[ भरत झुनझुनवाला ]: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनों ने घरेलू उत्पादन को बढ़ाने का नारा दिया है। इसे अर्थशास्त्र में संरक्षणवाद कहा जाता है। इस दिशा में सरकार रक्षा क्षेत्र की तमाम वस्तुओं का आयात प्रतिबंधित करने की तैयारी कर रही है। कई चीनी एप बंद कर दिए गए हैं। जैकेट इत्यादि वस्तुओं पर आयात कर में वृद्धि की गई है। इसके पीछे यही सोच है कि देश में ही अधिकाधिक वस्तुओं का उत्पादन किया जाए जिससे हम दूसरे देशों पर आश्रित न रहें और हमारी आर्थिक संप्रभुता बनी रहे। संरक्षण के ये लाभ सर्वमान्य हैं, लेकिन संरक्षण के विरोध में कई तर्क भी दिए जाते हैं जिनका निवारण जरूरी है।

पहला तर्क है कि संरक्षणवाद में उत्पादक के हित पर ध्यान दिया जाता है न कि उपभोक्ता के हित पर। जैसे यदि हमने जैकेट पर आयात कर बढ़ाया तो देश में जैकेट का दाम बढ़ जाएगा। देसी जैकेट निर्माता अपने माल को महंगा बेचेंगे और उन्हें अधिक लाभ होगा। वहीं उपभोक्ता को महंगा जैकेट खरीदना पड़ेगा। यह तर्क इस तथ्य को अनदेखा करता है कि उत्पादन से ही क्रयशक्ति बढ़ती है। जैसे यदि हम चीन से जैकेट, बल्ब और कपड़ा इत्यादि सस्ती दरों पर आयात कर लें तो देश के नागरिक क्या बनाएंगे? यदि हम उत्पादन नहीं करेंगे तो अपने लोगों को रोजगार कैसे देंगे? रोजगार नहीं देंगे तो उनके हाथ में क्रयशक्ति नहीं आएगी जिससे कि वे उपभोग बढ़ा सकें। इसलिए उत्पादन और उपभोक्ता का प्रत्यक्ष संबंध है। विषय उत्पादक बनाम उपभोक्ता का नहीं है। यह सही है कि संरक्षणवाद से देश के लोगों को महंगा माल खरीदना होगा, मगर या तो हम आयात करें और घरेलू उत्पादन के अभाव में नागरिकों को भूखा मरने दें। अथवा संरक्षणवाद को अपनाएं, अपने नागरिक को रोजगार उपलब्ध कराएं और उन्हें महंगा माल खरीदने पर विवश भी करें। कुल मिलाकर भूखे मरने की तुलना में महंगी जैकेट खरीदना कहीं बेहतर दिखता है।

संरक्षणवाद के विरोध में दूसरा तर्क है कि हर देश को वह माल बनाना चाहिए जिसे बनाने में वह कुशल है। जैसे भारत यदि कालीन सस्ता बनाता है और चीन यदि जैकेट सस्ते बनाता है तो भारत को कालीन बनाकर निर्यात करना चाहिए और चीन में बने जैकेट का आयात करना चाहिए। इससे भारत के कालीन निर्माता को अधिक मूल्य मिलेगा और उस बढ़ी हुई आय से वह चीन में निर्मित जैकेट अधिक मात्रा में खरीद सकेगा। यह तर्क भी सही है, लेकिन तीन बातों को नजरअंदाज करता है। पहली बात यह कि आयात पर निर्भरता में जोखिम जुड़ा है। जैसे कोविड संकट में अथवा तालिबान जैसों द्वारा किसी देश पर कब्जा करने के बाद वहां से आवश्यक वस्तुओं का आयात बंद हो जाता है। इस जोखिम से बचाव के लिए हमें कुछ उपाय करने होते हैं। उस उपाय पर आने वाले खर्च को आयातित वस्तु के मूल्य पर जोड़ना चाहिए। जैसे यदि चीन में बना जैकेट हमें 700 रुपये में मिलता है और उस पर 300 रुपये अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम का जोड़ लें तो उसकी कीमत 1,000 रुपये हो जाएगी। इस प्रकार वह सस्ता नहीं रह जाएगा।

घरेलू उत्पादन के और भी लाभ हैं। जैसे दीर्घकाल में उत्पादन से ही हमें आवश्यक तकनीक प्राप्त हो पाती हैं। देश अपनी रक्षा के लिए सैन्य सामग्र्री बनाने लगता है। जैसे यदि हम देश में कार बनाने के लिए स्टील का आयात करने लगें तो स्टील बनाने की तकनीक हमें उपलब्ध नहीं होगी और तब हम अपने रक्षा उपकरणों के निर्माण के लिए भी स्टील का उत्पादन नहीं कर पाएंगे। ब्रिटिश अर्थशास्त्री कींस का एक विख्यात कथन है कि ‘व्यापार करना अच्छा है, परंतु जरूरत का माल अपने घर में ही बनाना चाहिए।’ वैसे गैर-जरूरी वस्तुओं के आयात में कोई हर्ज नहीं। जैसे स्विस चाकलेट के आयात में छूट दें, मगर स्टील का उत्पादन घर में ही करें। यदि किसी स्थिति में चाकलेट का आयात नहीं हुआ तो हमारी अर्थव्यवस्था नहीं चरमराएगी।

संरक्षणवाद के विरोध में तीसरा तर्क अपनी स्वतंत्रता के बाद के कई वर्षों का हमारा अनुभव बताया जाता है। नेहरू के नेतृत्व में हमने सार्वजनिक इकाइयों को प्रोत्साहन दिया और आयात पर अंकुश लगाए रखा ताकि देश में उत्पादन बढ़े। हालांकि ऐसा करते हुए हमने एक साथ दो गलतियां भी कीं। पहली गलती यही कि सार्वजनिक इकाइयों से जुड़े अधिकारियों और नेताओं की जवाबदेही सुनिश्चित नहीं की गई। इससे वे इकाइयां भ्रष्टाचार एवं भाई-भतीजावाद का अड्डा बनती गईं। दूसरी समानांतर गलती देश में प्रतिस्पर्धा को दबाने की रही। एक समय देश में केवल वालचंद और बिरला ही कार बनाते थे। तब टाटा ने भी कार उत्पादन में हाथ आजमाने का प्रयास किया था, लेकिन उन्हें लाइसेंस नहीं दिया गया। इस प्रकार देखें तो स्वतंत्रता के बाद के दौर में भ्रष्टाचार के प्रसार और प्रतिस्पर्धा पर प्रहार जैसी वजहों से संरक्षणवाद को लेकर कटु अनुभव हुए।

सरकार को अतीत के अनुभवों से सबक लेते हुए संरक्षणवाद की राह पर आगे बढ़ना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले आयात कर में वृद्धि की जानी चाहिए ताकि घरेलू उत्पादन को संबल मिले। बड़ी कंपनियों पर कर बढ़ाने की कुछ गुंजाइश तलाशी जाए। छोटे उद्योगों द्वारा विकेंद्रित उत्पादन को भी बढ़ाया जाना चाहिए। स्मरण रहे कि जब तक हमारे नागरिकों को सस्ता विदेशी माल आसानी से उपलब्ध होता रहेगा तब तक वे महंगा घरेलू माल नहीं खरीदेंगे। इससे ‘वोकल फोर लोकल’ जैसी महत्वाकांक्षी मुहिम परवान नहीं चढ़ पाएगी। नागरिकों को महंगे घरेलू माल खरीदने की ओर उन्मुख करना होगा और समझाना होगा कि ऐसा करना क्यों आवश्यक है। साथ ही साथ घरेलू प्रतिस्पर्धा को भी बढ़ाना होगा, जिससे कालांतर में उत्पादों के दाम और प्रतिस्पर्धी एवं तार्किक होते जाएंगे। इसी रणनीति से हम चीनी सस्ते माल की सुनामी का भलीभांति सामना कर सकेंगे।

आखिर देश में आयातित वस्तुओं के पक्ष में इतनी आवाजें क्यों उठती हैं? मेरे विचार में इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित पोषित होते हैं। इन कंपनियों में उच्च वर्ग से जुड़े तमाम भारतीय भी कार्यरत होते हैं। इसीलिए उनकी ‘वर्ग चेतना’ उन्हें देश को विदेशी व्यापार बढ़ाने के लिए प्रेरित करती है। वे अपने निजी हितों को साधने के लिए ही आयातित माल की वकालत करते हैं। स्पष्ट है कि अगर हम अतीत की गलतियों को न दोहराएं तो संरक्षणवाद मनवांछित परिणाम देने में सक्षम है। इससे भागवत और मोदी की सोच भी फलीभूत हो सकती है।

( लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं )