[ हृदयनारायण दीक्षित ]: 'शब्द’ सबसे पहले था। यह मान्यता ‘बाइबिल’ की है। सबसे पहले ‘हिरण्यगर्भ’ था। यह घोषणा ऋग्वेद की है। हिरण्यगर्भ फूटा, इस तप से वाणी निकली। वाक्-वाणी या शब्द अतिप्राचीन है। जन, गण सहित सभी समूहों और समाजों का जन्म तथा विकास शब्द से हुआ। व्यक्ति और व्यक्ति से संवाद हुआ। वाद विवाद प्रतिवाद हुआ। सहमति बनी। असहमति भी पीछे-पीछे चली। असहमति के सम्मान पर भी भारत में सहमति बनी। वाद विवाद और संवाद सामाजिक विकास के सशक्त उपकरण हैं। वैदिक दर्शन में इसीलिए प्रश्न और तर्क को देवता कहा गया है। भारत के करोड़ों लोग अंग्रेजीराज से लड़े थे। आंदोलन होते थे। बीच में संवाद भी होते थे। वे झुकते थे। थोड़ा-कुछ मान जाते थे। आंदोलन फिर भी होते थे।

आंदोलन भी समाज और सत्ता के मध्य संवाद हैं। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1975 में हुआ आंदोलन संवाद ही था। तब सरकार ने संवाद की महत्ता से इन्कार किया और हिंसक शक्ति का प्रयोग किया। श्रीराम जन्मभूमि को लेकर कई बार आंदोलन हुए। सरकार ने गोली चलाई। संवाद टूट गया। करोड़ों लोगों की भावनाओं का सम्मान नहीं हुआ तो फिर से आंदोलन हुआ। छह दिसंबर की घटना हो गई। अब डेढ़ दो माह बाद सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई है। इस बीच संतों ने राम मंदिर के लिए विधि निर्माण की मांग की है।

संप्रति भारत विश्व प्रतिष्ठ राष्ट्र है। देश की बहुसंख्या श्रीराम जन्मभूमि स्थल पर भव्य मंदिर चाहती है। यह समवेत भारत की अभिलाषा है, लेकिन अल्पसंख्या वाला एक समूह ऐसा नहीं चाहता। सर्वानुमति का अपना आनंद है। अपवाद छोड़ केंद्र और लगभग सभी राज्यों की सरकारें श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के पक्ष में हैं। विकल्प तीन ही हैं। परस्पर संवाद के माध्यम से मंदिर निर्माण श्रेष्ठ उपाय है। यह मंदिर भारत की सर्वोच्च लालसा है। इसमें किसी भी समुदाय के मन की जीत या हार राष्ट्रीय आनंद को घटा सकती है।

प्रेमपूर्ण संवाद में हार या जीत नहीं होते। हम भारतवासी एक हैं। यही आदर्श भाव अनुभूति है। नि:संदेह हमारी आस्था के केंद्रों में भिन्नता है तो भी अपनी आस्था के अनुसार चलते हुए राष्ट्रीय एकता के प्रश्नों पर हम सब एक क्यों नहीं हो सकते? इतिहास का सम्यक बोध जरूरी है। इतिहास हमेशा ठीक मार्ग पर ही नहीं चलता। इतिहास की गलती सुधारने वाले समाज ही प्रगतिशील होते हैं।

इतिहास में सती प्रथा थी। भारत इससे मुक्त हुआ। इतिहास में अस्पृश्यता मिलती है। संविधान ने इसका खात्मा किया। अब निर्मम जाति प्रथा का भी अंत हो रहा है। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का ध्वंस इतिहास की क्रूर घटना है। आखिरकार हम भारत के सभी पंथों, आस्था और विश्वासों के लोग इतिहास की इस क्रूर घटना का परिष्कार क्यों नहीं कर सकते? छह दिसंबर, 1992 की घटना के ठीक 11 दिन बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में अयोध्या की घटना पर देश और देश के बाहर की प्रतिक्रियाओं को अनावश्यक बताया और कहा कि ‘हमने दुनिया को नहीं बताया कि वह एक विवादित ढांचा था। बार-बार कहा गया कि वहां एक मस्जिद थी। हमने कभी स्पष्ट नहीं किया कि मस्जिद के ढांचे के साथ वहां एक मंदिर भी है। यह भी कि विवाद 500 वर्षों से है।’ उन्होंने सरकार से कहा, ‘पूरी दुनिया में ऐसे उदाहरण हैं। रूस ने वारसा पर कब्जा किया, वहां एक चर्च बनाया। पोलैैंड स्वतंत्र हुआ उसने चर्च ध्वस्त किया।

इतिहासकार टायनबी भारत आए। उन्होंने तंज कसा, ‘केवल भारत में ही संभव है मंदिर गिराकर मस्जिद बना दी जाए।’ मंदिर विरोधी अपना हृदय विशाल करें। आस्था और विश्वास के प्रश्न भावनात्मक होते हैं। उनके समाधान परस्पर भावना के आदर से ही संभव है। पांडव पांच गांव पर सहमत थे। वार्ता निष्फल हुई। भारत में महाभारत हो गया।

आस्था आध्यात्मिक बोध है, लेकिन इसकी स्थापना शून्य में नहीं होती। यह प्रत्यक्ष भौतिक इतिहास से तथ्य पाती है। राष्ट्रीय विवेक के उपकरण सतत अनुसंधान करते हैं। सत्य, शील और लोकमंगल के तत्व संगति में आते हैं। श्रद्धा विश्वास का भाव परिपूर्ण होता है तब बनती है आस्था। मोहनदास करमचंद गांधी स्वाधीनता संग्र्राम और सदी के महानायक थे। विधि विद्वान बैरिस्टर, सत्याग्रही सामाजिक कार्यकर्ता थे। गांधी जी के सारे गुण इतिहास का अंग हैं। मुग्ध भारत ने उन्हें राष्ट्रपिता और महात्मा कहा।

श्रीराम इक्ष्वाकुवंशी दशरथ के पुत्र हैं। वह प्रागैतिहासिक काल में राजा थे और मंगलभवन अमंगलहारी शील, विवेक और मर्यादा के पुरुषोत्तम भगवान जाने गए। भारत और विश्व के कई देशों में उनके प्रति अगाध आस्था है। भारत का मन श्रीराम में रमता है। आस्था और ऐतिहासिक तथ्य हैं कि अयोध्या में उनका जन्म हुआ। श्रद्धालुओं ने यहां मंदिर बनाया था। यह साधारण मंदिर का मसला नहीं है। यह ‘जन्मभूमि’ का असाधारण मंदिर था। इसी मंदिर को तोड़ा गया। यह ऐतिहासिक तथ्य है।

संवाद सर्वोत्तम मार्ग है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी यही अवसर दिया था। संप्रति न्यायालय में विचारण की प्रतीक्षा है। न्यायालय के निर्णय में एक पक्ष की जीत होगी तो एक पक्ष की हार। पराजित पक्ष मलाल में रहेगा। संभव है कि पराजित पक्ष न्यायालय के फैसले के स्वागत की औपचारिकता निभाए। संभव यह भी है कि वह अन्यथा प्रतिक्रिया भी दे। संसद द्वारा विधि निर्माण का रास्ता सीधा है, लेकिन 245 सदस्यीय राज्यसभा में भाजपा के 73 सांसद ही हैं। इसलिए अपेक्षानुसार बहुमत जुटाना श्रमसाध्य होगा। फिर संसद द्वारा पारित विधि पर भी न्यायालय के पास पुनरीक्षण के अधिकार हैं।

परस्पर संवाद का रास्ता कठिन होने के बावजूद राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने वाला है। हम भारत के लोगों में क्षेत्रीय विविधिता और आस्था विश्वास की अनेकता का इंद्रधनुष है। सब मिलकर एक जन हैं, एक संस्कृति के कारण एक राष्ट्र हैैं। एक संविधान के प्रति निष्ठावान हैैं। तमाम असहमतियों के बावजूद राष्ट्र सर्वोपरिता में आनंदित है। विधायिका और न्यायपालिका में भी बहुमत की रीति अपनाते हैं। अल्पसंख्यक विपक्ष का आदर करते हैं। परस्पर वाद-विवाद करते हैं और संवाद से शक्ति अर्जित करते हैं।

राम मंदिर राजनीतिक प्रश्न नहीं है। संतों द्वारा कानून बनाने की मांग को आगामी लोकसभा चुनावों से जोड़ना सही नहीं है। लिब्रहान आयोग के सामने भी तत्कालीन केंद्र सरकार ने विवादित स्थल को श्रीराम जन्मभूमि बताया था। कहा था कि मुस्लिम पक्ष ने इसे 1934 में ही छोड़ दिया था। तबसे यहां नमाज नहीं हुई। उस समय भी केंद्र के दृष्टिकोण को लोकसभा चुनाव से जोड़ा गया था। ऐसी राजनीति भारत की जनभावनाओं की उपेक्षा करती है। श्रद्धालुओं को ऐसी राजनीतिक टिप्पणियां अखरती हैं।

कुछ राजनीतिक दल श्रद्धा को अंधविश्वास कहते हैं। श्रद्धा अंधविश्वास नहीं होती। लोकजीवन यों ही किसी वस्तु या प्रत्यय का आदर नहीं करता। जब करोड़ों हृदय एक साथ स्पंदित होते हैं तब बनती है आस्था। सबको चाहिए कि बहुसंख्या की भावना का सम्मान करें। परस्पर वार्तालाप करें, मन की गांठे खोलें। मिल बैठकर समस्या का समाधान करें। विश्व को संदेश दें कि हम विभिन्न आस्था वाले लोग बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान भी वार्ता से ही कर लेते हैं। आस्थाओं में भी यहां परस्पर संवाद का कौशल है।

[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैैं ]