भी हो गया। जोंस के अंग्रेजी अनुवाद से गेटे ने जर्मन अनुवाद किया। अनुवादों के पहले कालिदास महान कवि क्यों नहीं थे? संगीत का अनुवाद नहीं होता। नीढेम के अनुसार संगीत संहिता के संबंध में चीन का विश्वास था कि वह उन्हें पश्चिम से मिला है। यूनानियों का मानना था कि वह उन्हें पूरब से मिला है।’ भारत चीन के पश्चिम व यूनान के पूरब में है। संगीत के सात सुर षड़ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, आदि भारतीय खोज हैं। श्रुति विज्ञान भारत से ही बाहर गया, लेकिन हम अपनी शास्त्रीय संगीत परंपरा पर गर्व नहीं करते।
योग भारत का प्राचीन ज्ञान है। पतंजलि ने योग सूत्र लिखे। इसकी प्रतिष्ठा तब हुई जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयास से संयुक्त राष्ट्र ने योग को महत्ता दी। विदेशी का ऐसा प्रभाव अन्य देशों में नहीं मिलता। सभा, समिति प्राचीन भारतीय परंपरा हैं, लेकिन भारत ने ब्रिटिश संसद को आदर्श बनाया। विदेशी के प्रति अंधानुकरण खराब होता है। गणित भारत की खोज है। भारत के लोगों ने एनसाक्लोपीडिया ब्रिटेनिका से यह तथ्य जाना, तब माना। विश्व बारूद के ढेर पर है। भारत को तनावग्रस्त विश्व का नेतृत्व करना है, लेकिन हम विदेशी प्रमाण पत्र के भूखे हैं। साम्राज्यवादी प्रभाव अभी जिंदा है। कवि बायरन ने अंग्रेजी सत्ता के समय ही चेतावनी दी थी ‘पूरब की ओर देखो। जहां गंगा की सांवली जाति तुम्हारे अत्याचारी साम्राज्य की नींव हिला देगी।’, लेकिन वह नींव अभी भी मजबूत है।
[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]